"अब आगे क्या करें?" – यह प्रश्न जैसे ही दसवीं या बारहवीं के परिणाम आते हैं, लाखों छात्रों और उनके अभिभावकों के सिर पर हथौड़े की तरह गिरता है। परीक्षा तो बीत जाती है, लेकिन परीक्षा के बाद जो असमंजस और सामाजिक दबाव शुरू होता है, वह कहीं अधिक घातक होता है। यह महज़ एक विकल्प चुनने का मामला नहीं होता, बल्कि एक व्यक्ति के जीवन की दिशा तय करने का संकट होता है। कैरियर के इस मोड़ पर भारतीय समाज की विडंबनाएं और हमारी शैक्षिक प्रणाली की असमर्थता खुलकर सामने आ जाती है। यही इस आलेख की चिंता है।


"कैरियर की क्रॉसरोड पर खड़ा अकेला छात्र"

हर साल करोड़ों छात्र दसवीं-बारहवीं के बाद एक ऐसे चौराहे पर खड़े होते हैं जहाँ दिशा नहीं, केवल दबाव होता है। भारत में दसवीं और बारहवीं कक्षा एक ऐसी सीमा रेखा बन गई है, जहां पहुंचते ही छात्र और अभिभावक दोनों भय, भ्रम और सामाजिक प्रतिस्पर्धा के भंवर में फँस जाते हैं। एक ओर मार्कशीट है, दूसरी ओर रिश्तेदारों की राय। एक तरफ मन की चाहत है, तो दूसरी तरफ समाज की अपेक्षाएं। सवाल यह नहीं है कि कौन-सा विषय चुना जाए, सवाल यह है कि क्या हमने बच्चों को स्वयं सोचने, समझने और निर्णय लेने का अवसर दिया है?

विडंबना यह है कि कैरियर की दिशा तय करने वाला यह क्षण सबसे अधिक भीड़-प्रेरित होता है। ‘बेटा इंजीनियरिंग कर ले, बहुत स्कोप है’, ‘बायो ले लो, डॉक्टर बन जाओगे’, ‘कॉमर्स ले लो, CA का अच्छा भविष्य है’— ऐसी बातें हर घर में गूंजती हैं। लेकिन कोई यह नहीं पूछता कि बच्चा क्या चाहता है? उसका रुझान, रुचि, स्वभाव और क्षमता क्या है?

हमारे देश में काउंसलिंग को अभी भी एक मज़ाक की तरह देखा जाता है। स्कूलों में करियर गाइडेंस की बातें होती ज़रूर हैं, पर उनका ज़मीनी असर न के बराबर है। अधिकतर माता-पिता खुद उस दौर से नहीं गुज़रे हैं जहाँ उन्हें विकल्प चुनने का अधिकार मिला हो, और वही परंपरा अब वे अगली पीढ़ी पर लाद देते हैं।


आज भी कई गांवों और छोटे शहरों में ‘मेडिकल-इंजीनियरिंग’ के अलावा कैरियर की कोई परिभाषा नहीं है। आर्ट्स लेना तो जैसे फेल हो जाने का प्रमाणपत्र बन गया है। यह मानसिकता न केवल छात्रों के स्वाभाविक विकास को रोकती है, बल्कि समाज को एकरूपता की घातक पटरी पर ले जाती है, जहाँ हर कोई एक जैसे सपने देख रहा है, एक जैसे रास्ते चल रहा है, और अंत में एक जैसे अवसाद से ग्रस्त हो रहा है।

एक और दुखद पक्ष यह है कि कैरियर की दिशा तय करते समय आज भी आर्थिक स्थिति, जातीय पूर्वाग्रह, और लिंग आधारित सोच गहराई से हस्तक्षेप करती है। लड़की है, ज्यादा पढ़ा-लिखा कर क्या करना है? या फिर यह कि सरकारी नौकरी ही असली नौकरी है— ऐसी सोच हमें कैरियर की विविधता को समझने और अपनाने से रोकती है।

मीडिया और सोशल मीडिया ने भी भ्रम की एक नई परत जोड़ दी है। हर हफ्ते एक नई ‘हाई डिमांड’ फील्ड आती है, एक नई ‘ट्रेंडिंग स्किल’ बताई जाती है, और हर कोई उसी में भागने लगता है। बिना यह सोचे कि वह क्षेत्र उसके लिए उपयुक्त है भी या नहीं।

असल ज़रूरत इस बात की है कि हम बच्चों को यह सिखाएं कि असली कैरियर वही है जो उनके स्वभाव, जुनून और जीवन के मूल्यों के अनुरूप हो। यह भी ज़रूरी है कि अभिभावक और शिक्षक विकल्पों की विविधता को स्वीकारें, और छात्रों को उनका मार्ग खुद तय करने का अवसर दें। जब तक यह मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक हर साल लाखों बच्चे इस ‘कैरियर की क्रॉसरोड’ पर खड़े रहेंगे—अनिर्णय, दबाव और पछतावे के बीच।


हर छात्र एक अनोखा ब्रह्मांड है—उस पर सामाजिक अपेक्षाओं और रूढ़ मानसिकताओं का ग्रहण न लगाएँ। दसवीं और बारहवीं के बाद सही दिशा चुनने के लिए आत्मचिंतन, मार्गदर्शन और स्वतंत्रता की ज़रूरत है—डर, भीड़ और दबाव की नहीं। यदि हम सच में अगली पीढ़ी को आगे बढ़ते देखना चाहते हैं, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि हर सफलता की परिभाषा अलग होती है। और कैरियर कोई मंज़िल नहीं, बल्कि वह रास्ता है जो अगर अपने मन से चुना जाए, तो जीवन को अर्थ दे सकता है।

 ✍️  लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर


परिचय

बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।

शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।
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