आख़िरकार प्राइमरी के मास्टर ने वो करिश्मा करके दिखा दिया जो सरकार के आला अधिकारी भी न कर सके, बच्चों को दो दिन में स्वेटर वितरण! योजना की रूपरेखा छः माह पहले ही बन चुकी थी। पूरे प्रदेश के लगभग डेढ़ करोड़ प्राथमिक विद्यालयों के बच्चों को निःशुल्क स्वेटर वितरण किया जाना था। इसके लिये ₹390 करोड़ का अनुपूरक बजट भी पास हो चुका था। परंतु तय मानकों पर कोई भी विक्रेता फर्म ₹249 प्रति स्वेटर पर भी देने को तैयार नहीं हुयी। जबकि बजट ₹200 प्रति स्वेटर का था।

आधी सर्दी बीतने के बाद भी बच्चों को स्वेटर न मिल पाने के कारण किरकिरी से बचने के लिये सरकार ने ज़िम्मेदारी स्कूल प्रबंध समिति और अद्ध्यापकों पर डाल दी। और कड़े मानकों के अनुपालन के साथ 6 से 15 जनवरी के मध्य बच्चों को स्वेटर उपलब्ध कराने का आदेश जारी कर दिया।

कुछ शिक्षकों ने इस जिम्मेदारी को अपने स्वाभिमान से जोड़ते हुए आनन-फानन में स्वेटर बंटवा दिये। तो कुछ शिक्षक संघों ने इतने कम दाम पर स्वेटर वितरण में असमर्थता प्रकट की। जब सरकार को तय कीमत पर और इतनी बड़ी मात्रा में कोई फर्म स्वेटर बेचने को तैयार नहीं हुई तो प्रबंध समिति और अद्ध्यापकों से ये उम्मीद करना बेमानी है। अब इस बात की क्या गारन्टी कि जो स्वेटर सरकार को तय मानकों पर ₹200 में नहीं मिले उसे इस कीमत में शिक्षकों द्वारा बँटवाये जाने पर शिक्षकों का स्वाभिमान और हित सुरक्षित रहेंगे। 

वैसे शिक्षक के लिये ये नयी बात नहीं है। वह पहले से  बच्चों को लाभान्वित करने वाली कई सरकारी योजनाओं को मानक से कम दाम पर क्रियान्वित करवाता रहा है। चाहे दुग्ध वितरण हो या एम0डी0एम0 अथवा ड्रेस वितरण। ये सब हाथ में सरसों उगाने जैसा है। प्रश्न ये नहीं कि बच्चों को ये सुविधाएँ इतने कम दाम पर कैसे उपलब्ध करवाई जायें। आज बाजार में हर कीमत पर सामान उपलब्ध है। प्रश्न यह है कि, जो मानक सरकार ने तय किये हैं उन पर खरे उतरने वाले सामानों की खरीद निर्धारित धनराशि पर की जा सकती? यह प्रश्न हमारी अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता पर प्रश्नचिन्ह है। सकल घरेलू उत्पाद और व्यक्ति की क्रयशक्ति से देश की आर्थिक स्थिति का आँकलन होता है।और किसी भी उत्पाद को गुणवत्ता के आधार पर न्यूनतम लागत मूल्य(कर सहित) से कम कीमत पर नहीं बेचा जा सकता।
यहीं सरकार की उदारवादी योजनायें धराशायी हो जाती हैं और उनका जिम्मा अधीनस्थों को दे कर इतिश्री कर ली जाती है।

सरकार की राजनैतिक महत्वकांक्षाओं को पूरा करने का सबसे सरल माध्यम अद्ध्यापक ही दिखायी देता है। जिसे शासन की मंशा के अनुरूप कार्य करने के साथ-साथ समाज की आलोचना का सामना करना पड़ता है। यथार्थवाद की बात करने पर विभाग से अनुशासनात्मक कार्यवाही की घुड़की भी सुननी पड़ती है। जिससे बचने के लिये वह भी आँखे और कान बंद करके सिस्टम के साथ चलने पर मजबूर हो जाता है।

एक समय था जब शिक्षा संसाधनों की मोहताज नहीं थी। आश्रम पद्धति के विद्यालयों में उच्च कोटि की शिक्षा दी जाती थी। जहाँ शिक्षा का उद्देश्य मानव कल्याण और चरित्र उत्थान होता था। आज शिक्षा संसाधनों के अधीन है। पूर्णतयः अर्थवादी है। और इसकी गुणवत्ता विद्यालय में उपलब्ध संसाधनों की गुणवत्ता से तय होती है। ठीक उसी प्रकार जैसे एक  फैक्ट्री को जैसा कच्चा माल मिलेगा वैसा ही उत्पाद तैयार होगा।  विद्यालय रुपी कार्यशाला में शिक्षक अभियंता है जिस पर बच्चों के भविष्य की आधारशिला रखने का दायित्व है, जहाँ से बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर, पत्रकार, विचारक और समाजसेवी बन कर निकल सकें। परंतु अद्ध्यापक सरकारी नीतियों, योजनाओं, राजनैतिक महत्वकांक्षाओं के मकड़जाल में फंसा हुआ है। 

निश्चित रूप से वंचित वर्ग के बच्चों को अन्य बच्चों के समान जीने और शिक्षा पाने का अधिकार है। परंतु शिक्षा के उद्देश्यों से विरत हो कर नहीं।

लेखक :
कविता तिवारी
सह-समन्वयक
विकास खंड मलवां
जनपद फतेहपुर

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