बालक समाज में रहता है। सामाजिक पर्यावरण में ही वह भाषा रीति-रिवाज जीवन पद्धति सीखता है। सामाजिक अंतर्क्रियाएं न केवल बालक के जीवन को प्रभावित करती हैं बल्कि वह खुद समाज से अंतर्क्रिया करता है। यह बहुत कुछ निर्भर करता है गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर।

      पिछले आर्टिकल में 'गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा ह्रास एवं सामाजिक विमर्श'में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ह्रास के घटकों पर समाज शास्त्रीय विवेचन किया गया था।

            प्राथमिक शिक्षा में गुणात्मक सुधार की अति आवश्यकता है जो केवल सरकार से संभव नहीं है। इसके लिए एक ऐसा तंत्रीय ढांचा तैयार करने की आवश्यकता है जिसके अवयव सरकार के साथ-साथ समाज, शिक्षक तथा संस्थाओं को संचालित करने वाले प्रबंधक भी सम्मिलित हों। यदि हम सुधार की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं तो एक आदमी सरल ढंग से महसूस कर सके की शिक्षा में गुणात्मक सुधार हो गया अथवा हो रहा है। दूसरे शब्दों में वे कौन से प्रतिमान (मॉडल) या मानक (दिक्सूचक) हैं जिसके करने या दिखने या महसूस करने से गुणवत्ता का बोध हो जाए। प्रश्न जितना सरल है ,उत्तर उतना ही जटिल एवं संश्लिष्ट है।

     वर्तमान समय में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तुलनात्मक शिक्षा का पर्याय बन गया है। तुलना सरकारी स्कूल बनाम प्राइवेट स्कूल, अंग्रेजी माध्यम बनाम मातृभाषा,शिक्षा बनाम रोजगार आदि संदर्भों में देखा जा रहा है, जो गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के आयाम को रेखांकित या परिभाषित करता है। समाज को आर्थिक शैक्षिक संवर्ग की दृष्टि से बांटा जाए तो 5 प्रकार के समाज तथा उनकी सोच आती है..........

1-  अशिक्षित साक्षर समाज
2-  अर्धशिक्षित समाज
3-  शिक्षित समाज
4-  उच्च आर्थिक शिक्षित समाज
5-  उच्च शिक्षित समाज।

     समाज के पांचो वर्ग के लोगों से अलग अलग बातचीत किया जाए तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तथा उसके उद्देश्य अलग-अलग हैं। अशिक्षित या साक्षर समाज से तात्पर्य समाज का ऐसा वर्ग जो आर्थिक सामाजिक तथा शैक्षिक रूप में कमजोर या पिछड़ा है ऐसे समाज से बातचीत करने पर आया की शिक्षा ऐसी हो जिससे बच्चा कुछ पढ़ लिख ले तथा समाज में होशियार हो जाए जबकि अर्ध शिक्षित समाज का नजरिया अशिक्षित समाज के इर्द-गिर्द ही घूमता है ऐसे संवर्ग के लोगों की मान्यता है कि पढ़ाई ऐसी हो जो बच्चा को बोलने, जानकारी में तेज बना दे जिससे यदि बच्चा कहीं रोजगार के लिए बाहर जाए तो चुनौतियों से लड़ना सीख ले। वहीं शिक्षित समाज की मान्यता है कि शिक्षा ऐसी हो जो बहुमुखी रोजगार तथा विभिन्न परीक्षाओं को सरलतम ढंग से पास होकर शीघ्र सफल हो जाए। उच्च शिक्षित समाज एवं आर्थिक शिक्षित समाज अपने-अपने ढंग से समाज में विविधताओं का विस्तार किए हैं,उनकी मान्यता है कि शिक्षा ऐसी हो जो उनके पूर्व में विकसित सेवाएं या उद्यम में सहगामी बन सके।

