
हालांकि सरकारी स्कूल के शिक्षक की शैक्षिक योग्यता व प्रशिक्षण और वेतन किसी भी नामी-गिरामी स्कूल के शिक्षक के बीस ही होते हैं, इसके बावजूद सरकारी स्कूल के शिक्षक का प्रभामंडल निजी स्कूलों की तुलना में फीका होता है। इसके मुख्य दो कारण हैं- सरकारी स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव व दूसरा सरकारी शिक्षक की ड्यूटी में शिक्षण के अलावा बहुत कुछ होना। मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के कर्री कस्बे के हाई स्कूल में बीते तीन सालों से गणित का केवल एक ही शिक्षक है और उसके जिम्मे है कक्षा नौ व 10 के कुल 428 छात्र। क्लास रूम इतने छोटे हैं कि 50 से ज्यादा बच्चे आ नहीं सकते और शिक्षक हर दिन पांच से ज्यादा पीरियड पढ़ा नहीं सकता।
जाहिर है कि बड़ी संख्या में बच्चे गणित शिक्षण से अछूते रह जाते
हैं। जिला मुख्यालय में बैठे लोग भी जानते हैं कि उस शाला का अच्छा रिजल्ट
महज नकल के भरोसे आता है। ऐसे ‘कर्री’ देश के हर जिले, राज्य में
सैकड़ों-हजारों में हैं। वहीं समाज के एक वर्ग द्वारा गरियाए जा रहे निजी
स्कूलों में कम से कम यह हालात तो नहीं हैं। यह बेहद आदर्श स्थिति है कि
देश में समूची स्कूली शिक्षा का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए व यूरोप जैसे
विकसित देशों की तरह आवास के निर्धारित दायरे में रहने वाले बच्चे का
निर्धारित स्कूल में जाना अनिवार्य हो। कोई भी स्कूल निजी नहीं होगा व सभी
जगह एकसमान टेबल-कुर्सी, भवन, पेयजल, शौचालय, पुस्तकें आदि होंगी। सभी जगह
दिन का भोजन भी स्कूल में ही होगा। डेढ़ साल पहले शायद अदालत इस तथ्य से
वाकिफ होगी ही कि सुदूर ग्रामीण अंचलों की बात दूर की है, देश की राजधानी
दिल्ली में ही कई ऐसे सरकारी स्कूल हैं, जहां ब्लैक बोर्ड व पहुँच-मार्ग या
भवन जैसी मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं। अदालत को यह भी पता होगा कि उत्तर
प्रदेश में ही पैंतीस प्रतिशत से ज्यादा शिक्षकों के पद रिक्त हैं और यदि
सभी स्वीकृत पद पर शिक्षक रख भी दिए जाएं तो सरकारी स्कूल में शिक्षक-छात्र
अनुपात औसतन एक शिक्षक पर 110 बच्चों का होगा। यह विडंबना है कि हमारी
व्यवस्था इस बात को नहीं समझ पा रही है कि पढ़ाई या स्कूल इस्तेमाल लायक
सूचना देने का जरिया नहीं हैं, वहां जो कुछ भी होता है, सीखा जाता है, उसे
समझना व व्यावहारिक बनाना अनिवार्य है। हम स्कूलों में भर्ती के बड़े अभियान
चला रहे हैं और फिर भी कई करोड़ बच्चों से स्कूल दूर हैं। जो स्कूल में
भर्ती हैं, उनमें से भी कई लाख बच्चे भले ही कुछ प्रमाण पत्र पाकर, कुछ
कक्षाओं में उर्तीण दर्ज हों, लेकिन हकीकत में ज्ञान से दूर हैं। ऐसे में
जो अभिभावक खर्च वहन कर सकते हैं, उन्हें उन स्कूलों में अपने बच्चे को
भेजने के लिए बाध्य करना, जोकि सरकारी सहायता के कारण उन लोगों की
ज्ञान-स्थली हैं, जो समाज के कमजोर सामाजिक-आर्थिक वर्ग से आते हैं, असल
में जरूरतमंदों का हक मारना होगा।
यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि केंद्रीय विद्यालय, नवोदय, सैनिक स्कूल ,सर्वोदय या दिल्ली के प्रतिभा विकास विद्यालय सहित कई हजार ऐसे सरकारी स्कूल हैं, जहां बच्चों के प्रवेश के लिए पब्लिक स्कूल से ज्यादा मारामारी होती है। जाहिर है कि मध्य वर्ग को परहेज सरकारी स्कूल से नहीं, बल्कि वहां की अव्यवस्था और गैर-शैक्षिक परिवेश से है। विडंबना है कि सरकार के लिए भी सरकारी स्कूल का शिक्षक बच्चों का मार्गदर्शक नहीं होता, उसके बनिस्पत वह विभिन्न सरकारी योजनाओं का वाहक या प्रचारक होता है। उसमें चुनाव से लेकर जनगणना तक के कार्य, राशन कार्ड से लेकर पोलिया की दवा पिलाने व कई अन्य कार्य भी शामिल हैं। फिर आंकड़ों में एक शिक्षान्मुखी-कल्याणकारी राज्य की तस्वीर बताने के लिए नए खुले स्कूल, वहां पढ़ने वाले बच्चों की संख्या, मिड डे मील का ब्यौरा बताने का माध्यम भी स्कूल या शिक्षक ही है।
काश स्कूल को केवल स्कूल रहने दिया
जाता व एक नियोजित येाजना के तहत स्कूलों की मूलभूत सुविधाएं विकसित करने
का कार्य होता। गौरतलब है कि देश में हर साल कोई एक करोड़ चालीस लाख बच्चे
हायर सेकेंडरी पास करते हैं, लेकिन कॉलेज तक जाने वाले महज 20 लाख होते
हैं। यदि प्राथमिक शिक्षा से कॉलेज तक की संस्थाओं का पिरामिड देखें तो साफ
होता है कि उत्तरोतर उनकी संख्या कम होती जाती है। केवल संख्या में ही
नहीं गुणवत्ता, उपलब्धता और व्यय में भी। गांव-कस्बों में ऐसे लोग बड़ी
संख्या में मिल जाते हैं, जो सरकारी स्कूलों की अव्यवस्था और तंगहाली से
निराश हो कर अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजते हैं, हालांकि उनकी जेब
इसके लिए साथ नहीं देती है। दुखद यह भी है कि शिक्षा का असल उद्देश्य महज
नौकरी पाना, वह भी सरकारी नौकरी पाना बन कर रह गया है। जबकि असल में शिक्षा
का इरादा एक बेहतर नागरिक बनाना होता है, जो अपने कर्तव्य व अधिकारों के
बारे में जागरूक हो, जो अपने जीवन-स्तर को स्वच्छता-स्वास्थ्य-संप्रेषण की
दृष्टि से बेहतर बनाने के प्रयास स्वयं करे। यही नहीं वह अपने पारंपरिक
रोजगार या जीवकोपार्जन के तरीके को विभिन्न शासकीय योजनओं व वैज्ञानिक
दृष्टिकोण से संपन्न व समृद्ध करे। विडंबना है कि गांव के सरकारी स्कूल से
हायर सेकेंडरी पास बच्चा बैंक में पैसा जमा करने की पर्ची भरने में झिझकता
है। इसका असल कारण उसके स्कूल के परिवेश में ही उन तत्वों की कमी होना है,
जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसे शिक्षित किया जा रहा है।यह देश के लिए
गर्व की बात है कि समाज का बड़ा वर्ग अब पढ़ाई का महत्व समझ रहा है, लोग
अपनी बच्चियों को भी स्कूल भेज रहे हैं, गांवों में विकास की परिभाषा में
स्कूल का होना प्राथमिकता पर है। ऐसे में स्कूलों में जरूरतों व शैक्षिक
गुणवत्ता पर काम कर के सरकारी स्कूलों का सम्मान वापिस पाया जा सकता है। यह
बात जान लें कि किसी को जबरिया उन स्कूलों में भेजने का आदेश एक तो उन
लोगों के हक पर संपन्न लोगों के अनाधिकार प्रवेश होंगे, जिनकी पहली पीढ़ी
स्कूल की तरफ जा रही है। साथ ही शिक्षा के विस्तार की योजना पर भी इसका
विपरीत असर होगा। निजी स्कूलों की मनमानी पर रोक हो, सरकारी स्कूलों में
शिक्षा का स्तर बढ़े, स्कूल के शिक्षक की प्राथमिकता केवल पठन-पाठन हो,
इसके लिए एक सशक्त तंत्र आवश्यक है, न कि अफसर, नेताओं के बच्चों का सरकारी
स्कूल में प्रवेश की अनिवार्यता। लेकिन यह भी अनिवार्य है कि धीरे-धीरे
समाज के ही संपन्न लोग किसी निजी स्कूल में लाखों का डोनेशन देकर अपने
बच्चे को भर्ती करवाने के बनिस्पत अपने करीब के सरकारी स्कूल में मूलभूत
सुविधाएं विकसित करने की पहल करें और फिर अपने बच्चों को वहां भर्ती
करवाएं।
लेखक
pc7001010@gmail.com
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