
शिक्षा नागरिकों की 
बुनियादी आवश्यकता है। शिक्षा ही है, जो व्यक्ति में समझ और विवेक को जन्म 
देती है। यही कारण है कि मानव को पशुओं की श्रेणी से बाहर रखा जाता है। 
अशिक्षित व्यक्तियों से सामाजिक कर्तव्यों के पालन और प्राप्त अधिकारों के 
सुचारु प्रयोग की भी आशा नहीं की जा सकती। बेशक, प्राचीन काल में शिक्षा का
 अधिकार केवल समाज के उच्च वगोंर् के लोगों तक ही सीमित था। लेकिन, आजादी 
के बाद धीरे-धीरे शिक्षा को समाज के सभी वर्गों के लोगों के लिए सुलभ बनाने
 की हर स्तर पर ढेरों कोशिशें की गईं। नतीजा यह हुआ कि आजादी के समय देश 
में साक्षरता की दर, जो महज 15 फीसदी के आसपास थी, वह आज पांच गुनी होकर 75
 फीसदी पर आ पहुंची है। हालांकि, सबको शिक्षा व्यवस्था से जोड़ पाना सरकार 
के लिए एक बड़ी चुनौती रही है, वहीं गुणवत्तापूर्ण तथा मूल्यपरक शिक्षा 
उपलब्ध कराना इस दिशा में दूसरी चुनौती है। भले ही, हम विश्व के सातवें 
सर्वाधिक अमीर राष्ट्र हैं, लेकिन विडंबना यह है कि आज भी देश में 17 लाख 
बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित हैं। हालांकि, शिक्षा से वंचित बच्चों को 
स्कूल से जोड़ने के लिए हमारी सरकारें समय-समय पर कई तरह की योजनाओं को 
व्यवहार के धरातल पर लाती रही हैं। हालांकि, कुछ योजनाएं इस दिशा में 
निश्चित रूप से सफल हुई हैं, जबकि यह भी स्वीकारना होगा कि संबंधित विभागों
 की असक्रियता व लोगों के भरपूर सहयोग के अभाव में कुछ योजनाओं ने अपेक्षित
 परिणाम नहीं दिए। बावजूद इसके शिक्षा क्षेत्र में ऐसे प्रयोग निरंतर होते 
रहने चाहिए। यदि बच्चों को स्कूल से जोड़ने में किसी भी तरह से सफलता मिल 
रही है तो उसे बरकरार रखा जाना चाहिए। प्रयोग की इसी कड़ी में एक था- 
मध्याह्न भोजन योजना यानी मिड-डे-मील। देश में नौनिहालों के पोषण, 
स्वास्थ्य व साक्षरता के स्तर को उन्नत करने के उद्देश्य से इसकी शुरुआत 
करीबन 21 वर्ष पूर्व हुई थी। दो दशकीय समयांतराल के पश्चात, जब हम इस योजना
 का मूल्यांकन करते हैं तो इस योजना को बहुत हद तक सफल प्रतीत होता पाते 
हैं। वास्तव में, यह योजना विद्यार्थियों को प्राथमिक विद्यालय से जोड़ने के
 एक माध्यम के रूप में सामने आई थी।इस योजना से ग्रामीण भारत के सामाजिक 
बदलाव पर सकारात्मक असर पड़ा है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा जारी 
2014-15 की वार्षिक रिपोर्ट भाग-1 में बताया गया है कि मिड-डे-मील के 
माध्यम से देश के 10.80 करोड़ बच्चों को फायदा हुआ है। इससे यह जाहिर होता 
है कि अगर यह योजना शुरू नहीं की गई होती तो इनमें से अधिकांश बच्चे स्कूली
 शिक्षा से वंचित ही रह जाते। नतीजा, उनका मानसिक विकास अवरुद्ध होता और वे
 विकास की मुख्यधारा से जुड़ नहीं पाते। 
 
दरअसल, मिड-डे-मील योजना ने शिक्षा 
जगत में कई क्रांतिकारी परिवर्तन की आधारशिला रखी है। सामाजिक-आर्थिक 
