कोरोना आपदा में गरीबों की उच्च शिक्षा का क्या होगा?  


पिछले सौ वर्षों में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में जो तरक्की हुई, उसने विश्व-स्तर पर मानव सभ्यता को चहुंमुखी प्रगति प्रदान की। मगर विगत मार्च से उच्च शिक्षा की तरक्की का यह पहिया एकदम थम-सा गया है। यूनेस्को के अनुसार, आज 191 देशों में 25 करोड़ नौजवान उच्च शिक्षा से और लगभग 120 करोड़ बच्चे स्कूली शिक्षा के पारंपरिक रूप से वंचित हो गए हैं। जाहिर है, इस महामारी ने जितना नुकसान दुनिया की अर्थव्यवस्था, कारोबार, रोजगार, कृषि और आवागमन को पहुंचाया है, इससे कहीं ज्यादा नुकसान उसने उच्च शिक्षा और स्कूली शिक्षा का किया है।


भारत में भी कोरोना के कारण 16 मार्च से उच्च शिक्षा की तेज रफ्तार थम गई है। देश भर के एक हजार विश्वविद्यालयों और 55 हजार महाविद्यालयों में सन्नाटा छा गया है। उच्च शिक्षा पर आए इस भीषण संकट का, जो एक सुनामी या भूकंप की तरह है, समाज के अलग-अलग वर्गों पर अलग-अलग तरह से असर पड़ेगा। समाज का संपन्न वर्ग तो इस स्थिति का मुकाबला आसानी से कर लेगा, क्योंकि इस तबके के अभिभावकों के पास अपने बच्चों को घर पर रखकर पढ़ाई कराने के समुचित साधन उपलब्ध हैं। मगर समस्या उस मध्य वर्ग और निम्न वर्ग की है, जिनके पास न तो पर्याप्त आर्थिक साधन हैं और न ही ऐसे संपर्क सूूत्र, जो अच्छे कॉलेजों में उनके बच्चों को दाखिला दिलाने में मददगार हों। 

इन वर्गों की समस्या इसलिए भी गहरा गई है, क्योंकि इनके रोजगार और व्यवसाय पर कोरोना का भयंकर असर पड़ा है। ऐसे मां-बाप लंबे अरसे से रात-दिन मेहनत करके अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने की कोशिश करते रहे हैं। उन्हें उम्मीद रहती है कि उनकी संतान अच्छे कॉलेज या यूनिवर्सिटी में दाखिला लेकर अच्छी नौकरी हासिल करेगी। मगर अब ऐसे करोड़ों परिवारों में चिंता, संताप और निराशा की स्थिति है, क्योंकि उन्हें नहीं मालूम कि उच्च शिक्षा का अब क्या होगा और कोविड-19 संकट की समाप्ति के बाद उच्च शिक्षा कैसे चलेगी? 


इस महामारी ने दुनिया के  ज्यादातर देशों की तरह भारत की अर्थव्यवस्था को जिस तरह से भारी नुकसान पहुंचाया है, उसके कारण मध्य वर्ग और गरीब तबके के करोड़ों परिवारों को लगने लगा है कि जिंदा रहने के लिए ही जब जरूरी खर्चों का इंतजाम करना भारी पड़ रहा है, तो फिर पढ़ाई-लिखाई के लिए धन कहां से जुटाएंगे? बहुत से परिवार सरकारी और निजी बैंकों से शिक्षा-ऋण लेकर काम चला लेते थे, लेकिन लॉकडाउन की वजह से अब इसमें भी कई रुकावटें हैं।


कोविड-19 संकट गरीब वर्गों के लिए खासतौर से घातक होगा। हमारे शिक्षण संस्थानों में आपको ऐसे लाखों विद्यार्थी मिल जाएंगे, जो छोटी-मोटी नौकरियां करके या ट्यूशन आदि पढ़ाकर अपनी पढ़ाई-लिखाई का खर्च जुटाते रहे हैं। आज इन युवक-युवतियों के छोटे-मोटे रोजगार और अंशकालिक कामकाज खतरे में पड़ गए हैं। लाखों ग्रामीण और कस्बाई नौजवानों का शहर में किराए के मकान में रहकर पढ़ाई-लिखाई करना मुश्किल हो गया है। इसलिए उच्च शिक्षा के नीति-निर्धारकों का ध्यान इस तबके पर सबसे पहले जाना चाहिए। इसके पास पढ़-लिखकर आगे बढ़ने का जज्बा तो है, लेकिन समुचित साधन नहीं हैं। 


