शिक्षा के कमाऊ धंधा बन जाने से शिक्षक की कोई गरिमा नहीं रह गई है


आज शिक्षक दिवस के मौके पर शिक्षकों का गुणगान होगा। शिक्षण को महान पेशा बताया जाएगा। यह सब रस्म अदायगी की तरह होगा और कल हम सब कुछ भूल जाएंगे। सवाल है कि क्या वाकई हमारे देश में शिक्षा और शिक्षकों का सम्मान है? अब अध्यापक कौन बन रहा है? अगर आप किसी शहर या महानगर में रहते हैं तो आप पाएंगे कि आपके आसपास रहने वाले अड़ोसी-पड़ोसी तमाम क्षेत्रों में नौकरी कर रहे हैं, पर वे अध्यापक नहीं हैं। स्कूल का मास्टरजी बनने को लेकर मानो सारे समाज में एक प्रकार की विरक्ति आ गई है। मेधावी नौजवान अध्यापक बनने के बजाय प्राइवेट सेक्टर की छोटी-मोटी नौकरी करना पसंद करने लगे हैं।

अखबारों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों का अध्ययन कर लीजिए। उनमें अध्यापकों के विज्ञापन आपको बेहद कम मिलेंगे। भावी वधू तो टीचर फिर भी मिल जाएगी, पर भावी वर के टीचर मिलने की संभावना बेहद क्षीण रहती है। एनसीईआरटी के ताजा आंकड़ों के अनुसार, देश में 69.1 फीसद अध्यापक महिलाएं हैं। स्कूलों में टीचर अब कमोबेश वही बन रहे हैं, जो दूसरी नौकरियों में नहीं जा पाते। बड़ी नौकरियों के लिए प्रतियोगिता परीक्षा देकर जब वे थक जाते हैं, तब मजबूरी में इस पेशे की ओर ध्यान देते हैं। जाहिर है, ऐसे लोग अपने पेशे को लेकर कतई प्रतिबद्ध नहीं रहते।

गंभीरता की कमी

आप किसी भी स्कूल-कॉलेज के अध्यापकों का एक सैंपल सर्वे करवा लीजिए कि उन्होंने अपने करियर में कितने शोधपत्र लिखे या कोई उल्लेखनीय कार्य किया। आपको नतीजा सिफर ही मिलेगा। यह वास्तव में गंभीर मामला है। वे इस तरह का कोई कार्य नहीं कर रहे जो इन्हें अपने छात्र-छात्राओं से स्वाभाविक रूप से सम्मान दिलवाए। भारत के कई राष्ट्रनायक अध्यापन करते रहे। उन्हें अपने अध्यापक होने पर गर्व था। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सावित्रीबाई फुले, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम सभी शिक्षक थे। महात्मा गांधी भी जब दिल्ली के पंचकुइयां रोड स्थित वाल्मीकि मंदिर में रहते थे तब आसपास के बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाते थे। तो फिर इन महापुरुषों से मौजूदा पीढ़ी क्यों नहीं प्रभावित हो रही? अब बेहद औसत किस्म के, या यूं कहें सामान्य स्तर के लोग अध्यापक बन रहे हैं। जाहिर है, निचले स्तर की इंटेलिजेंस वाला इंसान अपने विद्यार्थियों के साथ न्याय नहीं कर सकता। वो तो मात्र खानापूरी ही करेगा। इन्हीं वजहों से देश के अधिकतर स्कूलों में शैक्षणिक गुणवत्ता का स्तर तेजी से गिर रहा है। जबकि किसी भी देश-समाज की पहचान का पैमाना वहां की शिक्षा के स्तर से ही तय होता है। आमतौर पर जहां शिक्षा के प्रसार-प्रचार पर ईमानदारी से बल दिया जाता है, वे ही देश प्रगति की दौड़ में आगे निकलते हैं। दुर्भाग्यवश हमारे देश में स्तरीय शिक्षकों के न आने से शिक्षा का स्तर चौपट हो रहा है।
शिक्षकों के साथ भी कई स्तरों पर अन्याय देखने को मिल रहा है। उन्हें अपनी कक्षाएं लेने के अलावा जनगणना के वक्त घर-घर जाकर आंकड़े एकत्र करने से लेकर पंचायत, विधानसभा और लोकसभा चुनावों में पोलिंग बूथ पर ड्यूटी करनी पड़ती है। मिड डे मील की व्यवस्था भी उन्हें ही देखनी होती है। यानी पढ़ाने के अतिरिक्त और तमाम दायित्व उनके जिम्मे हैं। जब विद्यालयों में शिक्षक ही नहीं होंगे तो बच्चों को पढ़ाएगा कौन? शिक्षा के अधिकार कानून के तहत एक स्कूल में 35 बच्चों पर एक टीचर होना अनिवार्य है। पर नियमों की किसे पड़ी है? कहीं-कहीं तो 200 बच्चों पर एक शिक्षक ही तैनात है, जबकि कुछ जगहों पर पूरा का पूरा विद्यालय ही शिक्षामित्र के सहारे चलता है। यह मजाक नहीं तो और क्या है? 