समानता को समाज में पुन: स्थापित करने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। 
याद कीजिए, भारतीय समाज में एक दौर ऐसा भी था, जब भूखे-प्यासे बच्चे 
विद्यालयों की ओर नजर उठाकर भी नहीं देखते थे। उनका सारा समय तो 
गली-मुहल्लों व सड़कों पर आवारा तरीके से घूमने तथा खेलने में ही बीत जाता 
था। बच्चे तो खैर बच्चे होते हैं, लेकिन बच्चों की शिक्षा के मामले में 
अभिभावक भी प्राय: बेखबर ही रहते थे। इस उदासीनता का कारण पूछने पर प्राय: 
एक ही रटा-रटाया जवाब मिलता था कि घर में खाने को नहीं है तो बच्चों को 
स्कूल कैसे भेजें।कमोबेश भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों की यह विडंबनापूर्ण 
सच्चाई भी है, इससे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कृषि कार्यों में संलग्न 
परिवार अपने बच्चों को स्कूल न भेजकर कुछ सहायता के उद्देश्य से उन्हें खेत
 ले जाते हैं, जो उसे शिक्षा से महरूम कर देता है। भले ही, देश का शिक्षा 
का अधिकार कानून 6-14 वर्ष के बच्चों को स्कूल में अनिवार्य व नि:शुल्क 
शिक्षा उपलब्ध कराने की बातें करता है, लेकिन गरीबी और बेकारी की गिरफ्त 
में जकड़े परिवार को इतना सोचने का वक्त कहां, कहीं न कहीं ये विपरीत 
परिस्थितियां ही बालश्रम जैसी कुरीतियों को संरक्षण प्रदान किया करती हैं। 
नतीजा यह है कि देश में करोड़ों बच्चे शिक्षा व स्वास्थ्य की सुविधाओं से 
वंचित रह जाते हैं और विभिन्न निर्माण कर्यों में संलग्न होकर अपने भविष्य
 का सौदा कर रहे हैं। दूसरी तरफ, मध्याह्न भोजन योजना के प्राथमिक 
विद्यालयों में लागू होने से एक बड़ा परिवर्तन देखने को मिला है। अब थाली 
लेकर ही सही बच्चे विद्यालय तो पहुंच रहे हैं। यह स्थिति भी सुखद है। इसलिए
 कि अब बच्चे उन अभिशप्त परिस्थितियों से मुक्ति तो पा रहे हैं, जिसमें वह 
अपने बचपन को दांव पर लगा देता था। विद्यालय में उपस्थित रहने से कुछ शब्द 
तो उनके कान में पड़ ही जाते हैं। साथ ही, प्रतिदिन विद्यालय जाने के लिए 
बच्चा अभ्यस्त तो हो ही रहा है। धीरे-धीरे समझ बढ़ेगी तो वह बच्चा पढ़ाई 
में भी अच्छा प्रदर्शन करेगा। नियमित विद्यालय जाने से वह न सिर्फ  भोजन 
ग्रहण कर रहा है, अपितु अनुशासन, खेल, सहयोग व सम्मान की भावना तथा नेतृत्व
 के गुण भी तो सीख रहा है।दूसरी तरफ  हम देखें तो मध्याह्न भोजन योजना के 
कारण बच्चे सामाजिक तौर पर परिपक्व हो रहे हैं। छोटी उम्र से ही ये बच्चे 
धर्म, जाति, संप्रदाय व परिवार आदि में विभेद किए बिना साथ भोजन कर रहे हैं
 और खेल भी रहे हैं। इससे आने वाले समय में देश में सामाजिक-आर्थिक भेदभाव 
तथा असमानता की दीवारें निश्चित तौर पर टूटेंगी। मध्याह्न भोजन योजना के 
लागू होने के पश्चात स्कूल से वंचित रहने वाले बच्चे बड़ी संख्या में इससे 
जुड़ रहे हैं। वर्ष 2006 में जहां 134.5 लाख बच्चे स्कूल नहीं जाते थे, वहीं
