रीतेश जोशी-काल्पनिक नाम-की खुद की मेडिकल ट्रांसक्रिप्शन की एक कंपनी है। विवाह के कई वर्ष बाद उनकी जब बेटी हुई तो उन्हें लगा कि अब तो वह व्यापार को समय दे ही नहीं सकते। उनकी पत्नी भी उनके साथ इसी कारोबार में थीं। दोनों ने मिलकर फैसला किया कि अब वे घर से ही काम करेंगे और अपना पूरा समय बच्ची को ही देंगे। इसका निहितार्थ यह भी था कि वे बच्ची को स्कूल नहीं भेजेंगे! उनके आसपास के लोगों के लिए, उनके परिवार के लिए यह एक क्रांतिकारी फैसला था, पर वे इस पर टिके रहे। पिता ने अपना समूचा दिन बच्चे को सौंप दिया और रात को चार-पांच घंटे काम करने लगे और जब वे दिन में बच्ची के साथ रहते, उस समय उनकी पत्नी अपने कारोबार पर थोड़ा समय देती। अपनी कंपनी के कारोबार को उन्होंने अस्सी फीसदी से ज्यादा घटा दिया और पूरी तरह लग गए अपनी बच्ची की परवरिश में।करीब-करीब यही काम किया एक मित्र ने जो कैंसर से पीड़ित रोगियों की सेवा करने वाले एक एनजीओ में काम करती थीं। उनके पति एक प्रतिष्ठित बहुराष्ट्रीय कंपनी में बड़े अधिकारी थे। एक दिन घर लौटने पर मां ने देखा कि उनकी बेटी उदास बैठी है। उसने उसके पास बैठकर प्यार से पूछा- क्या हुआ बेटू? मां, स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता- बेटी ने लगभग रोते हुए जवाब दिया। मां भीतर तक हिल गई। कैंसर के रोगियों के साथ काम करते हुए उसने जान लिया था कि जीवन कितना कीमती और कितना सीमित है। और उसकी खुद की बेटी उदासी में जिंदगी बिताए! उससे यह बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने अपने पति से कहा कि वह अपनी बच्ची को स्कूल नहीं भेजेगी। पति के लिए यह एक सदमे जैसा था। इतने बड़े अधिकारी की बेटी स्कूल न जाए, यह कैसे हो सकता है! उसे लगभग छह महीने लगे अपने पति को समझाने में और आखिरकार उन दोनों ने यही फैसला किया कि वे अपनी बच्ची को अब स्कूल नहीं भेजेंगे। बच्ची की मां ने अपनी नौकरी छोड़ दी और घर पर ही बच्ची को पूरी तरह पढ़ाने लगी। जब बच्ची छठी कक्षा में जाने लायक हुई तो उसने बेटी से पूछा- क्या अब तुम स्कूल जाना चाहोगी? बेटी ने फिर से नकारात्मक जवाब दिया। मां ने यही सवाल दसवीं और फिर बारहवीं में भी दोहराया और बच्ची लगातार स्कूल जाने से इनकार करती रही। बारहवीं में बच्ची ने गणित के अंतरराष्ट्रीय ओलंपियाड में हिस्सा लिया और पहले तीन बच्चों में उसका नाम आ गया। अमेरिका के एक विश्वविद्यालय ने उसे छात्रवृत्ति दी और अपनी बाकी पढ़ाई उसने वहीं से पूरी की।

बच्चों की होम स्कूलिंग यानी घर पर ही बच्चों की पढ़ाई की धारणा अब देश के बड़े शहरों में लोकप्रिय हो रही है। ये वही अभिभावक कर रहे हैं जिन्हें यह महसूस होता है कि बच्चों की परवरिश और पढ़ाई-लिखाई उनकी खुद की देखरेख में ही सबसे अच्छी तरह हो सकती है। पुणे होम स्कूलर्स, इंडिया होम स्कूलर्सनिंग, स्वशिक्षण आदि ऐसी कुछ प्रमुख संस्थाए हैं जो इस संबंध में विस्तार से जानकारी दे सकती हैं। फेसबुक पर भी इंडिया ग्रुप फॉर होम स्कूलर्स एंड अल्टरनेटिव एजुकेशन नाम का एक समूह है और भारत में बच्चों को घर में पढ़ाने से संबंधित जानकारियां यहां उपलब्ध हैं। इन इंटरनेट समूहों पर आप कई दिलचस्प बातें सीखेंगे और यह जान पाएंगे कि क्यों माता-पिता अपने बच्चों को घर पर पढ़ाना बेहतर समझते हैं। 

