स्कूली बच्चों के एक कार्यक्रम में शामिल होने का अवसर मिला। बच्चे
प्रतिष्ठित कवियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। मंच पर बच्चों ने लिबास,
हावभाव, उच्चारण की दृष्टि से वही भूमिका निभाने का सार्थक प्रयास, जिस
किरदार को निभाने की
जिम्मेदारी उन्हें दी गई थी। रचयिता ने जिस रस में अपनी रचना रची थी,
बच्चों ने उसी के अनुरूप उसे मंचित भी किया। कार्यक्रम का आयोजन करने वाले,
बच्चों को तैयार कर
यहां तक लाने वाले और खुद वह बच्चे ढेर सारी बधाई के पात्र हैं।
कविताओं का चयन, उसके लिए बच्चों को छांटना और उन्हें परफॉर्म करने लायक
बनाना आसान नहीं होता। सामाजिक सरोकारों का संदेश देती लंबी कविताएं और हिंदी के कठिन शब्द कंठस्थ करना बच्चों के लिए चुनौतीपूर्ण होता है। दर्शकों
से भरे सभागार में बच्चों ने बेझिझक सस्वर न केवल पाठ किया, बल्कि शब्दों
के अनुसार भाव भी प्रदर्शित किए।
कुल मिलाकर आयोजन बहुत ही
सुंदर बन पड़ा। प्रतियोगिता इतनी
कांटे की थी कि निर्णायकों को भी
नंबर देने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। आखिर एक दिन या दो दिन
की तैयारी पर तो ऐसा परिणाम नहीं आया होगा। बिलकुल सही, कुछ दिनों के
अभ्यास से ऐसे परिणाम की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। कई दिनों की मेहनत लगी
होगी इसमें। सिखाने वाले शिक्षक-शिक्षिकाएं, सीखने वाले
बच्चे, यहां तक कि उनकी तैयारी में शामिल सहायक स्टाफ की कड़ी मेहनत रही
होगी इसके पीछे। एक-एक बच्चे को उसके स्वभाव, रुचि के अनुरूप ही कवि का
दायित्व
दिया गया होगा। फिर कविता याद
कराई गई होगी, तब चेहरे के भाव
और प्रत्येक शब्द का उतार-चढ़ाव बताया गया होगा और उसके
बाद सुर, लय और ताल पर ध्यान दिया गया होगा। एक स्कूल ने पांच बच्चों पर यह
मेहनत की होगी, हो सकता है कुछ बच्चे बैकअप के लिए भी तैयार किए गए हों। एक
छोटी सी प्रतियोगिता के लिए इतनी तैयारी आवश्यक होती है तो जीवन की
प्रतियोगिता में सफल बनाने के लिए बच्चों पर कितनी मेहनत करनी जरूरी होगी।
इस वातविकता को आसानी से समझा और महसूस किया जा सकता है। आज की शिक्षा
व्यवथा में ऐसा हो पा रहा है क्या, नहीं न। जबकि ऐसा किया जाना आज की जरूरत
है। हर बच्चे को विषय ज्ञान देने और समाज की व्यवहारिकताओं से निपटने के
लिए तैयार करने के दौरान हमें ऐसी ही मेहनत करनी होगी। कोशिश
करनी होगी कि हर बच्चे को उसकी रुचि तथा प्रतिभा के अनुरूप आगे पढ़ने तथा
बढ़ने का अवसर मिले। समय के साथ हमारी शिक्षा प्रणाली बदली ही नहीं और न
उसमें भारतीय परिवेश का समावेश करने की कोशिश की गई। जिस समय जैसी परेशानी
सामने आई, उसका अध्ययन करने को कई कमेटियां बनाई गईं। उनकी रिपोर्टें भी
आईं, याद आ गया तो लागू कर दी, नहीं तो यूं ही ठंडे बस्ते में डाल दिया।
ब्रिटिश शासनकाल के शिक्षा ढांचे को अब तक ढोया जा रहा है। एक नई दीर्घकालीन शिक्षा नीति बनाए जाने की नितांत आवश्यकता है। बच्चों को क्या-क्या पढ़ाया जाए, किस कक्षा में पढ़ाया जाए, इस पर विचार करना होगा। पाठ्यक्रम ऐसे डिजाइन किया जाए कि 15-16 साल की उम्र तक बुनियादी जानकारी मिल जाए। इतना बोध हो जाए कि इस तर तक पहुंचने के बाद वह आकलन कर सके कि उसके भीतर कितना क्या करने की क्षमता है? उसे अब किस दिशा में जाना चाहिए। इस कार्य में स्कूल, शिक्षक, अभिभावक एक सपोर्ट स्टाफ की भूमिका में नजर आएं। तब हमारी शिक्षा व्यवथा सार्थक होगी।
बच्चे अपनी-अपनी रुचि के क्षेत्र में
सफलता के झंडे गाड़ सकेंगे, तब योग्य नागरिक मिल सकेंगे। ऐसा होने पर ही हम
अपने देश को दुनिया में नंबर एक पोजीशन पर खड़ा देख सकेंगे।
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