भारतीय शिक्षा का 78 साल का सफर और 2047 में विकसित राष्ट्र बनने के सपने के बीच भविष्य की शिक्षा का कैसा हो रोडमैप?
✍️ प्रवीण त्रिवेदी
भारत जब अपना 79वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है, तो हमारे जश्न के पीछे एक सवाल गूंजना चाहिए—क्या हम सचमुच शिक्षा में सिरमौर बनने की राह पर हैं या सिर्फ नारेबाज़ी में उलझे हुए हैं? आज़ादी के बाद से लेकर अब तक हमने साक्षरता दर, स्कूलों की संख्या, विश्वविद्यालयों के विस्तार और तकनीकी संस्थानों की स्थापना में लंबी छलांग लगाई है, लेकिन सच यह है कि हमारे सिस्टम के मूलभूत दोष अब भी जस के तस हैं।
हम 2047 में विकसित राष्ट्र बनने का सपना देख रहे हैं, लेकिन शिक्षा के जिस ढांचे पर यह सपना टिका है, उसमें अभी भी कई जगह दीमक लगी हुई है। सवाल यह नहीं है कि हमने कितना बनाया, सवाल यह है कि जो बनाया, वह कितना मजबूत है और किसके लिए बनाया। हमारे यहां शिक्षा की नीतियां अक्सर पांच साल के राजनीतिक चक्र की कैद में रहती हैं, न कि पचास साल के विज़न में। हर नई सरकार नई योजना लाती है, और पुरानी योजनाएं अधूरी छोड़ दी जाती हैं। परिणाम यह है कि हम पॉलिसी पावरपॉइंट में तो टॉप कर जाते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत में फेल हो जाते हैं।
हमारे प्राथमिक विद्यालय अब भी कई जगह शिक्षकहीन हैं, माध्यमिक विद्यालयों में प्रयोगशालाएं सपना हैं और उच्च शिक्षा संस्थानों में रिसर्च का स्तर अंतरराष्ट्रीय मानकों से कोसों दूर है। इसके बावजूद हम रैंकिंग की दौड़ में आईआईटी और आईआईएम के चमकदार पोस्टर दिखाकर आत्मसंतुष्ट हो जाते हैं।
2047 तक शिक्षा में सिरमौर बनने के लिए हमें सबसे पहले यह तय करना होगा कि प्राथमिकता क्या है—ग्लोबल रैंकिंग में नाम आना या हर बच्चे को उसकी क्षमता के अनुसार बेहतर शिक्षा देना। अभी हम 'एलीट बनाम मास' के द्वंद्व में फंसे हैं। महानगरों के प्राइवेट स्कूल और इंटरनेशनल यूनिवर्सिटीज़ में पढ़ने वाले बच्चे ग्लोबल सिलेबस और टेक्नोलॉजी से लैस हैं, जबकि गांव और छोटे कस्बों के बच्चे स्कूलों के इंफ्रास्ट्रक्चर की जद्दोजहद के बीच अपना भविष्य ढूंढ रहे हैं।
अगर हम सच में सिरमौर बनना चाहते हैं तो इस दोहरेपन को खत्म करना अनिवार्य है। हमें शिक्षा को अधिकार के साथ-साथ एक समान अवसर का उपकरण बनाना होगा। इसके लिए वित्तीय निवेश बढ़ाना होगा—सिर्फ घोषणाओं में नहीं, बल्कि वास्तविक बजट आवंटन में। आज भी भारत अपने GDP का महज 3-3.5% शिक्षा पर खर्च करता है, जबकि विकसित राष्ट्र 6% से ऊपर खर्च करते हैं। यह अंतर केवल आंकड़ों में नहीं, बच्चों के भविष्य में दिखाई देता है।
शिक्षा के ढांचे को मजबूत करने का दूसरा स्तंभ होगा—शिक्षकों की गुणवत्ता और प्रशिक्षण। हमारे यहां शिक्षक भर्ती में पारदर्शिता और गुणवत्ता का घोर अभाव है। कई जगह नियुक्ति राजनीतिक सौदेबाज़ी का हिस्सा होती है, और जो लोग नियुक्त होते हैं उन्हें भी सतत प्रशिक्षण और नई तकनीक का इस्तेमाल सिखाने पर पर्याप्त निवेश नहीं होता। 2047 के भारत को ऐसे शिक्षक चाहिए जो सिर्फ पाठ्यपुस्तकें न पढ़ाएं, बल्कि बच्चों में जिज्ञासा, समस्या समाधान क्षमता और आलोचनात्मक सोच विकसित करें। इसके लिए डिजिटल टूल्स, इंटरैक्टिव लर्निंग और बहुभाषी कंटेंट को मुख्यधारा में लाना होगा।
तीसरा, शिक्षा में रिसर्च और नवाचार को केंद्र में रखना होगा। आज हमारे विश्वविद्यालय रिसर्च पेपर की गिनती के खेल में लगे हैं, लेकिन उसका असर समाज या उद्योग में दिखाई नहीं देता। अगर हमें विकसित राष्ट्र बनना है, तो शिक्षा संस्थानों को उद्योग, स्टार्टअप और लोकनीति के साथ जोड़ना होगा। अमेरिका, जर्मनी या जापान में विश्वविद्यालय सिर्फ डिग्री देने वाले संस्थान नहीं, बल्कि राष्ट्रीय नवाचार के इंजन होते हैं। भारत को भी इस दिशा में बड़े पैमाने पर बदलाव करना होगा, जिसमें बौद्धिक संपदा संरक्षण, फंडिंग और प्रयोगशालाओं का आधुनिकीकरण शामिल है।
चौथा, शिक्षा में समानता सिर्फ भौगोलिक या आर्थिक अंतर खत्म करने तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि पाठ्यक्रम और परीक्षा पद्धति में भी समानता लानी होगी। आज CBSE, ICSE और राज्य बोर्डों के बीच इतना अंतर है कि एक ही देश में पढ़े बच्चे की प्रतिस्पर्धा के मौके असमान हो जाते हैं। यह असमानता न केवल बच्चों की प्रगति रोकती है, बल्कि सामाजिक विभाजन को भी गहरा करती है। एक राष्ट्रीय न्यूनतम मानक पाठ्यक्रम और परीक्षा पद्धति होना जरूरी है, जिसे सभी बोर्डों में लागू किया जाए, जबकि स्थानीय भाषाओं और संस्कृति को बनाए रखने की लचीलापन भी हो।
पांचवां, शिक्षा को 2047 के भारत में सिर्फ किताबों तक सीमित न रखकर कौशल विकास, उद्यमिता और जीवन कौशल से जोड़ना होगा। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स, ग्रीन टेक्नोलॉजी, साइबर सिक्योरिटी जैसे क्षेत्रों में बच्चों को स्कूल स्तर से ही एक्सपोजर देना होगा, ताकि वे भविष्य की नौकरियों के लिए तैयार हों, न कि अतीत की नौकरियों के लिए।
अंततः, हमें यह समझना होगा कि शिक्षा का सपना तब तक अधूरा है जब तक वह हर गांव, हर गली, हर वर्ग तक समान रूप से नहीं पहुंचता। सिरमौर बनने का मतलब सिर्फ हार्वर्ड-जैसे कैंपस बनाना नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि देश के सबसे गरीब बच्चे को भी वही गुणवत्ता मिले जो सबसे अमीर बच्चे को मिल रही है। अगर 2047 में हम शिक्षा में सिरमौर बनना चाहते हैं, तो हमें अपनी नीतियों में साहस, अपने बजट में उदारता और अपने विज़न में ईमानदारी लानी होगी।
✍️ लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।
Post a Comment