किसी भी समाज के संचालन और उन्नति के लिए शिक्षा धुरी का काम करती है। आधुनिक सामाजिक संस्था के रूप में शिक्षा न केवल समाज की जरूरत के मुताबिक आवश्यक मानव पूंजी का निर्माण करती है, बल्कि वह समाज के मानस को भी रचती-गढ़ती है। समाज के मानस के निर्माण की एक राह शिक्षा द्वारा बनाई जाती है। गौर से देखें तो शिक्षा-कर्म के सहारे बाल्यावस्था से ही उचित-अनुचित, सही-गलत, श्रेष्ठ-निकृष्ट आदि की विभिन्न श्रेणियों में सोच का संस्कार बनने लगता है। यदि इन सबको मिला दें तो यह भी कह सकते हैं कि शिक्षा द्वारा व्यक्ति के एक समग्र चरित्र का निर्माण करते हुए समाज की आधारशिला रखी जाती है। चरित्र-निर्माण की इस प्रक्रिया में मुख्य रूप से स्मृति, अनुभव और सृजन इन तीन प्रक्रियाओं का सहयोग मिलता है। स्मृति अपने समाज की ज्ञान परंपरा से आती है, जो तमाम कसौटियों पर कसी जाती हुई परवाह के रूप में निरंतरता के साथ वर्तमान तक पहुंचती है। यह वह अतीत है, जो जीवित है, व्यतीत नहीं। भारत जैसे विशाल देश के लिए स्मृति अनेक रूपों में हजारों वर्षो से सतत प्रवाहित है। ग्रंथों और शिलालेखों के साथ वाचिक परंपरा में भी स्मृति संजोई रहती है। अनुभव की दुनिया हमें अपने ज्ञानेंद्रियों की सहायता से वस्तुओं और घटनाओं की ठोस उपस्थिति से जोड़ती है, और उनकी विशेषताओं से परिचित कराती है। चूंकि यह हमारा अपना अनुभव या स्वानुभव होता है। अत: अंत:करण की साक्षी ही पर्याप्त होती है। सामान्यत: इसके लिए किसी अतिरिक्त प्रमाण की जरूरत नहीं पड़ती। यह जरूर है कि अनुभव की दुनिया के लिए भी स्मृति का आधार जरूरी होता है अन्यथा चीजों की पहचान ही संभव न हो सकेगी। इस तरह से सर्वथाशुद्ध अनुभव, जो पूर्व-ज्ञान से मुक्त हो केवल कल्पित ही होगा। हालांकि कल्पना भी भाषा या अवाचिक श्रेणियों की दरकार करेगी ही करेगी। अनुभव का होना ही पूर्वानुभव की अपेक्षा करता है। अत: ज्ञान की कोई परंपरा एक अनिवार्यता हो जाती है। सृजन कर्म हमारे नवीन और मौलिक उत्पाद द्वारा जगत को समृद्ध करने वाली प्रक्रिया है। आज सृजन व्यक्ति की श्रेष्ठता का प्रमाण बन चला है। कहना न होगा कि आविष्कार, खोज और गवेषणा से हमारे जीवन में, हमारी दुनिया में सतत बदलाव आए हैं। सभ्यता और संस्कृति की यात्रा के लिए सृजन एक पाथेय का काम करता है। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हमारी सृजनधर्मी वृत्ति से ही उपलब्धियां मिलती हैं। व्यक्ति की प्रतिभा और प्रयत्न मिल कर अपूर्व रच देने में सक्षम हो जाते हैं पर इनका युग्म संदर्भ के सहयोग से ही संभव होता है।

शिक्षा के अनेक विशेषज्ञों ने आगाह किया है कि जिस मॉडल को ले कर हम आगे बढ़ते रहे हैं, वह दोषपूर्ण है। आम तौर पर शिक्षा को समकालीन संदर्भ में ज्ञान, कौशल और विवेक के निर्माण से जोड़ कर देखा जाता है। औपचारिक शिक्षा के संदर्भ में इस कार्य को संस्थागत रूप दे दिया जाता है। इसे एक संरचना या ढांचे में बांध रखना सुभीते की बात होती है और एक हद तक संरचित रूप देना हमें एक रूटीन में बांध कर उसके लिए अभ्यस्त बना देता है। तब चीजें आसान हो जाती हैं, और अनायास होने लगती हैं। व्यवस्था चीजों को सीखने में सहायक हो सकती है पर अक्सर लोग यही महसूस करते हैं कि संरचना इतनी हावी हो जाती है कि शिक्षा अपने मूल सरोकार से भटक जाती है। परीक्षा में नम्बर लाना और डिग्री पाना ही परीक्षा की इतिश्री बन जाता है। 

उत्सुकता और सृजन, प्रश्नाकुलता और गवेषणा, खोज और आविष्कार पिछड़ते जा रहे हैं। किसी भी अच्छे शिक्षा संस्थान को उत्कंठा और खोजबीन का अवसर देना चाहिए। छात्रों की स्वाभाविक उत्सुकता और उनकी ज्ञान की पिपासा को बुझाने के लिए अध्यापकों का सहयोग जरूरी है। इसका क्षेत्र विस्तृत कर छात्रों की सीखने की जरूरतों को पूरा किया जा सकता है। सिद्धांत और उसके उपयोग का अवसर मिलना चाहिए। खुद करके देखना और सीखना तथा हर एक छात्र की निजी सर्जनात्मकता को प्रोत्साहित करना जरूरी है। सीखना कार्य है, और कार्य करना अपने आप में महत्त्वपूर्ण होता है। कार्य का परिणाम पूर्व निश्चित नहीं होता है। सीखने के अवसर सुनम्य या लचीले होने चाहिए। ज्ञान पाने का आनंद अनुभव हो। ज्ञान हमारे जीवन के हर कोने में पसरा है। आज के तकनीकी कोलाहल वाले जीवन परिवेश में यदि शिक्षा उसे खोजने, पाने और जतन करने की उत्सुकता जगा पाती है, तो निश्चित ही यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। 

लेखक
गिरीश्वर मिश्र

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