"शिक्षार्थ आइये सेवार्थ जाईये" यह टैग लाइन मुझे कई स्कूल के बाहर लिखी मिली पर मैं आज तक इस लाइन का वास्तविक महत्व समझ न सका। क्या शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य नौकरी प्राप्त करना भर है?

 शायद वर्तमान समय में इसका उत्तर हाँ ही नजर आता है। माता पिता द्वारा बच्चे के जन्म के समय ही उसके डॉक्टर या इंजिनियर बनाने की कल्पना से ही लोगों मन में छिपा शिक्षा का उद्देश्य प्रकट हो जाता है। स्कूल में प्रवेश के समय विद्यालय से सेवा में चयन हुए विद्यार्थियों की संख्या और विद्यालय की भौतिक सुबिधाओं के प्रति अभिभावकों की सोच भी शिक्षा का उद्देश्य प्रदर्शित करने को पर्याप्त है। उच्च शिक्षा संस्थानों के चयन में कैंपस सिलेक्शन की संख्या की चर्चा भी यह बताने को पर्याप्त है कि अभिभावक अपने पाल्य को उस संस्था में केवल इसलिए प्रवेशित कराना चाहता है क्यूंकि वहां पढने से नौकरी में चयन की सम्भावना अधिक है। 


      पिछले 2-3 दशकों में शिक्षा का व्यवसायीकरण और बाजारीकरण काफी तेजी से बढ़ा है। शायद इसके पीछे अभिभावकों की सोच ही जिम्मेदार है। ज्यादा अच्छे विद्यालय में पढ़ाने से नौकरी में चयन के अधिक चांस होंगे इस विचार से ग्रसित अभिभावक अपने बच्चों के भविष्य और जीवन में कोई  जोखिम नहीं लेना चाहते हैं इसलिए श्रेष्ठ विद्यालय का चयन ही उनका एक मात्र निर्णय होता है और इसी मनोदशा का फायदा उठाकर स्कूल उन्हें भावात्मक ब्लैकमेल करते हुए सुख सुविधा के नाम पर लगातार धन उगाही करते रहते हैं।


     यहाँ पर उन निःशुल्क शिक्षा देने बाले सरकारी स्कूल की भी चर्चा  आवश्यक हो जाती है जिनमे पिछले कई दशक से से कोई भी छात्र किसी सरकारी सेवा में अच्छे पद पर चयनित नहीं हुआ। मुझसे कई लोग तंज़ कसते हैं कि सरकारी स्कूल में कोई पढाई नहीं होती है तो मैं अक्सर चुप हो जाता हूँ। गाँव के अनपढ़ और मजदूर अभिभावक भी अधिकांशतः पूछते हैं कि मास्टर क्या तुम्हारे यहाँ पढ़ाने से कोई नौकरी मिल जाएगी? तो मुझे चुप ही रह जाना होता है। इन प्रश्नों के यथाउचित जबाब न होने से ग्रामीण क्षेत्र कम पढ़े लिखे और बंचित वर्ग में शिक्षा के प्रति लोगों का मोह भंग हो रहा है और वह अपने पाल्यों को स्कूल की बजाय काम पर भेजना ज्यादा पसंद करते हैं। 


     हमारे देश में बेरोजगारी अधिक होने से बच्चों को बचपन से ही यह समझाया जाता है कि यदि वह मेहनत से पढाई करेगें तो उन्हें नौकरी मिल जाएगी और उनका जीवन सुखमय हो जायेगा पर जब उन्हें कोई नौकरी नहीं मिलती है तो वह अपने से कमउम्र के छात्रों के लिए एक नेगटिव उदाहरण बनते हैं और स्वयं भी अपने अनुभवों को शेयर कर नकारात्मकता फैलाते हैं। भारत में नौकरी का भी एक विशेष मानक है हमारे देश का 90% से अधिक वर्ग केवल सरकारी नौकरी को ही नौकरी मानता है इसलिए अन्य किसी भी रोजगार को शिक्षा की उपलब्धि से जोड़कर नहीं देखा जाता है।   


       वास्तव में हम अभी तक यह जान ही नहीं सके कि एक विद्यालय छात्र के जीवन में उसको क्या देता है। जब लोग सरकारी स्कूल पर तंज़ कसते हैं तो मन में अजब सी टीस उठती है। हो सकता है कि हम प्राथमिक विद्यालय में बच्चों को फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना नहीं सिखा पाते हो हम उन्हें गणित के कठिन सवाल और विज्ञान भी नहीं सिखा पाते हों। हम उन्हें प्रतियोगिता लायक भी नहीं बना पाते हों। हम अपने छात्रों को किसी अच्छे मंच पर प्रदर्शन कर वाहवाही अर्जित नहीं कर पाते हों। हमारे छात्र मूल्याकन करने बाले निरीक्षणकर्ता को संतुष्ट नहीं कर पाते हों, पर हम बहुत कुछ ऐसा कर पाते हैं जिसका कोई मूल्याङ्कन एक समाज कभी कर ही नहीं पाता है।


