स्कूलों का दायित्व है कि माता-पिता को याद दिलाएं कि बच्चे की भावनाओं, संकल्पनाओं तथा जिज्ञासा को पनपने देना ही उसके जीवन में उनका सबसे. बड़ा योगदान हो सकता है|

पिछले महीने भारत की कोचिंग राजधानी कोटा से दो आत्महत्याओं की दर्दनाक खबरें आईं। एक बच्ची ने जेईई की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आत्महत्या कर ली। वह वे विषय अगले चार साल नहीं पढ़ना चाहती थी जिसमें परीक्षा तो उसने पास की मगर उसकी उनमें रुचि नहीं थी। आत्महत्या करने वाली दूसरी लड़की ने कोचिंग संस्थानों को बंद करने की अपील लिखी थी। बच्चों की आत्महत्याओं की खबरें बोर्ड के परीक्षा परिणामों के बाद आती रहती हैं। अब इनमें कोचिंग संस्थानों में भेजे गए किशोरों की आत्महत्याएं भी जुड़ गई हैं। मीडिया में शिक्षा से संबंधित जानकारी बहुधा स्कूलों की दयनीय स्थिति, अध्यापकों की कमी और अनुपस्थिति, परीक्षा में नकल, ट्यूशन-कोचिंग, निजीकरण इत्यादि से जुड़ी होती है। इधर कोचिंग संस्थानों में लगातार बढ़ रही आत्महत्याएं लोगों को विचलित कर रहीं हैं। शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करती है। 21वीं सदी में यह सर्वमान्य है कि जीवन निर्वाह के लिए शिक्षा हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है। लड़के और लड़कियों के संबंध में जो अंतर समाज पहले मानता था वह भी कुछ समुदायों को छोड़कर लगभग समाप्त हो रहा है।  

 शिक्षा की आवश्यकता की जो समझ पचास साल पहले थी वह अब बदल चुकी है। समाज के हर तबके के लोग अब केवल शिक्षा ही नहीं चाहते हैं, वे अच्छी शिक्षा के साथ-साथ उपयोगी कौशलों को सिखाने की भी मांग करते हैं। माता-पिता के समक्ष यह प्रश्न प्रारंभिक शिक्षा के प्रारंभ होने के पहले से ही उठ जाता है कि शिक्षा पूरी करने के बाद बच्चों का जीवन कैसा होगा? क्या वे घोर प्रतिस्पर्धा के इस युग में अपना स्थान बना पाएंगे? इस सोच के अनेक परिणाम सामने आते हैं, जो बच्चों को अनेक तनाव तथा दबाव सहने को विवश कर देते हैं। 

सबसे अधिक दिखाई देने वाले प्रभाव निजी स्कूलों में प्रवेश के लिए होने वाली दौड़ कही जा सकती है। इसके बाद ट्यूशन तथा कोचिंग का नंबर आता है। छोटे-छोटे बच्चे प्रात:काल छह बजे स्कूल की बस पर पहुंचने को बाध्य किए जाते हैं। वे चार बजे तक घर वापस आते हैं और उसके बाद ट्यूशन! इन स्कूलों के पालकों ने कभी यह मांग नहीं की कि स्कूल का समय बच्चों की सुविधा तथा बचपन की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निश्चित किया जाए। कई स्कूलों के प्राचार्यो से व्यक्तिगत बातचीत में यह उभर कर आया कि कठिनाई स्कूलों को नहीं, मगर माता-पिता तथा स्कूल के अध्यापकों को होगी यदि स्कूल प्रारंभ होने का समय नौ या दस बजे प्रात: का कर दिया जाए। जब कोई समाज इस प्रकार से अपने कार्यकलाप निर्धारित करता है तब वह अपने ही बच्चों के साथ न्याय करने में पीछे रह जाता है। यहां एक और महत्वपूर्ण पक्ष उभरता है।