        बहुलतावादी समाज के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को नए ढंग से परिभाषित करना होगा अर्थात गुणवत्ता केवल शिक्षक तक सीमित नहीं रखना होगा। गुणवत्ता... शिक्षक, बच्चे, माता-पिता,समाज, उद्देश्य, विश्वसनीयता, प्रामाणिकता तथा बहुलतावादी समाज के संदर्भ में देखना होगा। गुणवत्ता केवल उत्पाद नहीं है बल्कि प्रमाण एवं संतुष्टि की अवधारणा से भी जुड़ा है।

         अर्थात गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एक प्रक्रिया है जो तुलनात्मक न होकर स्वयं के विकास के प्रस्फुटन से जुड़ा है। 'स्वयं के प्रस्फुटन' से तात्पर्य नैसर्गिक विकास से है अर्थात शिक्षा ऐसी हो जो बच्चे,पाठ्यक्रम,उद्देश्य, अभिभावकों की संतुष्टी, समाजोन्मुख तथा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप हो।

          आधुनिक या यूं कहें कि सामयिक शिक्षा व्यवस्था ने समाज को न केवल बांटने का कार्य किया है बल्कि सामाजिक-समावेशी सहयोग को भी प्रभावित किया है उदाहरण के तौर पर 1970-80 के दशक में एक ही तरह के स्कूल सरकारी (अपवादस्वरूप प्राइवेट) थे,जिसमें समाज के सभी संवर्ग के लोगों के बच्चे एक साथ शिक्षा ग्रहण करते थे। शिक्षा में एक सामाजिक न्याय दिखता था। कालांतर में उद्देश्यों के आधार पर शिक्षा के बंटवारे ने गुणवत्ता को खराब किया। किसी भी चीज में गुणवत्ता के लिए सही सोच,सही तरीका तथा सही परिणाम तीनों का समन्वयन जरूरी है। आज के तीनों अलग-अलग हो गए हैं।कहीं गुणवत्ता के नाम पर केवल 'सोच'रहे हैं...जैसे सरकारी स्कूलों के बारे में तो कहीं गुणवत्ता के नाम पर 'सही तरीका' रहे हैं ऐसे प्राइवेट स्कूलों के बारे में तो कहीं बहु प्रचारित समाज में 'परिणाम' को ही गुणवत्ता मान बैठे हैं...जैसे अच्छे अंक, ग्रेड, श्रेणी के आधार पर। तीनों क्रमों का एक साथ होना गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए जरूरी है और समाज के सभी वर्गों को सम्पूर्ण गुणवत्ता का लाभ मिले।

             कुछ समाजशास्त्रियों एवं शिक्षाविदों,नियोजकों की विचारधारा थी कि समाज के कमजोर वर्ग के बच्चों को बुनियादी सुविधाएं जैसे बैग, किताब,वजीफा, ड्रैस, जूता-मोजा स्वेटर आदि दे दिए जाएं तो शिक्षा में गुणवत्ता आएगी।यह संकल्पना कुछ हद तक सही हो सकता है लेकिन समाज के विकास और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के लिए पोषणीय नहीं हो सकता।सेवा और सामर्थ्य दो अलग-अलग चीजें हैं सेवा दी जा सकती है लेकिन सामर्थ्य नहीं।सेवा देने से आदमी में नकारापन सुविधाभोगी, आलसीपन आता है उसकी विकास के प्रति सोच संकुचित हो जाती है,जबकि सामर्थ्यवान बनने से व्यक्ति अपने उद्देश्य धीरे धीरे ही सही प्राप्त करने में अग्रसर होता है। अतः गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए समाज का समावेशन (समाज के सभी वर्गों का साथ-साथ होना) जरूरी है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एवं विकसित समाज के लिए सामर्थ्यवान होना आवश्यक है। सामर्थ्य शिक्षा से प्राप्त की जा सकती है लेकिन साक्षर शिक्षा से नहीं.......

लेखक :

डॉ0 अनिल कुमार गुप्त
प्र०अ०, प्रा ०वि० लमती
बांसगांव, गोरखपुर

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