ऑनलाइन शिक्षा की उंगली थामकर चलते बच्चे

● आज छोटे बच्चों को जैसे ऑनलाइन पढ़ाई कराई जा रही है, वह पूर्णत: अव्यावहारिक और अवैज्ञानिक है।

● ऑनलाइन शिक्षा महंगी है और इससे गरीब परिवारों के वंचित रह जाने का खतरा है।

● वैश्विक आपदा के कठिन दौर में हमें बच्चों पर फैसले थोपने की बजाय उनके साथ खड़ा होना होगा।


पूरे देश में लॉकडाउन के चलते स्कूल-कॉलेजों ने ऑनलाइन पढ़ाना शुरू कर दिया है। कुछ निजी संस्थान इसे ऐसे प्रचारित कर रहे हैं, मानो बहुत बड़ा और विशेष काम कर रहे हों। वे इसे अपने प्रचार का जरिया भी बना रहे हैं। बड़े बच्चे तो किसी तरह ऑनलाइन पढ़ाई से अपना तारतम्य बना लेते हैं, लेकिन छोटे बच्चे, यानी आठवीं कक्षा तक के बच्चे बहुत आसानी से ऐसी पढ़ाई से अपना तारतम्य नहीं बना पाते हैं। 


आज छोटे बच्चों को जिस तरह से ऑनलाइन पढ़ाई कराई जा रही है, वह पूर्णत: अव्यावहारिक और अवैज्ञानिक है। शिक्षकों में भी बच्चों को सिखाने का भाव कम, अपनी जिम्मेदारी पूर्ण करने का भाव ज्यादा है। ज्यादातर शिक्षक ऐसे अध्यापन को बहुत गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।


कुछ अपवादों को छोड़कर राज्य सरकारों या शिक्षा विभाग द्वारा इस तरह की पढ़ाई के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिए गए हैं। बड़े शहरों के संपन्न विद्यार्थियों के पास तो ऑनलाइन पढ़ाई के पर्याप्त साधन मौजूद हैं, लेकिन बड़े शहरों के गरीब विद्यार्थियों, छोटे शहरों, कस्बों और गांवों के अधिकतर विद्यार्थियों के पास ऐसी पढ़ाई हेतु पर्याप्त साधन मौजूद नहीं हैं। बड़ी संख्या में ऐसे गरीब परिवार हैं, जिनके पास स्मार्ट फोन नहीं हैं। जिन मां-बाप के पास स्मार्टफोन हैं, वे जब दफ्तर जाने लगेंगे, तो फिर दिन के समय बच्चों को स्मार्टफोन कैसे उपलब्ध होंगे? ऑनलाइन शिक्षा महंगी है और इससे गरीब परिवारों के वंचित रह जाने का खतरा है।


व्यावहारिक दिक्कत यह आ रही है कि छोटे बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई से जुड़ाव महसूस नहीं कर रहे हैं। उन्हें नई कक्षा की नई किताबें, कॉपियां भी उपलब्ध नहीं हुई हैं। बच्चों को पढ़ाई का यह तरीका बोझ लगना स्वाभाविक भी है। छोटे शहरों और कस्बों में जिस पढ़ाई को ऑनलाइन का नाम दिया जा रहा है, वह वाट्सअप के माध्यम से हो रही है। इस पढ़ाई के अंतर्गत अभिभावकों को वाट्सअप पर एक दिन में ही कई-कई पेज भेज दिए जाते हैं। एक साथ इतने पृष्ठ देखकर बच्चे सहम जाते हैं। होना यह चाहिए कि प्रतिदिन बच्चों को थोड़ा-थोड़ा काम भेजा जाए। उन्हें नियमित काम करने का अभ्यास भी रहेगा।


आज ऑनलाइन पढ़ाई जिस हड़बड़ी में कराई जा रही है, इसके सार्थक परिणाम आने मुश्किल हैं। अध्यापकों को यह समझना होगा कि इस कठिन दौर में मजबूरी के चलते ऑनलाइन अध्यापन किया जा रहा है, इसलिए उन्हें यह सोचना होगा कि इस पढ़ाई को किस प्रकार सृजनात्मक बनाया जा सकता है। ज्यादातर स्कूलों के प्रबंधक शिक्षकों को सृजनशील बनाने के लिए कुछ नहीं करते हैं। निजी शिक्षक ही नहीं, सरकारी शिक्षक भी आदेशों के गुलाम बनते जा रहे हैं, उनका शिक्षा से व्यक्तिगत जुड़ाव कम होता जा रहा है। उन्हें सृजनात्मकता माहौल बनाने के लिए प्रेरित भी नहीं किया जाता है।


शिक्षक अगर बच्चों से सतत संवाद नहीं बनाएंगे, तो बच्चों का प्रदर्शन न केवल घटेगा, बल्कि वे अवसाद में भी जा सकते हैं। बच्चों को काम देना गलत नहीं है, लेकिन उन्हें बिना योजना अव्यावहारिक रूप से काम देना गलत है। आज ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम से बिना किसी योजना के अंधेरे में तीर चलाया जा रहा है। अनेक जगहों पर विभिन्न एप्स के माध्यम से भी यह शिक्षा की दी जा रही है, पर तकनीकी कारणों से दूरदराज के इलाकों में इसका समुचित फायदा नहीं मिल रहा। शिक्षण में तकनीक उपयोगी है, पर जब तक इसके साथ दिल नहीं जुड़ेगा, तब तक इसका सृजनात्मक उपयोग नहीं हो पाएगा।


ऑनलाइन पढ़ाई की प्रक्रिया में हमारा ध्यान गांवों के बच्चों की तरफ बिल्कुल नहीं है। छोटे बच्चों के लिए ऑनलाइन पढ़ाई को व्यावहारिक और वैज्ञानिक बनाया जाए। विश्वव्यापी आपदा की इस घड़ी में हम सिर्फ इस बात को ही न सोचें कि पढ़ाई के मामले में बच्चों की हानि हो रही है। हमें यह भी सोचना होगा कि इस नुकसान की भरपाई व्यावहारिक तौर पर कैसे हो सकती है। 


अगर जरूरत पड़े, तो बच्चों के पाठ्यक्रम को थोड़ा कम भी किया जा सकता है। बच्चों को यह विश्वास भी दिलाया जा सकता है कि स्कूल खुलते ही ऑनलाइन शिक्षा की परीक्षा नहीं कराई जाएगी। इससे बच्चों को नैतिक बल मिलेगा और वे बेहतर ढंग से सीख पाएंगे। बहरहाल इस कठिन दौर में हमें बच्चों पर फैसले थोपने की बजाय उनके साथ खड़ा होना होगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

✍️  लेखक - रोहित कौशिक
       (स्वतंत्र पत्रकार)

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