      प्राथमिक विद्यालयों में हम बच्चों को जीवन जीने का तरीका सिखाते हैं। विद्यालय में बच्चे अच्छी आदतों को सीखते हैं। प्रार्थना के माध्यम से बच्चों में ईश्वर के प्रति आस्था विकसित होती है और राष्ट्रगान से देश के प्रति आदर। हम खेलकूद के माध्यम से बच्चों को एक टीम में काम करके जीतने की आदत विकसित करते हैं। सांस्कृतिक और सामुदायिक गतिविधियों से बच्चों को आत्मविश्वाश के साथ अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का अवसर देते हैं। सामाजिक विषय और नैतिक शिक्षा की सीख से उन्हें समाज से परिचित कराते हुए उनमे नैतिकता का प्रादुर्भाव करते हैं  और महान व्यक्तित्व के जीवन प्रसंग उनके दिमाग में भेजकर उनके जैसे महान बनने की प्रेरणा दी जाती है। गाँव के गरीब दलित मजदूर अल्पसंख्यक छात्रों को जीवन उपयोगी बातों के द्वारा उन्हें मानसिक शक्ति प्रदान की जाती है ताकि समाज में स्वयं को वो कमजोर न समझे। छात्रों को अपनी प्रतिभा को दिखाने का अवसर दिया जाता है। किस्से और कहानियों के माध्यम से उनकी कल्पनाशक्ति को एक नया आयाम प्रदान किया जाता है उन्हें समाज में स्वावलंबन से कैसे जिया जाए इसका प्रशिक्षण दिया जाता है और यह सब उनके लिए किया जाता है जिन्हें कान्वेंट बाले अपनी दहलीज़ पर इसलिए कदम भी नहीं रखने देते हैं कि वे गरीब हैं और उनकी जीवनशैली उस विद्यालय के छात्रों के अनुकूल नहीं है।


         इतना सब करने के बाद भी लोग यह पूंछते हैं कि प्राइमरी स्कूल में बच्चों को क्या सिखाया जाता है। वास्तव में प्राथमिक विद्यालय ही समाज का निर्माण कर रहे हैं देश की अधिसंख्य गरीब जनता को एक अच्छे और व्यवस्थित समाजिक जीवन को जीने की कला सिखाने का एक मात्र साधन प्राथमिक विद्यालय ही हैं। प्राथमिक विद्यालय ही एक मात्र साधन हैं जो अपने प्रयासों से अनाचार दुराचार अपराध से मुक्त एक नयी पीढ़ी को ढालने में सक्षम हैं। सरकारी प्राथमिक विद्यालय के विषयगत परीक्षा परिणाम समाज को निराश कर सकते हैं पर इनके समाजिक परिणाम समाज एक सुखद भविष्य दे सकते हैं। प्राथमिक विद्यालय ही वह मंच है जहाँ आभाव और समाजिक विषमताओं से जूझते एक बच्चे को मुस्कान विखेरने का अवसर मिलता है स्कूल में उसके खुद के समाज में न तो ऊँचनीच है और न ही जातिबाद वहां आर्थिक विषमता का भी कोई भेद नहीं है इसलिए हम स्वस्थ्य बचपन को पोषित करते हैं। वास्तव में जब तक समाज डिग्रियों को ही शिक्षा की उपलब्धि मानेगा तब तक हमारी उपलब्धि शून्य गिनी जाएगी पर जब समाज शिक्षा की वास्तविक उपलब्धि को जानेगा तब प्राथमिक विद्यालयों की उपलब्धि को सर्वोपरि गिना जाएगा। 


लेखक :
अवनीन्द्र सिंह जादौन 
सहायक अध्यापक (इटावा)
महामंत्री, टीचर्स क्लब, उत्तर प्रदेश

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  1. बहुत ही अच्छे विचार प्रस्तुत किये हैं आपने सर।

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  2. बहुत बढ़िया, सारगर्भित और प्रेरणादायक पोस्ट। जब भी लोगों के व्यंग्य वाणों से व्यथित हों एक बार ये पोस्ट अवश्य पढ़ें। सुकून मिलेगा।

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  3. सही कहा सर जी ।

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