प्राइमरी का मास्टर डॉट कॉम के फैलाव के साथ कई ऐसे साथी इस कड़ी में जुड़े जो विचारवान भी हैं और लगातार कई दुश्वारियों के बावजूद बेहतर विद्यालय कैसे चलें, इस पर लगातार कोशिश करते भी है। चिंतन मनन करने वाले ऐसे शिक्षक साथियों की कड़ी में आज आप सबको अवगत कराया जा रहा है जनपद भदोही के साथी श्री विनोद कुमार जी से!  स्वभाव से सौम्य और मेहनत करने में सबसे आगे ऐसे विचार धनी शिक्षक श्री विनोद कुमार जी  का 'आपकी बात' में स्वागत है।

इस आलेख में उन्होने प्राथमिक शिक्षा के अवसान की  तथाकथित अवस्थिति  का अवलोकन किया है और  नीति को लागू करने वाले तंत्र को कटघरे में खड़ा किया है। हो सकता है कि आप उनकी बातों से शत प्रतिशत सहमत ना हो फिर भी विचार विमर्श  की यह कड़ी कुछ ना कुछ सकारात्मक प्रतिफल तो देगी ही, इस आशा के साथ आपके समक्ष श्री विनोद कुमार जी का आलेख प्रस्तुत है।


प्राथमिक शिक्षा या यूँ कहे की सरकारी प्राथमिक शिक्षा। सन् 1992 के पूर्व तक सरकारी विद्यालयो में पर्याप्त भौतिक सुविधाओ के न होने पर भी भौतिक दशा व शैक्षिणिक माहौल काफी बेहतर रहा। इसके पूर्व तक समाज में सरकारी के साथ साथ प्राइवेट विद्यालय भी संचालित थे,  पर प्राइवेट और कान्वेंट में लोग सिर्फ सम्पन्नता व अंग्रेजी माध्यम के कारण ही भेजते थे। ट्यूशन जाना बिलकुल वैसे ही था जैसे डॉक्टर के पास मरीज का जाना।

मेरा विद्यालय एक नगरीय कस्बे में था मुझे याद है  कि हम विद्यालय समय से पहुचते थे और स्कूल की सफाई हमारी नियमित दिनचर्या में शामिल था। स्कूल के प्रति अपनापन व सम्मान उतना ही था जितना कि अध्यापको के प्रति। यह वो दौर था जब बहुसंख्यक अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूल पढने भेजता था, तथा उसे सरकारी विद्यालयो की शिक्षा व शिक्षको के प्रति विश्वास था । कालान्तर में ऐसी कौन सी परिस्थितियां आई जिन्होंने सरकारी व प्राइवेट विद्यालयों में प्राइवेट को ऊपर कर दिया या ऊपर होना दिखाया जाने लगा। आईये विचार करें।

वर्ष 1992  के आसपास बड़े पैमाने पर शिक्षको का रिटायरमेंट हुआ जिससे बड़े पैमाने पर शिक्षको के पद रिक्त हुए और सरकार ने वर्ष 1997 तक लगातार खली होते पदों को भरने में कोई तत्परता नहीं दिखाई। नतीजतन ज्यादातर विद्यालय एकल या अध्यापक विहीन की स्थिति में आ गए। सरकार से यही सबसे बड़ी गलती हुई। क्योकि जब 5 अध्यापको के एक विद्यालय से एक अध्यापक रिटायर होता है और तुरंत ही नया अध्यापक आ जाता है तो आने वाला अध्यापक उस विद्यालय के बने बनाये माहौल में खुद को ढाल लेता है और विद्यालयीय परिवेशीय व शैक्षणिक परंपरा बनी रहती है।  सरकार ने इसमें देर की तथा वर्षो के बने बनाये माहौल को मृत होने तक भर्ती में देर की। 

जब नयी भर्ती हुई तो एकल अध्यापकीय विद्यालय में अध्यापक को मिला 28 रजिस्टर 5 कक्षाएं और 200 की छात्र संख्या। फलतः शिक्षा का जो होना था वही हुआ । यही वो समय था जब शिक्षा के प्रति जागरूक अभिभावको ने अध्यापक से इसपर प्रश्न किया तो जवाब के रूप में एकल अध्यापक ने 28 रजिस्टर 5 कक्षा व 200 की छात्र संख्या उसके सामने रख दी। राजनैतिक जागरूकता के अभाव में उस अभिभावक ने सरकार से अध्यापक नहीं माँगा बल्कि वह अपने बच्चे के लिए कही और भविष्य तलाशने लगा।  यही वह समय था जब प्राइवेट स्कूलो की पौ बारह थी। शिक्षा नीतियों में बदलाव और बदहाली का सार्वजनिक तराना गाकर सरकारी स्कूलों की मिटते पलीद करते हुये  हर गली कूचे व बागो में प्राइवेट स्कूल संचालित होने लगे। जहाँ पर्याप्त अध्यापकीय संख्या अध्यापक व छात्र उपस्थिति व् परीक्षाफल सहित कुल 4 रजिस्टरों के आरामदायक माहौल में वहां शिक्षण का कार्य होने लगा न की गैर शैक्षणिक कार्य।

