ताकि बच्चों को बीच में न छोड़नी पड़े पढ़ाई


मेघालय, बिहार, असम, गुजरात, पंजाब, आंध्र और कर्नाटक में माध्यमिक स्तर पर स्कूल छोड़ने की दर राष्ट्रीय औसत 12.6 प्रतिशत से भी ज्यादा है। यह स्थिति कैसे बनी?



पढ़ाई-लिखाई की तरफ बच्चों को प्रोत्साहित करने की तमाम कोशिशों के बीच परियोजना मंजूरी बोर्ड (पीएबी) की बैठक के दस्तावेज सुखद तस्वीर नहीं पेश करते। शिक्षा मंत्रालय के अधीन इस बोर्ड की साल 2023-24 की बैठकें मार्च से मई के बीच हुई हैं, जिनकी रिपोर्ट बता रही हैं कि 2021-22 में मेघालय, बिहार, असम, गुजरात, पंजाब, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में माध्यमिक स्तर पर स्कूल छोड़ने की दर राष्ट्रीय औसत 12.6 प्रतिशत से ज्यादा है। यह स्थिति शोचनीय तो है, लेकिन किन परिस्थितियों में ये हालात बने, इसकी पड़ताल भी आवश्यक है।


दरअसल, स्कूली शिक्षा पर कोविड महामारी का असर दिख रहा है। पहले भी स्कूलों में ड्रॉपआउट होते थे, लेकिन हाल के वर्षों में इसमें सुधार दिखा था। मगर कोरोना ने स्थिति फिर से बिगाड़ दी है। जो बच्चे बड़ी मुश्किल से स्कूल जा रहे थे, उनकी राह तो बिल्कुल ही बंद हो गई। हम चाहें, तो इसके लिए स्कूल प्रबंधन या सरकार की शिक्षा नीति को कठघरे में खड़ा कर सकते हैं, पर बीच में पढ़ाई छोड़ने की इस प्रवृत्ति को अलग-अलग पहलुओं से देखना चाहिए।


सबसे पहले हमें यह जांचना होगा कि आखिर बच्चे स्कूल क्यों नहीं जाते? लड़कों में नामांकन दर तो फिर भी काफी सुधर गई है, लेकिन सामाजिक धारणाओं की वजह से लड़कियों के लिए स्कूली शिक्षा अब भी बहुत आसान नहीं है। शहरों में बेशक तस्वीर धवल हो, लेकिन सुदूर देहात में घरेलू काम होने पर लड़कियों को स्कूल नहीं जाने देते, बेशक घर का लड़का स्कूल चला जाए। इससे पार पाने के लिए कई प्रयास किए गए हैं। उन क्षेत्रों की पहचान की गई है, जहां लड़कियों के लिए बंधन है। इससे बदलाव संभव हो सका है, लेकिन अब भी काफी काम किए जाने की जरूरत है।


इसी तरह, सुधार प्रयासों की पड़ताल भी आवश्यक है। हमें यह देखना होगा कि बच्चों को स्कूली शिक्षा की ओर कैसे अधिकाधिक प्रोत्साहित किया जा सकता है, अथवा पूर्व में जो प्रयास किए गए हैं, वे किस हद तक सफल रहे हैं? इसके लिए हम अर्थव्यवस्था की शब्दावलियों, यानी मांग और आपूर्ति का सहारा ले सकते हैं। यहां मांग का मतलब है कि बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा की राह कितनी आसान है? उनके मां-बाप की आर्थिक स्थिति कैसी है? लड़के-लड़कियों का जो सामाजिक भेद कायम है, वह स्कूली शिक्षा पर कितना असर डालता है? आदि। जबकि, आपूर्ति का अर्थ है कि संबंधित इलाके में कोई सुविधाजनक स्कूल है अथवा नहीं? और जो स्कूल है, उसमें ऐसी पढ़ाई हो रही है, जिससे बच्चों को लाभ मिले? हमें इस मांग और आपूर्ति को समग्रता में समझकर सुधार की तरफ कदम बढ़ाने होंगे।


देखा जाए, तो बच्चों को स्कूल लाने का काम सरकार का होना ही नहीं चाहिए। वह इसे शत-प्रतिशत शायद ही कर सकती है। यह काम तो काफी हद तक स्वयंसेवी संस्थाओं या गैर-सरकारी संगठनों के जिम्मे होना चाहिए। असल में, सरकारी अधिकारी सरकारी भाषा में माता-पिता को मनाने की कोशिश करते हैं। यह भाषा शायद ही ग्रामीण परिवारों को पसंद आती है। इसके बरअक्स, स्थानीय संगठन होने के कारण एनजीओ परिवारों के ज्यादा करीब होते हैं। उनकी बातें अभिभावकों को कहीं अधिक पसंद आती है। 


