क्या यही है आदर्श? 


आदर्श का नाम सुनते ही,आज के नौजवानों को उलझन सी होने लगती है, जैसे कुछ शब्दों में उन्हें कैद किया जा रहा हो। वह छोटी छोटी बातों पर जवाब देना, विरोध करना शुरू कर देते है। अपनी बात को प्राथमिकता देने पर जोर देने लगते है, कहते है बुजुर्ग सठिया गए हैं,  मैं ही सही हूँ। आज कल सोशल गैपिंग, जेनरेशन गैपिंग की बात कहकर बच्चे बुजुर्गो की बात को नजरअंदाज कर देते हैं।  उनका मानना है कि उनका जो अनुभव है, उसके सामने बुजुर्गो की बात व अनुभव नगण्य है। आज के नवयुवको के साथ हुए वार्तालाप के दौरान हुई कुछ बातें विचारणीय है।


मां, बाप को बच्चे के जन्म के पश्चात उनकी कई अपेक्षायें होती हैं, कि वह बड़े होकर उनके अनुसार कार्य करेंगे, उनका नाम रोशन करेगें, उनको किसी प्रकार का कोई जीवन मे परेशानी न उठाना पड़े, अपने अनुभवों द्वारा सिंचित विचारो से उनको सही मार्गदर्शन करने के लिए उत्सुक रहते है। लड़के जब बड़े होते है तब वह अपने अनुसार सब सोचने लगते है, अपने विचारों के अनुसार सबको चलाने का प्रयास करते हैंम  मां, बाप के अनुभवों को पुराना और अपने विचारों को नया स्वरूप कहकर लादने का प्रयास करते हैं।


जब बच्चा बहुत छोटा होता है तब माँ अपने आँचल में छिपाए रहती है कि मेरे लाल को कोई कष्ट न हो, उसी प्रकार पिता भी  उस समय माँ और पुत्र के भरण पोषण, चिकित्सा, सुविधा का ध्यान रखता है, अपने भविष्य के सपनो को सजोकर बच्चे को अपनी गोद मे उठाकर सारे संसार के दुःख को भूल जाता है। बच्चा जब थोड़ा बड़ा होता घुटनों के बल चलना शुरू करता है तो वह यह प्रयास करता है कि उसके रास्ते मे कंकड़ तो नहीं है, उसे कुछ कष्ट तो नहीं दे रहा है, उसको घुटनों से अपने पैरों तक चलाने के लिये अपने सारी इच्छाओ को भूलकर अपनी क्षमता के अनुसार दिन रात प्रयत्न करता है। उसकी छोटी सी छोटी जिद्द को पूरा करने के लिए आपने आर्थिक स्थिति को भी नही देखता है। उसके लिए अपने सपनों को त्याग देता है, एक खिलोने की माँग को अपनी हैैसियत के  अनुसार उचित व अनुचित माँग को भी पूरा करने के तत्पर रहता है। 


सोचता है कि इसी प्रकार लड़का जब बड़ा होगा मेरी बात मानेगा, मेरा भार उठाएगा, मेरी उचित, अनुचित मांगों का समर्थन करेगा।  माता-पिता जो एक सिक्के के पहलू है, उन्हें अलग --अलग करने में भी अपना गौरव समझते है। यह सत्य है कि माँ का झुकाव उनके बच्चों पर अधिक होता है इसका मतलब यह नही कि माँ पिता एक दूसरे से भिन्न है, अलग है।  यदि किसी सिक्के के दो खण्ड कर दें तो उसका मूल्य क्या होगा? वह एक साथ रहते है तभी मूल्यवान रहेगें। मूल्यवान सिक्का ही स्वस्थ रूप से परिवार को चला पाने में सक्षम होते है, लेकिन स्वार्थवश वह उनकी भावनाओ को दरकिनार कर देता है। 


लडको के समझ से परे है कि वह ऐसा करके अपने विकास को स्वयं कुंठित करते है। बालक / बालिका का स्नेह लगभग  शैशवास्था, बाल्यावस्था तक मां व पिता के अनुसार प्रयास करता है,  लेकिन जैसे ही वह किशोरावस्था में पहुँचता है तब मां पिता जो आदर्श होते हैं, वही उनके विपरीत ध्रुव हो जाते है, उनकी मानसिक स्थिति बंधन स्वीकार करने को तैयार नही हो पाती है।


