बिहार के इंटर टॉपर रूबी कुमारी ने जब राजनीति विज्ञान को खाना पकाना और सौरभ श्रेष्ठ ने एल्मुनियम को सबसे बड़ा सुचालक बताते हुए इलेक्ट्रान और प्रोटान के बारे में अनिभिज्ञता जताई तो पूरे देश में कोहराम मच गया। इन दोनों छात्रों ने बिहार माध्यमिक शिक्षा परिषद से इंटर टॉप किया था। देश में मचे कोहराम के बाद इनको दोबारा परीक्षा के लिए बुलाया गया। रुबी नहीं आई और सौरभ फेल हो गया। परीक्षाफल निरस्त कर दिया गया। पर यह शिक्षा को लगे रोग की दवा नहीं है। यह तो महज बानगी भर है। देशभर में प्राथमिक से लेकर माध्यमिक शिक्षा तक ऐसे तमाम होनहार भरे पड़े हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने रायबरेली के बछरावां के एक सरकारी स्कूल में बच्चों से अपने बारे में पूछा कि वह कौन हैं। शिक्षा मित्रों के वेतन और चेक वितरण समारोह में खुद मुख्यमंत्री ने खुलासा किया कि छात्र ने उन्हें राहुल गांधी बताया था। उत्तर प्रदेश के माध्यमिक शिक्षा राज्य मंत्री विजय बहादुर पाल ने यह खुलासा किया कि उन्होंने कन्नौज के बच्चों के सामान्य ज्ञान की परीक्षा ली। उसमें पूछा कि उनका सांसद कौन है, उनके सामने बच्चों का जवाब था सोनिया गांधी। वास्तव में कन्नौज से मुलायम सिंह यादव की बहू और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव सांसद हैं। यही नहीं, इसी मंत्री ने जुबली इंटर कॉलेज में इंटरमीडिएट के छात्रों से पूछा कि देश के पहले प्रधानमंत्री कौन थे। जवाब था डॉ. राजेंद्र प्रसाद। दुनिया में सबसे बड़ा संविधान कहां का है, इसका जवाब बच्चों ने अमेरिका दिया। इन बच्चों को इनवायरमेंट की स्पेलिंग भी नहीं पता है। इस तरह की तमाम नजीरें देश के हर प्रदेश के शिक्षा विभाग में पसरी पड़ी हैं। यूनेस्को की ग्यारहवीं वैश्विक रिपोर्ट से यह पता चलता है कि कक्षा-5 के 46.3 फीसदी बच्चे कक्षा दो की किताबें नहीं पढ़ पाते। 2010 में तीसरी कक्षा के 37 फीसदी बच्चे गणित के सवाल हल कर लेते थे, लेकिन अब सिर्फ 19 फीसदी ऐसा कर पाते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक 90 फीसदी बच्चे चार वर्ष की स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बावजूद निरक्षर जैसे हैं। स्टेट कलेक्टिव फार राइट टु एजुकेशन ने उत्तर प्रदेश की शिक्षा पर एक रिपोर्ट दी थी, उसके मुताबिक सरकारी स्कूलों में 39 फीसदी बच्चे और 21 फीसदी टीचर गैरहाजिर रहते हैं। जम्मू-कश्मीर में रहबर-ए-तालीम योजना के अंतर्गत नियुक्त एक अध्यापक के खिलाफ अदालत में एक याचिका दायर कर उनकी नियुक्ति को चनौती दी गई। अदालत ने 74 फीसदी हासिल करने वाले मोहम्मद इमरान खान नामक टीचर से गाय पर निबंध लिखने को कहा और चौथी कक्षा के गणित के सवाल हल करने को दिए, वह नहीं कर पाया। लखनऊ के बेसिक शिक्षा अधिकारी वीपी सिंह ने बख्शी का तालाब इलाके के इंदौरा के पूर्व माध्यमिक विद्यालय की कक्षा-5 की छात्रा गीता से अंग्रेजी में अपना नाम लिखने को कहा तो उसके हाथ ठिठक गए। इसी कक्षा की रीता हिंदी का पाठ नहीं पढ़ पाई। सरकारी स्कूलों के पांचवी कक्षा तक के तकरीबन चार फीसदी बच्चे नौ तक के अंक नहीं पहचान पाते। कक्षा एक और दो के 32 फीसदी बच्चे अक्षर या शब्द से अधिक नहीं पढ़ पाते। कक्षा पांच से आठ तक के 61 फीसदी बच्चे अंग्रेजी का एक वाक्य नहीं पढ़ पाते। कक्षा तीन से पांच तक के 56 फीसदी बच्चे कक्षा एक के स्तर का पाठ नहीं पढ़ पाते। गैरसरकारी संस्था प्रथम की वार्षिक रिपोर्ट में शिक्षा की इस बदहाली को उजागर किया गया है। यही नहीं, 


असर संस्था की ओर से कराए गए सर्वेक्षण से यह खुलासा हुआ कि उत्तर प्रदेश में पाचंवी के 56 फीसदी बच्चे हिंदी तक नहीं पढ़ पाते। यह स्थिति तब है, जब शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने पर सर्वशिक्षा अभियान के तहत तीन साल में तकरीबन सवा लाख करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। देश में केवल आठ फीसदी स्कूल ही शिक्षा के अधिकार का पालन करते हैं। उत्तर प्रदेश में 5.1 फीसदी बच्चे शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बावजूद स्कूल से दूर हैं। एक आंकडे़ के मुताबिक जो स्कूल में दाखिला ले चुके हैं, ऐसे 7.13 करोड़ बच्चों में से भी तकरीबन 3.45 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं। यह तब है, जब स्कूल को बच्चों के आकर्षण का सबब मिड-डे मील से बनाया है, उनकी पढ़ाई मुफ्त कर रखी है, उनकी किताबें और ड्रेस तक मुफ्त दिए जा रहे हैं। चिंता का सबब यह है कि आखिर सरकारी शिक्षा के प्रति लोगों का नजरिया निरंतर खराब क्यों हो रहा है। 

