एकमात्र उम्मीद
अब यही आशा है कि शिक्षा के प्रसार से जो जागृति पैदा हुई है वही आगे चलकर समान स्कूल व्यवस्था जनमत के आधार पर लागू कराएगी
शिक्षा व्यवस्था के संबंध में हर कोई अपनी राय न केवल रखता है, बल्कि उसे व्यक्त करने के लिए भी तत्पर रहता है। शिक्षा हर व्यक्ति तथा हर परिवार को किसी न किसी ढंग से प्रभावित अवश्य करती है। शिक्षा, उसकी विषयवस्तु तथा विधा समय के साथ गतिमान रहते हुए ही अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकते हैं। इसमें देरी भी स्वीकार्य नहीं मानी जाती है। इसके लिए व्यवस्था तथा क्रियान्वयन में संलग्न सभी व्यक्तियों को सजग तथा नया सीखने के लिए प्रतिबद्ध होना आवश्यक होगा। उनकी नवाचार में रुचि तथा उसे कर सकने की स्वायत्तता मिलनी ही चाहिए।
स्वतंत्र भारत में शिक्षा का जो विस्तार हुआ है उसे अभी और आगे जाना है। अनेक सराहनीय उपलब्धियां गिनाई जा सकती हैं, मगर देश की प्रगति की चिंता तो कमियों को पूरा करने तथा अस्वीकार्य प्रवृतियों के नियंत्रण की प्राथमिकता के आधार पर ही करनी होगी। अगर शिक्षा व्यवस्था में ही मूल्यों के ह्रास का घुन लग जाए तब समाधान ढूंढ़ना अत्यंत कठिन हो जाता है। हर व्यक्ति इससे परिचित है कि शिक्षा व्यवस्था प्रारंभ से ही दो हिस्सों में बंट गई है और आगे की पीढ़ियो को भी विभक्त कर रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है नीति-निर्धारकों का स्वार्थ।
आज भारत में ‘पड़ोस का स्कूल’ जैसी संकल्पना केवल वहीं बची है जहां माता-पिता के पास कोई अन्य विकल्प होता ही नहीं है। अमीरों के तबके की बात तो सदा ही अलग रहती है।  वर्तमान स्थिति मध्यवर्ग की बढ़ती संख्या से उपजी भी मानी जा सकती है। भौतिक संसाधनों को बढ़ाने की आवश्यकता की अनिवार्यता सभी स्वीकार करते हैं, मगर अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा के लिए बहुत कुछ और भी चाहिए। कर्मठ, प्रशिक्षित, लगनशील, अध्ययनशील, संवेदनशील अध्यापक भी चाहिए जो अपने उत्तरदायित्व को अंतर्निहित कर चुके हों। ऐसे कर्मचारी चाहिए जो जानते हों कि अध्यापकों के साथ वे भी भारत की नई पीढ़ी को तैयार करने के पवित्र कार्य में भागीदारी कर रहे हैं।
सरकारी तंत्र ने या तो इसे समझा नहीं या जानबूझकर नजरअंदाज कर दिया। निजी स्कूलों में बच्चों को प्रवेश दिलाने के लिए जो आपाधापी प्रतिवर्ष मचती है वह शिक्षा के द्वारा जुड़ाव की नहीं, अलगाव की कहानी कहती है। समाज के जिस वर्ग को अपने जीवन को ऊंचा उठाने के लिए शिक्षा ही एकमात्र उपाय दिखाई देती है उन्हें यह पूछने का अधिकार है कि उनके बच्चों के स्कूल निरीहता की स्थिति में क्यों रखे जा रहे हैं, जबकि सुविधा संपन्न वर्ग के लिए सरकारें आगे बढ़ के विशेष प्रावधान करने में हिचकती नहीं हैं।