मां पिता  द्वारा जो उन्हें इस उम्र तक पहुँचाने के लिये जो त्याग किया गया है वह उनके लिये नगण्य हो जाता हैम यदि बालक कमाने लग जाय तो उसे अपनी कमाई का घमंड हो जाता है कि मैं ही तो सब कुछ कर रहा हूँ। अब क्यो माता पिता की बात मानूँ? क्यो उनकी सुख-सुविधाओ का ध्यान दूँ? उन्होंनेजो किया उनका कर्तव्य था, मेरा उनके प्रति कोई कर्तव्य नही रह जाता है। भले ही वह मेरी उचित अनुचित मांग पूरा करने के लिये भूखे ही क्यों न रहे हो? 


इसी विचार को वह आदर्श विचार मानते हैं। माँ, पिता जो  भी काम करते है, उनकी गलती निकालते रहते है और सभी बातों में गलत ठहराने लगते है। यह क्या कर रहे हो? यह कैसे कर दिया? तुमको यह कार्य नही करना चाहिये। तुमने यह बात गलत कही है।अपनी गलती मानो। तुम झूठ बोल रहे हो, तूमको इस बात से क्या मतलब? हम चाहे जो भी करें अपना देखो, तुमने क्या कर लिया?कितना विकास कर लिया है? मुझे मत रोको, यदि मैं कोई मुसीबत में भी पड़ जाऊंगा तो मैं सक्षम हूँ, उससे बाहर निकलने का मार्ग ढूढ लूंगा। 


तुम तो अपने काम से काम रखो आदि -आदि बाते और कार्य उन्हें आदर्श लगती है। कहते है अब इसी का ट्रेंड है। यही जमाना है। आदर्श की परिभाषा बदल गयी है। तुम क्या जानों? आपके समय जो आदर्श था, बड़े बुजुर्गों का सम्मान करना, बड़े बुजुर्गी की आज्ञा का पालन करना, बड़े बुजुर्गों की सेवा करना। यह कालवाह्य हो गया है। यही कारण है कि अब संयुक्त परिवार टूट चुका है। मात्र अपने बारे में सोचना, केवल अपने स्वार्थ तक सोचना, जो स्वयं को अच्छा लगे वह करना यही आदर्श और सामाजिकता हो गयी है।
किसी की बात बर्दाश्त न करना, जो मन मे आये बिना डर, संकोच के भला बुरा सुना देना आचरण हो गया है।


मां, पिता द्वारा आदर्श बच्चो का पालन पोषण,  उनकी जिद को पूरा करना, उनके विकास के लिये अपना जीवन लगा देना, उनका अपने परिवार के प्रति त्याग,अपनी सुख सुविधाओं को ध्यान न रखकर उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए दिन-रात लगा देना, शायद आज के युग मे उसका कोई मूल्य नही रह गया है। अगर आदर्श की परिभाषा स्वार्थ तक सीमित हो गई है तो भविष्य में मानव समाज खुद संकट में आ जायेगा। 


बुजुर्गों की सेवा के बदले तिरस्कार अपमान, जलील होना ही रह जायेगा, तो मनुष्य को इस विषय पर विचार करने के लिये बाध्य होना पड़ेगा कि अपनी सुख सुविधाओं का क्यों त्याग किया जाये? जब बच्चे समर्थ होने पर उनके त्याग का मूल्य न समझ सके, ऐसे समाज की कल्पना ही भयावह दिखाई पड़ती है। ऐसी दशा में समाज और मानव की क्या स्थिति होगी? यह विचारणीय तथ्य है, क्या स्थिति पनपेगी, मानव समाज का अस्तित्व बचेगा की नही?

बुजुर्ग तिरस्कार और अपमानित होकर क्या अपने प्राण का उत्सर्ग कर देंगे? बच्चे कुपोषण का शिकार हो जायेगे? समाज और परिवार के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण हो जाएगा। इस तरह कई प्रश्न अनुत्तरित रह जाएंगे। अभी यह विचारणीय बिंदु है! इसे आगे आने वाली पीढ़ी के विवेक पर विचार करने के लिए छोड़ता हूँ।


✍🏻 आनन्द नारायण पाठक

शिक्षक/साहित्यकार/लेखक/कवि
पूर्व माध्यमिक विद्यालय खाचकीमई 
ब्लॉक -कड़ा जनपद - कौशाम्बी

निवास 
दारानगर- जनपद कौशाम्बी

सम्पर्क - 9935387340

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