यह सब पढ़े-लिखे सामान्य रूप से खाते-पीते वर्ग के लोग होते हैं जो बच्चों से ऊंचे से ऊंचे परीक्षा परिणामों की अपेक्षा रखते हैं। इनमें एक बड़ा प्रतिशत उन लोगों का होता है जो कहते हैं कि बच्चे उनकी वे सभी आकांक्षाएं पूरी करें जो वह स्वयं नहीं कर पाए थे। आज जिस ढंग से बच्चों के एक बड़े प्रतिशत को मातृभाषा के माध्यम से दूर कर दिया जाता है वह अपने आप में उनके साथ अन्याय ही है। बच्चे का यह मौलिक अधिकार है कि उसे प्रारंभिक शिक्षा उसकी अपनी मातृभाषा में ही मिले।
 निजी स्कूल अंग्रेजी माध्यम की ललक को अपने लाभ के लिए भुना रहे हैं। यह निर्विवाद है कि विश्व के अग्रणी देश केवल अच्छी शिक्षा देकर ही आगे बढ़े हैं। उन्होंने पहले शिक्षा का सार्वजनीकरण किया और ध्यान रखा कि उसकी गुणवत्ता में कमी न आने पाए। इसके साथ ही साथ वहां बच्चे की रुचियों को जानने-पहचानने का प्रयास स्कूल तथा माता-पिता ने मिलकर किया। स्कूलों ने माता-पिता को इस संबंध में आवश्यक जानकारियां दीं कि वे बच्चों को अपनी मनोकामना पूर्ति का साधन न समझें तथा इन्हें अपनी रुचि की दिशा में आगे बढ़ने दें। यहां पर स्कूल का दायित्व उभरता है कि माता-पिता को याद दिलाएं कि बच्चे की भावनाओं, संकल्पनाओं तथा जिज्ञासा को पनपने देना ही उसके जीवन में उनका सबसे बड़ा योगदान हो सकता है। इसके लिए स्कूलों को समय निकालना पड़ेगा। अपने प्रत्येक अध्यापक को उचित प्रशिक्षण देने की व्यवस्था करनी होगी। प्रसिद्ध साहित्यकार आरके नारायण का लेखन बच्चों की संवेदनाओं तथा भावनाओं की सूक्ष्म समझ तथा उसकी मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति के लिए सराहा जाता रहा है। ‘स्वामी और उसके दोस्त’ पुस्तक में स्वामी के पिता के यह पूछने पर कि वह परीक्षा के बाद पढ़ाई क्यों नहीं कर रहा है, उसकी पुस्तकों पर धूल क्यों जम रही है, स्वामी का उत्तर है-क्या मुझे तब भी पढ़ना है जब स्कूल बंद है। आगे वह कहता है, पिताजी क्या जब स्कूल बंद हो, परीक्षा समाप्त हो गई हो तब भी मुङो पढ़ना होगा? पिता अपेक्षित उत्तर ही देते हैं। वह उसे एक प्रश्न हल करने को देते हैं। श्याम के पास दस आम हैं और इन्हें बेचकर वह पंद्रह आने कमाना चाहता है? कृष्ण को चार आम चाहिए? उसे इनके लिए कितने पैसे देने होंगे? स्वामी के जेहन में जो चित्र उभरते हैं वे सूखे गणित की संख्याओं से बहुत अधिक विस्तार लिए होते हैं। आम का नाम सुनकर उसके मुंह में पानी भर आता है। काफी देर बाद जब पिता पूछते हैं कि प्रश्न हल हुआ या नहीं तो स्वामी का उत्तर होता है कि आम पके थे या कच्चे? अंतत वह प्रश्न का हल खोज लेता है, मगर पिता को बताने के बाद फूट-फूट कर रोने लगता है। हर अध्यापक के समक्ष ऐसे प्रकरण आते ही रहते हैं। यदि वह इनका महत्व समझ सके तो बच्चे का ही नहीं उसका भी सीखना आगे बढ़ता है। यदि ऐसा उत्तर अध्यापक सुनता है तो वह उसे सही ढंग से तभी समझ सकता है जब अपने को बच्चे की जगह रख कर सोच सके। जिज्ञासा तो अध्यापक के अंत:करण में जीवित रहनी ही चाहिए तभी वह अपने कर्तव्य निभा सकता है।

लेखक

जगमोहन सिंह राजपूत 

(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)



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