सपना देखना और सच होना, वह भी दिन में देखे गये सपनों का सच होना, कितना सुखद और आनन्दमयी अहसास कराता होगा। उससे भी अधिक सुखद, आनन्दमयी अनुभूति तब होती है जब किसी के सपने हमारे सहयोग से सच हो जायें। तो हम भी अपने को गौरवान्वित और आनन्दित महसूस करते हैं।
ऐसे ही सपने वह भी दिन के उजाले में, अपने देश के लिए, अपने राष्ट्रीय गौरव के लिए, अपनी आने वाली भावी पीढ़ी के सपने सच करने के लिए, हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और महापुरुषों ने परतंत्र भारत को स्वतंत्र कराने में, अपने सुख, सम्पत्ति, परिवार और जीवन को न्यौछावर कर, इस लोकतान्त्रिक और भावी नागरिकों को सुख, शान्ति, प्रेम और भाईचारे के लिए देखे होगें। उन्हीं सपनों की धरोहर को सच करने के लिए मार्गदर्शक के रूप में लोकतन्त्र का पवित्र ग्रंथ "भारतीय संविधान" सौंप गए।
जिसमें उन्होंने हर मानवीय पहलू को ध्यान में रखते हुए समानता के सिद्धांतों पर जाति-धर्म के अतिवाद से हटते हुए धर्मनिर्पेक्ष राष्ट्र की कल्पना को मूर्त रूप देने का पूरा ध्यान रखा।
लेकिन हमने अपने व्यक्तिगत धर्म ग्रंथों को तो आज तक अपरिवर्तित रूप में स्वीकार करने की मजबूत प्रतिबद्धता कर रखी है। यहाँ तक कि उसकी एक लाइन के खिलाफ भी, यदि किसी व्यक्ति ने हिम्मत की, तो उसको अपने जाति-धर्म से बहिष्कार और विरोध का सामना करना पड़ा एवं कई बार तो अकारण जीवन से ही हाथ धोना पड़ा, व्यक्तिगत धर्म में तो हजारों वर्षों बाद एक भी संशोधन न देख सकते हैं न बरदाश्त कर सकते हैं और कहेंगे कि धर्म में तर्क का कोई स्थान नहीं होता है। लेकिन वही सम्पूर्ण भारतीय लोकतन्त्र का मानवीय धर्म ग्रंथ भारतीय संविधान की मूल उद्देश्य और मूल भावना समानता के सिद्धांतों से हट कर अपने तर्क और तरीकों से बार बार संशोधन के रूप में बदल डाला। राष्ट्रीय धर्म ग्रंथ भारतीय संविधान पर परिवर्तन का तर्क क्यों काम कर रहा है???
किसी भी बीज को पेड़ बनने और फलित होने में कुछ निश्चित समय लगता है, तो हम "भारतीय संविधान" एक सामान्य मनुष्य की उम्र सौ वर्ष तक भी अपरिवर्तित क्यों नहीं रख सके??  यदि समय के साथ परिवर्तन की आवश्यकता होती है, जो प्रकृति का नियम भी है, तो व्यक्तिगत धर्म ग्रंथों में परिवर्तन क्यों नहीं??? कहीं न कहीं विरोधाभास तो है, अब चाहे वह निहित स्वार्थवश हो या श्रद्धावश। जो मानवता की रक्षा के लिए सोचने पर मजबूर कर देता है।
जब भारतीय संविधान धर्मनिर्पेक्षता का आदेश देता है तो हम सबका कर्तव्य होना चाहिए कि उसका सम्मान करें, उसकी रक्षा करें। इसके लिए हमें अपने व्यक्तिगत धर्म के अनुसार जीवन जीने की आजादी मिली है। तो इसे धर्मनिर्पेक्षता की रक्षा के लिए सार्वजनिक जगह पर बाधक बनने से दूर रखें। क्योंकि वह आपके पूर्वजों द्वारा धरोहर और संस्कार के रूप में मिला है। इसे अपने घर परिवार और समाज की सीमाओं तक सीमित रखना भी हमारा ही कर्तव्य होना चाहिए। जब हम अपने पूर्वजों की सम्पत्ति को सार्वजनिक रूप से वितरित नहीं कर सकते हैं तो उनके विचारों को फैलाने के लिए सड़क और चौराहों से होते हुए अन्य व्यक्ति की निजता पर हमला करने की इच्छा क्यों रखते हैं। 

क्या यही है धर्मनिर्पेक्षता का सिद्धान्त??? 
इस प्रश्न पर, क्यों सत्ताधारी सरकारें और समाज का नेतृत्व मौन धारण कर लेता है ?? भारतीय संविधान को वोट बैंक की प्रयोगशाला क्यों बनने दिया जाता है ???


क्या अब हम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और महापुरुषों के त्याग और बलिदान को भूलकर इतने व्यक्तिगत, स्वार्थी और लालची हो गए हैं जो भारतीय संविधान को कुछ वर्षों तक अपरिवर्तित न रख सके या हम में छद्म ज्ञान एवं शक्ति का दम्भ हावी होता जा रहा है और वोट बैंक के लालच में स्वार्थवश संशोधन दर संशोधन करते जा रहे। जिसे जब जैसा अवसर मिलता, कभी जाति के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर, कभी दौलत के नाम पर मानवता का गला घोंटने में लगा है और शक्तिहीन निरीह नागरिक अनवरत बह रहे रक्त के आँसू  पीने को विवश हो रहा। फिर स्वतंत्रता और परतन्त्रता में अन्तर क्या है ???

क्या यही हैं आजादी के सपने?

जय हिन्द!
जय शिक्षक!
लेखक
विमल कुमार
कानपुर देहात
मिशन शिक्षण संवाद उ० प्र०

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