वर्ष 2044
मेरे सेवानिवृत होने पर आज विद्यालय में मेरे सम्मान में एक समारोह का आयोजन किया गया है। सभी शिक्षक साथीगण व अन्य लोग प्रसन्नचित दिखाई दे रहे है किन्तु आज मैं स्वयं अपने जीवनकाल के सबसे तनाव भरे क्षण को महसूस कर रहा हूँ|
सभी मित्रगण एक ओर जहाँ बधाइयों का ताँता लगाये हुए है, वहीं मेरे मन में कई अनसुलझे रहस्यमयी सवाल न चाहते हुए भी मेरे माथे पर सलवटें पैदा कर रहे है... सोच रहां हूँ की कल से मैं अपने जीवन की पारी फिर से शुरू करने जा रहा हूँ। एक ऐसी पारी जिसमें हर बीते हुए दिन के साथ मुझ पर मेरा बुढ़ापा हावी होता जायेगा और 60-62 वर्ष तक समाज व देश की सेवा करने के बाद भी मेरे हाथ खाली होंगे। मुझे अब दूसरों के सहारे अपना जीवन बिताना होगा। पता नहीं कैसे कटेगा आगे का जीवन?
अब तक अच्छी खासी तनख्वाह सरकार से पा रहा था तो ठीक-ठाक समय कट रहा था। समाज में अपना स्तर भी अच्छा-खासा बना रखा था। ईश्वर जाने अब क्या होगा? कैसे मैं अपने जीवन स्तर को बना के रख पाउँगा? मैं निरंतर अपने मन को समझाने की कोशिश कर रहां था...... कभी सोचता कि बच्चो के पुराने कपडे ही पहन लूँगा। कूलर, एसी को बंद कर दूंगा, मोबाईल और लैपटॉप का इस्तेमाल भी बंद कर दूंगा...... और भी जो इस तरह के खर्चे हैं उनको कम करके शायद अपना व अपनी संगिनी का जीवन यापन कर लूँगा।
लेकिन एक बात फिर दिमाग में आई कि यदि अपनी पत्नी से पहले ही मुझे ईश्वर ने उठा लिया तो उस बेचारी का क्या होगा? जब से बेटों की शादी की है तब से उनकी प्राथमिकता मम्मी-पापा न होकर पत्नी और बच्चे हो गए हैं। इस बढ़ती हुई मंहगाई में हम दोनों उनके लिए एक बोझ से ज्यादा कुछ नहीं होंगे। हमारी उपस्थिति उन्हें अपनी निजी जिन्दगी में खलल जैसी लगेगी .... कोई बात नहीं, हम दोनों अलग खा-पका लेंगे। कहीं अलग रह लेंगे। मगर पैसे कहाँ से आयेंगे? क्योकि अपना सब कुछ तो हमने अपने बच्चो की खुशियों पर लुटा दिया..... चलो हम कहीं किसी वृद्धाश्रम में जाकर ही गुजर-बसर कर लेंगे..... कोई बात नहीं जो अपनी एक ऍफ़.डी. है उसी के ब्याज से गुजारा चलाने की कोशिश करेंगे। आखिर हमारा भी स्वाभिमान है, भला हम क्यों बच्चो के सामने हाथ फैलाएंगे..... और यदि हमने ऐसा किया भी तो क्या वो लोग हमारी इस कमी को पूरा कर पायेंगे? शायद नहीं, क्योंकि उनके अपने ही खर्चे बहुत हैं। वो हमारी मदद कैसे कर पाएंगे। फिर अपने मन को समझाता कि जैसे तैसै मेहनत-मजदूरी करके खाने और रहने का जुगाड़ तो हम कर ही लेंगे।
मगर फिर से एक सवाल मन में खड़ा हो गया कि यदि हम बीमार पड गए तो उसका खर्च कौन उठाएगा?....मैं इसी उधेडबुन में लगा रहा था और सेवानिवृत्ति कार्यक्रम कब समाप्त हो गया, पता ही नहीं चला। इसके बाद भविष्य की चिंता में उलझ हुआ मैं जैसे तैसे घर पहुंचा।
घर पहुँचते ही मेरे कानो में बहु की आवाज सुनाई दी जो मोबाइल पर किसी से कह रही थी- “अब तो इन बूढ़े-बुढ़िया का भी खर्च भी हमारे सिर आपड़ेगा, उस पर कभी ये बीमार तो कभी वो बीमार, आमदनी इनकी कुछ रही नहीं, इनका खर्चा कहाँ से आएगा..... ये तो पुराना सामान भी नहीं है जिसे कबाड़ी को बेच दिया जाये। हे भगवान ! पता नहीं अब कब तक इन्हें झेलना पड़ेगा”। बहू के इन कड़वे शब्दों को सुनकर मैं सन्न सा खड़ा रह गया। मुझे महसूस हुआ कि मैं आज कितना असहाय और बेबस हूँ....... आज मैं उस दिन को कोसने लगा जब मैने शिक्षा विभाग की नौकरी ज्वाइन की थी। यदि मैंने उस समय आप कोई बिज़नेस किया होता तो शायद मैं कभी रिटायर न होता........ या मैंने रिश्वत और दलाली से अपने लिए कम से कम इतना पैसा तो कमाया होता कि मुझे ये दिन देखने न पड़ते........ मैं अपनी संवेदनहीन सरकार को कोसने लगा जिसने मुझे नयी पेंशन योजना के नाम पर ठगा...... जब फण्ड देने की बात आयी तो आलाधिकारी मुझसे ये कहकर पल्ला झाड रहे थे कि भाई आपका सारा पैसा तो शेयर मार्किट में लगा था और देखो उक्त बीमा कम्पनी की हालत वो तो बेचारी डूब गयी.......ओफो....मेरा जीवन.....मैं धीरे धीरे घर से बाहर निकला और खेतों के बीच एक पतली पगडण्डी पर चलने लगा.......मुझे नहीं पता कि मेरे कदम किस ओर जा रहे हैं और इनका अंत कहाँ होगा.....?
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लेखक परिचय :
डॉ0 अनुज कुमार राठी
(लेखक जनपद शामली में परिषदीय स्कूल में सहायक अध्यापक हैं, पुरानी पेंशन के लिए संघर्ष के सन्दर्भ में सोशल मीडिया में उनका नाम चिर परिचित है।)

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