ताकि देश के बच्चों को स्कूलों में मिल सके पर्याप्त भोजन-पोषण

 
 
अब तो भारतीय रिजर्व बैंक भी मान चुका है कि देश में महंगाई है। यह जल्द जाने वाली नहीं है। उल्टे रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध लंबा चला, तो चावल, गेहूं, खाने का तेल, दाल जैसी चीजें और भी महंगी हो सकती हैं। रिजर्व बैंक ने इससे बचाव के लिए कुछ जरूरी उपाय भी किए हैं, लेकिन न तो रिजर्व बैंक, न ही केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारों का ध्यान एक बड़ी चीज की तरफ गया है। यह है मिड डे मील अर्थात स्कूलों में दोपहर का खाना देने की योजना के तहत मिलने वाले खाने की गुणवत्ता।



आपको यह जानकर हैरानी होगी कि पिछले दो सालों में गेहूं, चावल, तेल, सब्जी, दालें, मसाले आदि सब कुछ महंगे हुए हैं, लेकिन मिड डे मील, यानी मध्याह्न भोजन की थाली के पैसे बढ़ाए नहीं गए हैं। 15 मई, 2020 को भारत सरकार ने पहली से पांचवीं कक्षा के बच्चों के लिए मिड डे मील का खर्चा 4.97 रुपये और छठवीं से आठवीं तक के लिए प्रति बच्चा खर्चा 7.45 रुपये तय किया था। तब से लेकर करीब दो साल हो गए हैं और खर्च बढ़ाया नहीं गया है। इस दौरान जिस तरह से जरूरी चीजों के दाम बढ़े हैं, उसको देखते हुए कम से कम एक से कक्षा पांच तक के बच्चों के लिए 6.71 पैसे और छठी से आठवीं के बच्चों के लिए 10.1 रुपये किया जाना चाहिए था। 


इसका नतीजा यह है कि कई राज्यों में बच्चों की मिड डे मील की थाली से चावल गायब हो गया है। दाल की जगह पानी ज्यादा नजर आता है। कहीं शिक्षक पतली बेसन की कढ़ी, तो कहीं आलू की पतली सब्जी बनाकर बच्चों को खिलाने के लिए मजबूर हैं। कुछ जगह शिक्षकगण गांव में स्कूल के पास के खेत में उगी सब्जियां ले आते हैं, तो कहीं उधार से काम चलाया जा रहा है।


मिड डे मील देश में 11 करोड़ 80 लाख बच्चों को दिया जाता है। देश के 11 लाख से ज्यादा सरकारी, अनुदानित और स्थानीय निकाय के तहत आने वाले स्कूलों के साथ-साथ आंगनबाड़ी केंद्रों में आने वाले बच्चों को दोपहर का भोजन दिया जाता है, लेकिन 12 करोड़ बच्चों की चिंता कोई राजनीतिक दल नहीं कर रहा है। इसकी वजह शायद यही है कि बच्चे वोटर नहीं हैं। कोरोना काल में देश भर में औसत रूप से 18 से 20 महीनों तक स्कूल बंद रहे। इस दौरान भी बच्चे मिड डे मील से दूर ही रहे। कायदा तो यह होना चाहिए था कि इन बच्चों को उनके हिस्से का गेहूं या चावल महीनेवार या तीन महीने में स्थानीय राशन की दुकान से दिलवाने की व्यवस्था की जानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा शायद ही किसी सरकार ने किया।


केंद्र सरकार इस योजना का 60 फीसदी और राज्य सरकारें 40 फीसदी खर्च उठाती हैं। इस हिसाब से देखा जाए, तो केंद्र ने साल के 10 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा और राज्य सरकारों ने कुल मिलाकर छह हजार दो सौ करोड़ रुपये बचा लिए। कहीं-कहीं हफ्ते में दो दिन दूध दिया जाता है, कहीं अंडे दिए जाते हैं, कहीं केला, तो कहीं मीठी खीर दी जाती है। यह सब भी कोरोना काल मेें सरकारें डकार गईं।


सवाल यह है कि आखिर गरीब का निवाला क्यों मुद्दा नहीं बनता? क्या इसलिए कि ये गरीब बच्चे मतदाता नहीं हैं? आखिर आज देश में प्राथमिक स्कूलों में बच्चों का नामांकन बढ़ा है, तो उसकी सबसे बड़ी वजह मिड डे मील ही है। हाल ही में एक अध्ययन में बताया गया था कि कैसे भारत में बच्चे कुपोषण का शिकार हैं।


पिछले दो वर्षों में कीमत में इजाफे का अंदाजा लगाया जाए, तो पता चलता है कि बच्चों को मिड डे मील के नाम पर क्या परोसा जा रहा होगा। मई 2020 में रसोई गैस का घरेलू सिलेंडर 772 रुपये का था, जो आज 955 रुपये को पार कर गया है। दालों के दाम औसत रूप से दो साल पहले 55 से 100 रुपये थे, जो अब बढ़कर 70 से 120 रुपये प्रति किलो हो गए हैं। सब्जियों के दाम भी दो साल में पचास फीसद तक बढ़े हैं। खाने का तेल 120 रुपये प्रति लीटर था, जो अब 220 रुपये प्रति लीटर हो गया है। सरकारों को ध्यान इस ओर जाना चाहिए।


मिड डे मील के तहत यह तय किया गया था कि प्राथमिक कक्षा के बच्चों को 450 कैलोरी और 12 ग्राम प्रोटीन देना जरूरी है, जबकि आठवीं तक के बच्चों को 700 कैलोरी और बीस ग्राम प्रोटीन देना चाहिए। मगर चिंता की बात यह है कि कहीं अंडे को लेकर राजनीति हो रही है, तो कहीं खाना बनाने वाली महिला की जाति को लेकर। इस तरह की नकारात्मक राजनीति से बचते हुए इस अच्छी योजना की कमियों को तत्काल दूर करने की जरूरत है। स्कूलों को भी अपने स्तर पर पूरी ईमानदारी बरतनी चाहिए, ताकि जिस मकसद से मिड डे मील, यानी मध्याह्न भोजन योजना की शुरुआत की गई थी, वह हर हाल में पूरा हो।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


✍️ विजय विद्रोही

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