1999 आते आते शिक्षा आधारित व्यवसाय पर आश्रित रहने वाला अभिभावक व उसके बच्चे सरकारी स्कूल से दूर हो चुके थे।विद्यालय में अध्यापक व् छात्र दोनों ही कम हो चुके थे। अब उस अभिभावक की निष्ठां कही से भी सरकारी विद्यालयो के प्रति नहीं रही। सर्व शिक्षा अभियान के तहत जितनी भर्तियां प्रारम्भ हुई उससे भी तेजी से नवीन विद्यालयो का निर्माण प्रारम्भ हुआ फलतः भर्तियां ऊंट के मुह में जीरा ही साबित हुई। 1999 के पूर्व आउट ऑफ़ स्कूल बच्चों की संख्या काफी थी। इन आउट ऑफ़ स्कूल बच्चों के माता पिता या तो दिहाड़ी मजदूर थे या उन्ही के बराबर के आर्थिक स्तर के। 

सर्व शिक्षा अभियान के तहत छात्रवृत्ति व् मुफ़्त अनाज का लालच देकर ऐसे बच्चों को स्कूल से जोड़ने का लक्ष्य रखा गया। अतः इन सुविधाओ के लालच में नामांकन बढ़ा पर विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा का स्वरूप शैक्षणिक व्यवसाय आधारित शिक्षा का ही बना रहा जबकि उस समय विद्यालय में पढने वाले बच्चों बच्चों के लिए कौशल आधारित शिक्षा बेहतर होती, जो उनकी आर्थिक पृष्ठभूमि से मेल खाती। मुझे आज भी याद है एक प्रशिक्षण के दौरान एक अध्यापिका ने अपना अनुभव शेयर किया था;  उन्ही के शब्दों में " एक बार दोपहर में एक महिला विद्यालय में आई और बोली 'मैडम हमरे लडिकवा के छुट्टी दै द ओकर बाउ बाजा बजावै जाईहै त ऊ घरे रहे'। इसपर मैं बोली अरे उसे स्कूल में रहने दीजिये कुछ पढ़ेगा। इसपर वो बोली 'मैडम जी पढ़ि के का करी आगे चली के बजवै टी बजाई'। इसबात पर मैं निरुत्तर हो गयी और उसे छुट्टी दे दी।"

इससे स्पष्ट है कि  हमारे विद्यालयो में पढ़ाई जाने वाली सामग्री व् पढ़ने वाले बच्चों की जरूरत में कही न कही एक बड़ी खाई  जरूर है। ये एक सच है की भारत मे पढ़ने वाले सभी बच्चे सरकारी नौकरी नहीं पा सकते ना ही डॉक्टर इंजिनियर ही बन सकते है,  विशेषकर सरकारी प्राथमिक विद्यालयो में पढने वाले बच्चों के अभिभावक अपनी आर्थिक स्थिति के कारण महँगी शिक्षा से दूर ही रहेंगे। अब प्रश्न ये उठता है कि  हम इन 8 वर्षो में ऐसा क्या सिखाते है कि  विद्यालय से बाहर जाकर यदि वो पढाई छोड़ देता है तो इस अवधि में सीखे गए ज्ञान का प्रयोग कर वह अपना बेहत्तर जीवन जी सकें।

ऊपर से हमारे नीति नियंता एसी में बैठकर उसी सोंच के साथ उलटे सीधे नियम लागू करते है। अब कला अनुदेशक की भर्ती को ही लीजिये। जिन बच्चों के पास ठीक से कलम नहीं आ पाती क्या उनके पास ब्रश व कलर हो सकता है और यदि किसी ने सीख भी लिया तो किस हद तक जीवन में उसका आर्थिक इस्तेमाल कर पायेगा। यदि इसकी जगह आईटीआई अनुदेशक रखा गया होता और ये छात्र वायरिंग बढ़ईगिरी मोबाइल रिपेयरिंग कंप्यूटर मरम्मत आदि सीखते तो बेहतर आर्थिक जीवन जीने की संभावना बढ़ती व अर्थोपयोगी कौशल सीखकर आगे पढता तो भी उपयोगी न पढ़ता तो भी उपयोगी कहीं ना कहीं होता ही, पर यहाँ भी महगे कान्वेंट की नक़ल कर कला अनुदेशक रखा गया।