एक आंकडे़ के मुताबिक, वर्ष 2006 में प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में 30.3 फीसदी बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे थे। 2007 में यह आंकड़ा 51 फीसदी पहुंच गया। देश के आठ राज्यों में प्राइवेट स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की तादाद में 40-50 फीसदी इजाफा हुआ है। खोखली शिक्षा के माध्यम से आकाश छू लेने के सपनों ने शिक्षा व्यवस्था की स्थिति बदहाल कर रखी है। जितनी बच्चों को शिक्षित करने की कोशिश की गई, उन सबके परिणाम खराब रहे। बावजूद इसके हमने कोई सबक नहीं लिया। कोठारी आयोग ने बहुत पहले शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का छह प्रतिशत खर्च करने का फार्मूला सुझाया था, पर अभी भी हम इस लक्ष्य के आधे पर खड़े हैं। शिक्षा की बदहाली के लिए हमारा नजरिया तो जिम्मेदार है ही, इससे जुड़ा पूरा का पूरा तंत्र कम जवाबदेह नहीं है। संसाधन के लिहाज से देखें तो अकेले उत्तर प्रदेश में एक लाख 13 हजार प्राथमिक स्कूल हैं, लेकिन तकरीबन एक लाख पद अभी भी खाली हैं। जो टीचर हैं भी, उनमें एक लाख 70 हजार शिक्षा मित्र हैं। देश के स्तर पर यह आंकड़ा बेहद निराश करने वाला है। 13.62 लाख स्कूलों के लिए 41 लाख शिक्षक हैं, जबकि 12 लाख पद रिक्त हैं। जो हैं भी, उनमें से 8.6 लाख शिक्षक अप्रशिक्षित हैं। सरकार के इन आकड़ों को सच इसलिए माना जाना चाहिए, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय को दिया गया यह उसका हलफनामा है। इसी हलफनामे में सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया है कि 1800 से अधिक स्कूल टेंट में या पेड़ के नीचे चल रहे हैं। 24 हजार स्कूलों में भवन नहीं हैं। एक लाख से अधिक स्कूलों में पानी का प्रबंध नहीं है। शिक्षा की यह दशा-दुर्दशा और बच्चों में बढ़ते ट्यूशन के क्रेज को अगर मिलाकर शिक्षा की स्थिति जांची-परखी जाए तो तस्वीर बेहद निराश करने वाली है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्था की तस्वीर बताती है कि देश में 7.1 करोड़ बच्चे ट्यूशन ले रहे हैं। यह कुल विद्यार्थियों की संख्या का 26 फीसदी है। गरीब परिवार के ट्यूशन जाने वाले बच्चों की संख्या 30 फीसदी बैठती है। सर्वेक्षण के दौरान इस संगठन ने अभिभावकों से यह पूछा कि ट्यूशन भेजने का कारण क्या है तो 8-9 फीसदी के अभिभावकों का कहना था कि वे अपने बच्चों की बुनियाद मजबूत कर रहे हैं। मतलब साफ है कि शिक्षा न तो बुनियाद मजबूत कर पा रही है, न ही बेतहाशा पैसे खर्च करने के बाद आधारभूत संरचना खड़ी कर पा रही है। न ही प्रतिभा को पुष्पित कर पा रही है। जो बच्चे निकल रहे हैं, वे नौकरी के लायक नहीं हैं। ग्वाले का लड़का 10 वीं पास कर लेता है तो उसे दूध दुहने में शर्म महसूस होती है। पंडित का लड़का हाईस्कूल पास करते ही संस्कृत भूल जाता है। लोहार के लड़के के लिए पढ़ाई करने के बाद पुश्तैनी धंधा निरर्थक हो जाता है। हमारी शिक्षा नौकरी-रोजगार लायक नहीं रही, उसने हमें अपना पुश्तैनी काम करने लायक छोड़ा नहीं। अंक ज्ञान से ज्यादा बड़े हो गए हैं। वह भी तब, जब मिनटों में कॉपी जांचने का काम पूरा करना पड़ता है। जब अंक ही उपलब्धि का पैमाना बन जाएं तो कहीं भी किसी का टॉप कर जाना हैरत का सबब नहीं होना चाहिए। इस पर स्यापा नहीं होना चाहिए। बिहार के एक रूबी और एक सौरभ को फेल करने से इस समस्या का समाधान नहीं निकलता। पड़ताल की जाए तो लाखों सौरभ और रूबी हमारे शिक्षा तंत्र में बिखरे पड़े हैं। निजी स्कूल दुकान हो गए हैं तो सरकारी स्कूल भोजनालय हो गए हैं। सरकारें जितना पैसा प्राथमिक से लेकर माध्यमिक शिक्षा तक बच्चों के पढ़ाई जारी रखने के लिए विभिन्न योजनाओं पर खर्च करती है, अगर वह पैसा गरीबों को निजी स्कूलों में उनकी फीस के मद में और ट्यूशन के मद में दे दिया करे तो शायद शिक्षा का ज्यादा भला हो। छात्र का अधिक लाभ हो।
लेखक
योगेश मिश्र 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं) 
mishrayogesh5@gmail.com

 

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