क्या शिक्षा की गुणवत्ता केवल संसाधनों की अधिकता पर निर्भर करती है, या उनका सही उपयोग अधिक महत्वपूर्ण है? यदि संसाधन पर्याप्त हों, लेकिन शिक्षक और विद्यार्थी उन्हें प्रभावी ढंग से प्रयोग न कर सकें, तो क्या वे शिक्षा को उन्नत बना सकते हैं? असली सवाल यह है कि शिक्षा का आधार संसाधन होने चाहिए या कुशलता?  

संसाधन जितने भी हों, सोच और नवाचार के बिना सब बेकार!

ज्ञान की लौ जलाने को चिंगारी चाहिए,  
संसाधन से ज्यादा, समझदारी चाहिए।  

शिक्षा के क्षेत्र में संसाधनों की प्रचुरता को अक्सर गुणवत्ता का पर्याय माना जाता है, लेकिन क्या केवल संसाधनों की उपलब्धता ही उत्कृष्ट शिक्षा की गारंटी होती है? यदि किसी शिक्षक या विद्यार्थी को उपलब्ध संसाधनों का प्रभावी उपयोग करना नहीं आता, तो वे चाहे कितने भी आधुनिक उपकरणों और सुविधाओं से घिरे हों, उनके लिए वे साधन सदैव अल्प ही प्रतीत होंगे। इसके विपरीत, यदि सीमित संसाधनों को नवाचार और रचनात्मकता से उपयोग किया जाए, तो वे साधारण परिस्थितियों में भी असाधारण परिणाम उत्पन्न कर सकते हैं।  

विद्यालयों में पुस्तकालय, स्मार्ट क्लास, प्रयोगशालाएँ, खेल का मैदान, शिक्षण सामग्री और प्रशिक्षित शिक्षक महत्वपूर्ण संसाधन माने जाते हैं। परंतु यदि इन संसाधनों को सिर्फ दिखावे के लिए रखा जाए और उनका वास्तविक उपयोग न किया जाए, तो उनकी उपस्थिति भी निरर्थक हो जाती है। यदि किसी विद्यालय में अत्याधुनिक कंप्यूटर लैब हो लेकिन शिक्षकों को उनका उपयोग करना न आए, या फिर प्रयोगशालाएँ हों लेकिन छात्रों को उनमें प्रयोग करने की अनुमति न दी जाए, तो यह सिर्फ एक खोखली उपलब्धि रह जाती है। दूसरी ओर, यदि संसाधनों की कमी के बावजूद शिक्षक और विद्यार्थी नवाचार को अपनाएँ, तो शिक्षा अधिक प्रभावी और अर्थपूर्ण बन सकती है।  

कुशल शिक्षण का मूल उद्देश्य केवल पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन नहीं, बल्कि सीखने की प्रक्रिया को वास्तविक जीवन से जोड़ना है। यदि शिक्षक अपनी रचनात्मकता और व्यावहारिक बुद्धि का उपयोग करते हैं, तो वे बिना किसी विशेष संसाधन के भी जटिल विषयों को सरलता से समझा सकते हैं। शिक्षकों की शिक्षण शैली ही यह तय करती है कि कोई संसाधन उपयोगी होगा या निरर्थक। यदि किसी विद्यालय में विद्यार्थियों को पुस्तकालय का उपयोग करने की स्वतंत्रता ही न दी जाए, या विज्ञान की प्रयोगशाला में रसायनों को केवल प्रदर्शन के लिए रखा जाए, तो ऐसे संसाधन महज शोपीस बनकर रह जाते हैं।  


वास्तव में, शिक्षा का स्तर संसाधनों की अधिकता से नहीं, बल्कि उनके उचित उपयोग और शिक्षकों की योग्यता से निर्धारित होता है। कई बार यह देखा गया है कि जिन विद्यालयों में संसाधन सीमित होते हैं, वहाँ के शिक्षक अधिक नवाचार अपनाते हैं और विद्यार्थियों को प्रयोगात्मक गतिविधियों में संलग्न कराते हैं। इसके विपरीत, जिन विद्यालयों में अत्यधिक संसाधन होते हैं, वहाँ अक्सर शिक्षक उन पर निर्भर हो जाते हैं और पारंपरिक शिक्षण पद्धति से आगे बढ़ने का प्रयास नहीं करते। इस प्रकार, संसाधनों का अधिक होना तभी सार्थक होता है जब उनका सही दिशा में उपयोग किया जाए।  

शिक्षा प्रणाली में यह प्रवृत्ति भी देखने को मिलती है कि संसाधनों की अधिकता को विद्यालयों की गुणवत्ता का मानदंड बना दिया जाता है। किसी विद्यालय में कितने स्मार्ट क्लास हैं, कितनी पुस्तकें हैं, कितनी लैब्स हैं—यह सब आंकड़ों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन यह नहीं देखा जाता कि उन संसाधनों का सही से उपयोग हो रहा है या नहीं। इस सोच के कारण विद्यालयों में महँगे उपकरण तो स्थापित कर दिए जाते हैं, लेकिन शिक्षक और विद्यार्थी उन तक पहुँच नहीं बना पाते। यह व्यवस्था केवल कागजी उपलब्धियों को दर्शाने का माध्यम बनकर रह जाती है।  

तकनीकी संसाधनों की उपलब्धता भी तभी सार्थक हो सकती है जब शिक्षक उनके उपयोग में दक्ष हों। डिजिटल शिक्षण सामग्री, वर्चुअल लैब, ऑनलाइन संसाधन जैसी सुविधाएँ आजकल अनेक विद्यालयों में उपलब्ध कराई जा रही हैं, लेकिन कई बार शिक्षकों को इनका संचालन करना नहीं आता। इससे संसाधनों की उपलब्धता के बावजूद उनका प्रभाव नगण्य हो जाता है। यह आवश्यक है कि संसाधनों को उपलब्ध कराने के साथ-साथ उनके कुशल उपयोग के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षण भी दिया जाए।  

संसाधन शिक्षा को बेहतर बना सकते हैं, लेकिन यदि शिक्षक और विद्यार्थी उनमें रुचि न लें, तो वे व्यर्थ हो जाते हैं। वहीं, यदि शिक्षण में नवाचार और रचनात्मकता हो, तो सीमित साधनों में भी उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा दी जा सकती है। संसाधनों का मूल्य केवल उनकी उपलब्धता में नहीं, बल्कि उनके कुशल और रचनात्मक उपयोग में है।  

शिक्षा का मूल उद्देश्य बच्चों की जिज्ञासा को प्रज्वलित करना और उनकी सोचने-समझने की क्षमता को विकसित करना है। यदि शिक्षक और विद्यार्थी केवल संसाधनों की अनुपलब्धता का रोना रोते रहेंगे, तो वे शिक्षा की वास्तविक शक्ति को कभी नहीं पहचान पाएँगे। आवश्यकता इस बात की है कि संसाधनों के सदुपयोग को प्राथमिकता दी जाए और शिक्षकों को इस दिशा में प्रशिक्षित किया जाए। संसाधन केवल साधन होते हैं, लेकिन शिक्षा का असली उद्देश्य उनका प्रभावी उपयोग कर ज्ञान और कौशल को विकसित करना है। यही सच्ची शिक्षा है और यही इसका मूल उद्देश्य भी होना चाहिए।


 ✍️  लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर


परिचय

बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।

शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।  

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