2015 में न्यायालय के दो निर्णय भारत की शिक्षा व्यवस्था की वस्तुस्थिति का बड़ा सटीक वर्णन करते हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को आदेश दिया कि वे सभी लोग जो सरकारी कोष से वेतन पाते हैं, अपने बच्चों का प्रवेश सरकारी स्कूलों में कराएं। वे लोग जो शिक्षा की वर्तमान स्थिति को अंदर से जानते समझते हैं, इसे सही निर्देश मानते हैं, मगर साथ ही यह भी जानते हैं कि इसका लागू हो पाना असंभव है। निराशा की ऐसी स्थिति बन गई है कि अनेक दशकों से लोगों ने मान लिया है कि सरकारी स्कूलों का यही भाग्य है। यह भी सभी मानते हैं कि यदि यह निर्णय ईमानदारी से लागू कर दिया जाए तो तीन वर्ष के अंदर सरकारी स्कूलों की शक्ल बदल जाएगी। आज भी ऐसे लोग हैं जिन्होंने 1950-60 के बीच सरकारी स्कूलों की साख से परिचय पाया था तथा वहां की सशक्त कार्यशैली के वे आज भी मुरीद हैं। वे यह भी याद करते हैं कि उस समय गांधीजी की बुनियादी शिक्षा का प्रभाव बचा हुआ था और स्कूलों में बच्चे अनेक कौशलों से परिचय पा जाते थे। आज इस कमी को सभी मानते हैं और अलग से कौशल विकास के लिए व्यवस्थाएं की जा रही हैं। यदि स्कूलों में प्रारंभिक कार्य अनुभव देकर कौशलों में रुचि उत्पन्न कर दी जाती तो इस प्रकार की परियोजनाएं अधिक सफलता प्राप्त करतीं।
16 नवंबर 2015 को एक और निर्णय दिल्ली उच्च न्यायालय का आया है, जो सामान्य जन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। अनेक लोग इस तथ्य से परिचित नहीं हैं कि विशिष्ट वर्ग अपने स्वार्थ के लिए क्या क्या गुल नहीं खिलाता है। दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित संस्कृति स्कूल में वरिष्ठ प्रशाशनिक अधिकारियों के लिए 60 प्रतिशत आरक्षण को दिल्ली उच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया है। इसे संविधान के अनुच्छेद 14 तथा 21 का उल्लंघन करता पाया गया। इस स्कूल को दिल्ली में चाणक्यपुरी जैसी जगह पर 7.78 एकड़ जमीन मुफ्त (एक रुपये प्रतिवर्ष के शुल्क पर) दे दी गई। यही नहीं इसे प्रारंभ करने के लिए 15.94 करोड़ की राशि भी सरकार ने दी थी। न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि सरकार इस प्रकार के आरक्षण का संरक्षण नहीं कर सकती है। एक बड़ा प्रश्न उभरता है कि क्या प्रशासनिक अधिकारी संविधान के प्रावधानों से परिचित नहीं थे? वे सभी भारत के सरकारी स्कूलों की स्थिति भी जानते थे। तब यह राजे-महाराजे जैसा अलगाव तथा सामंतशाही पुनर्जीवित करने का प्रयास क्यों?
शिक्षा में समानता के अवसर देने का प्रावधान तो भारत के संविधान में किया गया है। समतामूलक समाज के निर्माण का मूल आधार तो शिक्षा में समानता के अवसर देना ही है। फिर शीर्ष स्तर पर ऐसे असंवैधानिक कार्य क्या दर्शाते हैं? जिन्हें अनगिनत विशेषाधिकार प्राप्त हैं वे कैसे अपने कर्तव्य को ताक पर रखकर सीमित स्वार्थपूर्ण दायरे में घिरकर रह जाते हैं। समान स्कूल व्यवस्था को हमने भुला दिया है। अब लोगों को यही आशा है कि शिक्षा के प्रसार से जो जागृति पैदा हुई है वही आगे चलकर देश में समान स्कूल व्यवस्था जनमत के आधार पर लागू कराएगी।

लेखक
जगमोहन सिंह राजपूत
(लेखक जगमोहन सिंह राजपूत एनसीईआरटी के निदेशक रह चुके हैं।)

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