शहरों-महानगरों के निजी स्कूलों में अध्यापकों की स्थायी नियुक्ति बंद सी हो गई है। उन्हें 4 से 11 महीने के लिए ही कॉन्ट्रैक्ट पर नौकरी मिलती है। नौकरी जाने की तलवार उन पर स्थायी रूप से लटकी रहती है। इन हालात में आप उनसे निष्ठा की उम्मीद करना तो छोड़ दीजिए।

अब एक सवाल उन शिक्षकों से भी, जो बेहतर पगार पा रहे हैं और जिनकी नौकरी स्थायी और सुरक्षित है। क्या वे बताएंगे कि अपने बच्चों को बदलते वक्त का सामना करने के लिए किस तरह से तैयार कर रहे हैं? क्या वे खुद भी अपनी जेब से खर्च करके कभी कुछ पुस्तकें पढ़ते हैं? इस तरह के शिक्षकों का आंकड़ा बेहद कम होगा। जिन शिक्षकों की नौकरी स्थायी हो गई, वे मान कर चलते हैं कि अब उन्हें कोई निकाल ही नहीं सकता। यानी वे तब तक सुरक्षित हैं जब तक रिटायर नहीं हो जाते। इसलिए ज्यादातर टीचर अपने काम को लेकर कतई गंभीरता नहीं बरतते।

उन्होंने शिक्षा को एक धंधा बना लिया है। वे कोचिंग में पढ़ाते हैं या घर पर ट्यूशन देते हैं। स्कूल के बच्चों पर निजी ट्यूशन लेने के लिए वे तरह-तरह से दबाव डालते हैं। आश्चर्य है कि सरकारी स्कूल के शिक्षकों पर सरकार का कोई शिकंजा नहीं है। हमारे देश में शिक्षक एक वोट बैंक हैं। उन्हें छेड़ने की हिम्मत राजनीतिक नेतृत्व के पास नहीं है। केंद्र सरकार ने भी शिक्षा का अधिकार कानून लागू करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली।

प्रशिक्षण की जरूरत

राज्यों के शिक्षा विभाग अपने अध्यापकों को नियमित ट्रेनिंग भी नहीं देते। शिक्षकों को समय-समय पर नियमित ट्रेनिंग मिलनी जरूरी है। एक अनुमान के मुताबिक, 10 फीसद शिक्षकों को भी ट्रेनिंग नहीं मिल पाती। अगर उन्हें ट्रेनिंग नहीं मिलेगी तो शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे नए-नए बदलावों को लेकर वे किस तरह अपने को तैयार करेंगे/ सीधी सी बात है कि देश को अपनी स्कूली शिक्षा पर गंभीरता से फोकस करना होगा, वरना देश प्रगति की दौड़ में लंगड़ाता ही रहेगा।

लेखक
विवेक शुक्ला




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