उदाहरण के लिए, एक पिता ने यह देखा कि उनका बच्चा खेलने में रुचि रखता है पर उसके पास इसके लिए वक्त नहीं। उसने अपने बच्चे को स्कूल से हटा लिया और उसने यह पाया कि जितनी पढ़ाई बच्चा पूरे दिन स्कूल में कर पाता है, उतनी तो घर में सिर्फ तीन घंटे में ही संभव है। अब बच्चे को अलग से रोज तीन घंटे का समय क्रिकेट खेलने के लिए भी मिल गया और वह अच्छी तरह पढ़ भी पा रहा है। जिन बच्चों को सामान्य तरीके से पढ़ने-लिखने में कोई मनोवैज्ञानिक समस्या हो, उनके लिए भी घर से पढ़ना बेहतर साबित हो सकता है। घर में पढ़ने वाला बच्चा सही समय आने पर दसवीं की परीक्षा नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपन स्कूलिंग और इंटरनेशनल जनरल सर्टिफिकेट ऑफ सेकंेडरी एजुकेशन के जरिए दे सकता है। इसकी डिग्री समूचे विश्व में मान्य है। घर पर पढ़ाने का एक बड़ा फायदा यह भी है कि बच्चा किसी कठोर समय सूची के साथ बंधा हुआ महसूस नहीं करता। वह घर में चार से छह घंटे तक पढ़ सकता है और बाकी समय वह अपनी रुचि का काम कर सकता है, खेल सकता है और फिर बच्चों के साथ समय बिता सकता है। पढ़ाई के ये छह घंटे भी वह एक साथ या अलग-अलग हिस्सों में बिता सकता है। यदि ज्यादा से ज्यादा अभिभावक इस तरह की व्यवस्था में रुचि लें तो शहरों के स्कूलों में अभी दिखने वाली भीड़ और अफरातफरी कम हो सकती है। परंपरागत शिक्षा व्यवस्था में भरोसा रखने वाले और शिक्षा को व्यापार में बदलने वाले लोग इसका विरोध भी करेंगे, क्योंकि इससे उनकी दुकान और कारोबार पर असर पड़ेगा। इसके लिए यह भी जरूरी है कि माता-पिता बच्चों को पूरा समय दें। बच्चों को जन्म देना सिर्फ एक आदत, एक परंपरा भर नहीं, बल्कि पूरी जिम्मेदारी का काम है और खासकर उन्हें शिक्षित करने के लिए तो माता-पिता को बहुत ही ज्यादा जिम्मेदार होना होगा। पर क्या यह जरूरी नहीं। एक भीड़ भरे, सिर्फ तकनीकी जानकारी बांटते शिक्षकों के बीच बच्चों को फेंक देने से तो बेहतर ही है कि उन्हें स्नेह के साथ उनपर कोई दबाव बनाए बगैर घर पर ही उन्हें पढ़ाया जाए। यह सही है कि कई आर्थिक और सामाजिक दबाव माता-पिता पर भी होते हैं और उन्हें ये कारण ऐसा करने से रोक सकते हैं पर फिर भी इसकी संभावना की पड़ताल तो जरूर की जानी चाहिए। सारत: यह एक बेहतर और ज्यादा स्वस्थ तरीका साबित होगा। शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन की बात होती है तो इन दिनों हमेशा फिनलैंड का जिक्र होता है। वहां शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ही बुनियादी परिवर्तन किए गए हैं। वहां के शिक्षा मंत्री ने हाल ही में अपनी बातों को बड़े संक्षेप में यह कहकर बताया कि बच्चों को खेल पसंद है। फिनलैंड में कोई भी स्कूल सुबह नौ बजे से पहले नहीं खुलता और कभी भी दो बजे के बाद नहीं चलता। वहां स्कूलों को घर की तरह ही बनाया गया है। घरों की तरह वहां बेडरूम हैं, रसोईघर है और ड्राइंग रूम है। बच्चों को ऐसा महसूस नहीं होता कि वे किसी अलग-सी जगह आ गए हैं। सात या आठ वर्ष के पहले किसी बच्चे को स्कूल नहीं भेजा जाता। बच्चा वही पढ़ता है जिसमें उसकी रुचि हो और एक शिक्षक उतना ही कमा लेता है, जितना कोई सरकारी डॉक्टर या वकील! हमारे देश में इस तरह के क्रांतिकारी परिवर्तन हो सकता है कि अभी संभव न हो पाए, क्योंकि यहां एक विराट आबादी का बहुत बड़ा दबाव है और शिक्षक को आम तौर पर बड़े हल्के में देखने की संस्कृति है। पर जिन वर्गों में यह संभव है, भले ही ऐसा कुछ शहरों में ही हो, कुछ लोगों के बीच ही हो, यह एक बड़े परिवर्तन की शुरुआत हो सकती है। 

स्कूलों का आतंक अधिकतर बच्चे बर्दाश्त नहीं कर पाते और बहुत ही मजबूरी में वे स्कूल जाते हैं। उनके जीवन की शुरुआत ही खुशी और सुरक्षा के भाव के साथ हो तो बेहतर है। इसे बड़े स्तर पर मान्यता मिलनी चाहिए और इसका एक कीमती पहलू यह भी होगा कि शिक्षा पर सरकारी नियंत्रण थोड़ा ही सही, कम होगा और बच्चों को जबरन थोपी जाने वाली विचारधारा और धर्म से जुड़ी किताबें नहीं पढ़नी पड़ेंगी। अभिभावकों के लिए भी जीवन भर पढ़ने और सीखने का यह बढि़या अवसर होगा।

लेखक
चैतन्य नागर 
chaitanyanagar@gmail.com



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