1997 आते आते जब सरकार चेती व बड़े पैमाने पर नई भर्ती शुरू की तब तक पठन पाठन की पुरानी परंपरा मूल्य व् पढ़ाई के प्रति सजग अभिभावको का समूह विद्यालय से जा चुके थे। ऊपर से गैर विभागों के ये नए अध्यापक एक बहुद्देशीय कर्मी नज़र आये और जनगणना से लेकर पशुगणना तक में इनका खूब इस्तेमाल हुआ और जब कोई काम पूरा हुआ तो श्रेय किसी और का, और काम के कारण शिक्षा का स्तर गिरा तो जिम्मेदार अध्यापक। इसका ताज़ा उदाहरण पोलियो अभियान है जिसमे जिसमे मेहनत की अध्यापकों ने और राज्य के मुखिया साहब ने धन्यवाद में भी शिक्षको का नाम न लिया।

रही सही कसर प्रेस व अधिकारी पूरे कर देते है जो कमियो को ढूंढकर प्रेस में छापते व छपवाते है पर अच्छाई को नजरन्दाज कर देते है। जबकि प्राइवेट वाले मात्र अपनी अच्छाइयों को प्रसारित करवाने में अच्छी रकम खर्च कर देते है। मीडिया और प्रचार का ऐसा मकडजाल से बेचारे ना समझ और भोले भाले ग्रामीण अभिभावक कैसे और कब तक बच पाते?

कहते है लक्ष्मी व सरस्वती एक साथ नहीं रहती जहाँ धन है वहां बुराई भी है। जब सरकार के पास साल में 50 लाख खर्च करने के लिए प्रधान व  सेक्रेटरी है तो मात्र 2 लाख धन छात्रवृत्ति, एमडीएम,  ड्रेस व पुताई के लिए क्यों दे दिया जाता है?  फिर इसी धन की जाँच (या वसूली) हेतु दुनिया भर की नौटंकी। अधिकारी आते है पर शैक्षणिक रजिस्टर ना देखकर धन आधारित रजिस्टर ऐसे देखते है जैसे वे शिक्षाधिकारी कम आडिटर ज्यादा हों।

समय बीतने पर सरकार को सुधि आई और बड़े पैमाने पर भर्ती शुरू हुई पर जल्दबाजी में जौ के साथ घुन भी विभाग में आये। आज पुलिस भर्ती में जहाँ ज्ञान की ज्यादा  महत्ता नहीं है दो दो परीक्षा व शारीरिक परीक्षा के बाद भर्ती होती है पर शिक्षक के लिए जहाँ बेहतर ज्ञान के साथ उच्चस्तरीय बाल शिक्षामनोविज्ञान की आवश्यकता होती है वहां मात्र मेरिट पे भर्ती और मेरिट की पवित्रता से सभी परिचित है।

सारांशतः सरकारी विद्यालयो में बेहतर माहौल बनाने के लिए पर्याप्त स्टाफ ,व जरूरत आधारित ज्ञानोपयोगी पाठ्यक्रम, विद्यालयो के प्रति सामाजिक सकारात्मकता,  अध्यापको को गैर शैक्षणिक कार्यो से मुक्ति व अध्यापको का विद्यालय व शैक्षणिक कार्य के प्रति समर्पण तथा अधिकारियो के शोषण से शिक्षको की सुरक्षा तथा शिक्षक व विद्यालय के अच्छे कार्यो की सराहना व प्रसार अति आवश्यक है। 


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  1. विनोद सर, आपकी बात लेख पढ़कर मन प्रसन्न हुआ की आपने इतनी गहराई से आपने सही कारण का आकलन किया और हमसभी के सामने प्रस्तुत किया। मैं आपकी बात से पूर्ण रूप से सहमत हूँ। सच में आप विचारों के धनि है।धन्यवाद सर। आपका एक शिक्षक साथी-
    पवन कुशवाहा

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  2. आपकी बात सही है पर इसके लिए शिक्षक प्रतिनिधि भी कम दोषी नहीं है जो केवल वेतन आयोग लगवाने के लिए ही सक्रिय रहे और बाकि सभी सरोकारों पर उनका मौन प्रश्नचिन्ह बना रहा

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  3. vinod sir apke.vichar aj ke parivesh ke liye bilkul sahi hain.ab waqt.aa gaya hai ki hum bhi apni puri nishatha aur imanadari se apne kartvayon ko nibhayen aur bachchon ke bhavishya ka nirman karen.

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  4. विनोद सर आपके विचार आजकी शिक्षा मे हमे अपने निष्ठा और कर्तव्यो की पूर्ति करते हुए वक्तके साथ हमे सुधार लाने की जरुरत है

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  5. Vinod ji bahut sahi tarike se aapne basic education par chot kia hai yah baat hamare niti niyantao ko samjhna chahia ab samay aa gaya hai ki shiksak ke sirf kamia na dekhkar unki goodness ko dekhe aur unhe puraskrit kate

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  6. I am completely agree with u, teacher is doing so much extra paper work rather than teaching,there should be proper staff and fund,

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