प्रोद्योगिकी मनुष्य और समाज को बदलती है। बिजली आई, तो इंसानों की रातें बदल गईं। कृषि ने बस्तियों व सभ्यता की शुरुआत की। टीकों और एंटीबायोटिक्स से कई बीमारियां खत्म हुईं या काबू में आ गईं, और महज एक सदी के भीतर इंसानों की जीवन-प्रत्याशा दोगुनी हो गई। इन प्रौद्योगिकियों और उनके प्रभावों ने हमारी दुनिया को वैसा बना दिया, जैसा आज है। हमारे शरीर-विज्ञान पर भी प्रौद्योगिकी का गहरा असर है। जैसे, आग खाना पकाने की तकनीक है, पर प्रजातियों के विकास-क्रम में इसने हमारे पाचन तंत्र को अन्य स्तनधारियों से अलग कर दिया।
प्रौद्योगिकी का हमारे व्यक्तिगत व्यवहार पर पड़ने वाला असर महत्वपूर्ण सामाजिक प्रभाव पैदा कर सकता है। कृषि ऐसा ही एक उदाहरण है। अब हम व्यवहार परिवर्तन के एक और ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जो स्थायी और परिवर्तनकारी सामाजिक प्रभाव पैदा कर भी कर सकता है और नहीं भी। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हम उस प्रौद्योगिकी का कैसे इस्तेमाल करते हैं? स्मार्टफोन और सोशल मीडिया सामाजिक संबंधों को खत्म कर रहे हैं। हम बेशक इस बात को लेकर अफसोस जताते हैं, लेकिन शायद ही कभी यह समझने का प्रयास करते हैं कि ये सब मिलकर किस तरह की सुनामी लाने जा रहे हैं।
‘साल 2012 के बाद से, जब से स्मार्टफोन की पहुंच में वृद्धि हुई है और इंटरनेट का उपभोग बढ़ा है, दुनिया भर में किशोरों की मानसिक सेहत कमजोर हुई है’। यह निष्कर्ष उस शोध का है, जो 37 देशों में जीन एम ट्वेंज, जोनाथन हैड्ट और उनके साथियों द्वारा किया गया था। ट्वेंज की किताब जेनरेशन्स इस मसले पर विस्तार से चर्चा करती है। किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट चौंकाने वाली घटना है। 2012 के बाद से खुद को नुकसान पहुंचाने, अस्पताल में भर्ती होने और आत्महत्या की दर दोगुनी हो गई है। बेशक, व्यापक असरंदाज होने वाली ऐसी परिघटनाओं की मूल वजह साबित करने में अधिक समय लगेगा, मगर स्मार्टफोन और सोशल मीडिया के सीधे प्रभाव को नजरंदाज नहीं कर सकते हैं।
इस ‘डिजिटल जटिलता’ का दूसरा प्रभाव हमारी ‘एकाग्रता’ पर पड़ा है, जिसे अब शोध से साबित किया जा चुका है। यह जटिलता ‘अटेंशन इकोनॉमी’ (सूचना प्रबंधन का एक ऐसा दृष्टिकोण, जिसमें हमारी एकाग्रता को एक उत्पाद माना जाता है) का आधार है। यह हमारा ध्यान खींचने और उस पर एकाधिकार स्थापित करने में सफल होता है, जबकि ध्यान अथवा एकाग्रता हमारे लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन है। जब तक आप ध्यान नहीं देंगे, कुछ नहीं होगा। रिश्तों से लेकर, समस्या समाधान की समझ बनाने और तरक्की करने तक, हर चीज पर ध्यान देने की जरूरत होती है। ऐसे में, यदि आपका ध्यान आपसे छीन लिया जाए, तो सब कुछ प्रभावित होता है।
हमारी एकाग्रता पर डिजिटल जटिलता के प्रभाव का आकलन करने के लिए एक उदाहरण पेश करता हूं। जो लोग अधिकतर डिजिटल माध्यमों पर पढ़ते हैैं, वे उसे सतही तौर पर पढ़ते हैं। ऐसे कई प्रमाण हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि डिजिटली पढ़ने से विषय की समझ, उसकी अवधारणा और उसके उपयोग की क्षमता में गिरावट आती है। इसका उन बच्चों पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है, जो डिजिटल उपकरणों पर ही हमेशा नजर गड़ाए रहते हैं। फंक्शनल मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग (एफएमआरआई) अध्ययनों से पता चलता है कि डिजिटल पाठकों में मस्तिष्क के हिस्से पूरी तरह विकसित नहीं हो पाते। इस कारण, लोग सार्थक और उपयोगी पढ़ने की क्षमता खो रहे हैं।