मानव संसाधन विकास मंत्रालय, यूजीसी और एआईसीटीई ने कोविड-19 के कारण घोषित लॉकडाउन की अवधि में महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को ऑनलाइन माध्यम से बकाया कक्षाओं के संचालन, प्रैक्टिकल, मौखिक परीक्षा, प्रवेश-प्रक्रिया, कैंपस को खोलने और विद्यार्थियों, शिक्षकों व स्टाफ को कोरोना संक्रमण से बचाने के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इन दिशा-निर्देशों से यह तो स्पष्ट है कि कक्षाएं, परीक्षाएं और प्रवेश-कार्य कैसे किए जाएंगे, लेकिन यह नहीं बताया गया है कि भारत के दूरदराज के गांवों और कस्बों में रहने वाले गरीब परिवारों के नौजवान किस प्रकार स्मार्टफोन और इंटरनेट कनेक्टिविटी जुटा पाएंगे? 


उच्च शिक्षा के अब तक के वैश्विक अनुभवों में ऑनलाइन शिक्षण को पारंपरिक फेस-टु-फेस शिक्षण से संबद्ध माना गया है। लेकिन कोविड-19 ने इसको उल्टा कर दिया है। अब ऑनलाइन शिक्षण ही मुख्य हो चला है और पारंपरिक शिक्षण को उसके सहायक की भूमिका निभानी है। क्या आज की परिस्थितियों में, जब 10 करोड़ से ज्यादा लोग अपने काम-धंधे और रोजगार से हाथ धो बैठे हैं, भारत में ऑनलाइन शिक्षण से वंचित वर्ग के लोगों को गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा मिल पाएगी? 


कोविड-19 ने दुनिया के करीब 200 देशों की आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया है। इसका व्यापक असर उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण पर भी पडे़गा। पिछले तीन दशकों में विद्यार्थियों में विदेशी विश्वविद्यालयों में जाकर पढ़ने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। कोविड-19 के प्रकोप से पहले दुनिया भर में हर साल करीब 75 लाख विद्यार्थी उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए दूसरे देश में जाते थे। इसमें अब भारी कमी आने की आशंका है। यूनेस्को का अनुमान है कि इस संख्या में 50 प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है। भारत से हर वर्ष करीब दो लाख विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए दुनिया भर में जाते रहे हैं, वहीं सिर्फ 50 हजार विदेशी विद्यार्थी हमारे यहां अध्ययन के लिए आते हैं। इन दोनों संख्याओं में अब बहुत गिरावट आने की आशंका है। जाहिर है, अब लोग अपने घर के पास और अपने देश में ही उच्च शिक्षा ग्रहण करना पसंद करेंगे।


सवाल यह है कि भारत की उच्च शिक्षा और उसकी गुणवत्ता को स्तरीय बनाए रखने के लिए अब क्या किया जाना चाहिए? सबसे पहले तो गरीब विद्यार्थियों, शिक्षण संस्थानों और शिक्षकों को आर्थिक राहत देने की जरूरत है। गरीब विद्यार्थियों को बैंकों से बिना ब्याज के शिक्षा-ऋण दिए जाने चाहिए, अभी इसकी ब्याज-दर 10-12 प्रतिशत है। इसी तरह, छात्रवृत्तियों की दर और संख्या भी बढ़ाई जानी चाहिए। भारत सरकार किसी कंपनी के साथ अनुबंध करके ऐसा सस्ता स्मार्टफोन बनवाए, जो पांच-छह हजार रुपये में मिल सके। छोटे शहरों, कस्बों व गांवों में इंटरनेट कनेक्टिविटी में सुधार बहुत जरूरी है। पर यह सब तभी संभव होगा, जब वित्तीय वर्ष 2020-21 में उच्च शिक्षा के मद में केंद्र सरकार के बजट-आवंटन को कम से कम 50 हजार करोड़ रुपये बढ़ाया जाए।




(ये लेखक के अपने विचार हैं)
हरिवंश चतुर्वेदी, डायरेक्टर, बिमटेक

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