 2014 आते-आते इनकी संख्या घटकर आधे से भी कम 60.6 लाख रह गई है। 2006 में 
जहां 66.8 लाख लड़कियां स्कूल से बाहर थीं, वहीं 2014 में यह संख्याबल घटकर 
28.9 लाख रह गई है। इसी तरह, अनुसूचित जाति के 31.5 लाख बच्चे स्कूल से 
बाहर थे, वहीं 2014 की रिपोर्ट के अनुसार यह संख्या 19.66 लाख पर आ चुकी 
है। इस तरह द्रुत गति से विद्यालय से जुड़ने वाले छात्रों में एक बड़ा कारक 
मिड-डे-मील भी रहा है।मध्याह्न भोजन योजना अपने आप में एक अनोखी योजना है। 
भारत ही नहीं, दुनिया के लगभग 43 देशों में पोषाहार के इस योजना के तहत 10 
लाख से अधिक बच्चों को प्रतिदिन स्कूलों में भोजन कराने का प्रबंध किया गया
 है। अकेले भारत में प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों की कुल 
तादाद के 79 फीसदी बच्चों को मध्याह्न भोजन उपलब्ध कराया जाता है। सरकार का
 यह प्रयास है कि बच्चों को मानसिक और शारीरिक रूप से तंदुरुस्त किया जाए, 
इसलिए भोजन के साथ अंडा, दूध आदि पोषक तत्वों को भी बच्चों के बीच बांटने 
के आदेश दिए गए हैं। हाल ही में एक और फैसले के तहत स्कूल खुलने के तुरंत 
बाद बच्चों को नाश्ते के रूप में ‘अल्पाहार’ दिए जाने की घोषणा की गई है। 
अब निम्न आय वर्ग वाले बच्चों को भूखे पेट पढ़ने के लिए विवश होना नहीं 
पड़ेगा। स्कूल में उसके लिए नाश्ते के साथ-साथ भोजन का प्रबंध किया गया है। 
स्पष्ट है, 
मिड-डे-मील कई स्तरों पर देश में सामाजिक परिवर्तन की गाथा लिख 
रहा है।महत्वाकांक्षी मध्याह्न भोजन योजना बहुत हद तक सफल है। इसमें कोई 
संदेह नहीं है कि मिड-डे-मील योजना ने समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन की 
शुरुआत की है, जिसका स्वप्न कभी गांधी, अंबेडकर व ज्योतिबा फूले देखा करते 
थे। इस योजना का उद्देश्य बहुआयामी हैं। निर्धन परिवार के बच्चों के लिए यह
 किसी संजीवनी से कम नहीं है। किसी भी हालत में यह योजना बंद नहीं होनी 
चाहिए। अन्यथा, समाज में नौनिहालों का एक बड़ा हिस्सा भूखा, कुपोषित व 
निरक्षर रह जाएगा। तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी इंगित करता है कि पिछले कुछ 
सालों से मध्याह्न भोजन योजना में व्याप्त अनियमितता की खबरें लगातार 
सुर्खियां बटोर रही हैं। 
एक तरफ, योजना की राशि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रही
 है तो दूसरी तरफ, प्रबंधन में लापरवाही बरते जाने के कारण बच्चों को दूषित
 भोजन परोसा जा रहा है। इस तरह, दोनों तरफ  से बच्चों के भविष्य के साथ 
खिलवाड़ ही किया जा रहा है। जरा-सी चूक के कारण सैकड़ों मासूम बच्चे बीमार हो
 जाते हैं और उनके जीवन पर ग्रहण लग जाता है। नियमित मॉनिटरिंग हो तो 
चिंताएं दूर की जा सकती हैं। मध्याह्न भोजन की गुणवत्ता व व्यवस्था में 
सुधार किया जाए तथा इस योजना के संचालन की जिम्मेदारी भरोसेमंद लोगों को 
सौंपी जानी चाहिए, तभी बात बनेगी।