प्रौद्योगिकी हमेशा बुरी नहीं होती। बिजली, कृषि और आग जैसी चीजें हमारे लिए अच्छी साबित हुई हैं, लेकिन परमाणु प्रौद्योगिकी जैसी प्रौद्योगिकियां हमें गर्त में ले गई हैं। वैज्ञानिक प्रगति और उनका इस्तेमाल आधुनिक जीवन की नींव है। हालांकि, इस प्रगति के नकारात्मक असर भी हैं, जिनमें से कुछ तो अप्रत्याशित हैं। चूंकि नकारात्मक नतीजों से बचना मुश्किल जान पड़ता है, इसलिए नई प्रौद्योगिकियों को विनियमित और नियंत्रित करने का प्रयास किया जाना जरूरी है। यह बात उस तकनीक के लिए भी समान रूप से महत्वपूर्ण है, जो पूरी दुनिया में उम्मीद व अभिशाप, दोनों नजरिये से देखी जा रही है, यह है- कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस- एआई)।
हम चाहें, तो एआई का शिक्षा पर पड़ने वाले प्रभाव का ही आकलन कर सकते हैं। निस्संदेह, इससे कई फायदे उठाए जा सकते हैं, जैसे- एआई आधारित मूल्यांकन प्रत्येक छात्र की रुचि के अनुरूप शिक्षण योजनाएं विकसित करने में मदद कर सकता है। या, निजी शिक्षक के रूप में एआई आधारित प्रशिक्षण या शिक्षण मॉड्यूल का उपयोग किया जा सकता है। मगर शिक्षा की बुनियाद पर एआई के प्रभाव को लेकर आशंकाएं कहीं गहरी हैं। छात्रों के हाथों में एआई आने से उनका ‘होमवर्क’ प्रभावित हो सकता है। लगभग कोई भी चीज, जो आप छात्रों से करने के लिए कहेंगे, वे एआई से उसे करने को कह सकते हैं। यह एआई के व्यापक असर का सिर्फ एक छोटा उदाहरण है। किसी छात्र का असाइनमेंट करने के लिए एआई की मदद लेना वास्तव में सोच की आउटसोर्सिंग है। यही काम शिक्षक भी कर सकते हैं। वे एआई को पाठ-योजना विकसित करने या छात्रों का आकलन करने के लिए कह सकते हैं।
जाहिर है, एआई सबके लिए सोच की आउटसोर्सिंग मुमकिन बना देगी। कम से कम चुनौतियों वाले रास्ते पर चलने की इंसानी फितरत के अलग परिणाम निकल सकते हैं। इसकी व्यापक आशंका है कि शिक्षा, जो महत्वपूर्ण रूप से सोचने की क्षमता विकसित करती है, का स्तर गिर जाएगा। यदि पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम सोच को आउटसोर्स करना जारी रखेंगे, तो सोचने की क्षमता खो सकते हैं या यह तेजी से कमजोर पड़ सकती है। हमें याद रखना चाहिए कि आग ने हमारे पाचन-तंत्र पर क्या प्रभाव डाला, और लिखित सामग्री से समझ विकसित करने की हमारी क्षमता को किस तरह से डिजिटल अध्ययन प्रभावित कर रहा है।
एआई के बड़े विशेषज्ञों द्वारा चेतावनी दी जा रही है। यदि हमने ध्यान नहीं दिया, तो हम जल्द ही एक और रसातल के मुहाने पर होंगे, ठीक उसी तरह, जिस तरह परमाणु प्रौद्योगिकी के समय थे। शिक्षा में इसकी व्यापक आशंका है, और शायद रोजगार के मामले में भी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
✍️ लेखक – अनुराग बेहर
सीईओ, अजीज प्रेमजी फाउंडेशन
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