हरियाणा में ‘ह्यूमाना पीपुल टु पीपुल’ जैसी संस्थाओं ने इसीलिए काफी अच्छा काम किया है। वे औपचारिक व अनौपचारिक, दोनों तरीकों से परिवारों को शिक्षा के प्रति प्रेरित करती हैं, जबकि सरकार औपचारिक रास्तों पर ही भरोसा करती है। बच्चे और उनके अभिभावक यदि शिक्षा की उपयोगिता महसूस करने लगेंगे कि शिक्षा के रूप में कितना बड़ा सहारा उनके पास है, तो हरेक घर के बच्चे स्कूल जाने लगेंगे। यहां आपूर्ति का मसला अहम हो सकता है, इसलिए स्कूलों की दशा-दिशा को बदलना भी काफी जरूरी है।


निस्संदेह, पहले की तुलना में स्कूलों की स्थिति सुधरी है। जब मैं मानव संसाधन मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय) में सचिव के रूप में अपनी सेवाएं दे रहा था, तब शिक्षा को व्यापक बनाने की राह में दो महत्वपूर्ण मुद्दे हम लोगों के सामने थे। पहला, बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। तब करीब 60-70 प्रतिशत बच्चे ही स्कूली शिक्षा हासिल कर पाते थे। मगर आज आरंभिक स्तर पर बच्चों की नामांकन दर 90 प्रतिशत से अधिक हो गई है। इसका एक बड़ा कारण ‘मिड-डे मील’ योजना है। इसके आकर्षण में वंचित तबकों के बच्चे भी स्कूल जाने लगे हैं। दूसरा, स्कूलों का कमजोर बुनियादी ढांचा। इस दिशा में भी सरकारों ने लगातार अच्छा काम किया है। अब ज्यादातर स्कूलों में बिजली-पानी की सेवा मिलने लगी है। 


हां, शिक्षकों का मसला अब भी गंभीर है, खासकर उनकी संख्या और योग्यता, दोनों पर सवालिया निशान हैं। ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं, जिसमें कथित शिक्षक ने बीएड या डीएलएड की फर्जी डिग्री लेकर नौकरी हासिल की। हरियाणा में तो ऐसी नियुक्तियों के कारण एक पूर्व मुख्यमंत्री को जेल भी जाना पड़ा। जब व्यवस्था में इतनी जंग लग चुकी हो, तो शिक्षकों की योग्यता पर सवाल स्वाभाविक है। अच्छी बात है कि नई शिक्षा नीति में इसमें सुधार की वकालत की गई है। यदि इस पर गंभीरता से काम हो, तो शिक्षा व्यवस्था का कायाकल्प हो सकता है।


हम अपनी शिक्षा व्यवस्था की तुलना दूसरे देशों से नहीं कर सकते। हमें फिनलैंड, स्कॉटलैंड या इंग्लैंड से नहीं सीखना है, क्योंकि वहां की परिस्थितियां हमसे काफी अलग हैं। इसके बजाय, हमें अपने राज्यों से ही सबक लेना चाहिए। राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा, कुछ हद तक उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अच्छा काम हो रहा है। राजस्थान में शिक्षकों का डाटाबेस बनाया गया कि कौन क्या पढ़ा रहा है, और उस हिसाब से उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में स्कूलों में शिक्षकों की शत-प्रतिशत मौजूदगी सुनिश्चित करने के लिए उनको टैबलेट दिया गया। इन सबका काफी असर बच्चों पर हुआ है।


शिक्षा व्यवस्था में सुधार की योजनाएं केंद्र के स्तर पर नहीं, राज्यों के मुख्यालयों में बननी चाहिए। केंद्र की भूमिका राज्यों के बीच समन्वय और उन्हें जरूरी संसाधन मुहैया कराने की होनी चाहिए, न कि किसी नियामक तंत्र की। इस कार्य में एनजीओ को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। शिक्षा व्यवस्था में सुधार के अच्छे कामों की तारीफ यदि खुले दिल से होगी, तो ड्रॉपआउट दर में भी तेज कमी आ सकती है।



(ये लेखक के अपने विचार हैं)
✍️ लेखक – अनिल स्वरूप
पूर्व सचिव, स्कूल शिक्षा, भारत सरकार 

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