ऐसा माना जा रहा है कि विदेशी संस्थाओं के आने से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक सकारात्मक बदलाव आएगा। हमारी संस्थाओं को अपने स्तर को निखारने की प्रेरणा मिलेगी। अंतरराष्ट्रीय अकादमिक सहयोग से प्रगति के नए रास्ते खुलेंगे।
उच्च शिक्षा में विदेशी संस्थाओं की भागीदारी के लिए कानूनी ढांचे को अंतिम रूप दिया जा रहा है। इसके लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी ने ‘यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (सेटिंग अप एंड आपरेशन आफ कैंपसेज आफ फारेन हायर एजुकेशनल इंस्टीट्यूशंस इन इंडिया) रेगुलेशंस, 2023’ नाम से मसौदा जारी किया है। इसके मुताबिक विश्व में 500 तक की रैंकिंग वाली संस्थाओं को देश में कैंपस खोलने की अनुमति होगी। इसके लिए उन्हें यूजीसी की अनुमति लेनी होगी।
मसौदे में इन संस्थाओं को पर्याप्त स्वायत्तता का प्रस्ताव है। उन्हें भारतीय या विदेशी छात्रों के प्रवेश के लिए नियम बनाने, शुल्क निर्धारित करने, अपना पाठ्यक्रम तय करने तथा शिक्षकों की नियुक्ति के लिए नियम बनाने की छूट होगी। फारेन एक्सचेंज मैनेजमेंट एक्ट (फेमा), 1999 के अधीन रहते हुए उन्हें अपनी आय को देश के बाहर भेजने की भी छूट होगी।
ऐसा माना जा रहा है कि विदेशी संस्थाओं के आने से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक सकारात्मक बदलाव आएगा। हमारी संस्थाओं को अपने स्तर को निखारने की प्रेरणा मिलेगी। अंतरराष्ट्रीय अकादमिक सहयोग से प्रगति के नए रास्ते खुलेंगे और अध्ययन के लिए विदेश जाने वाले छात्रों को अपने यहां रोक कर विदेशी मुद्रा की बचत हो सकेगी।
मसौदे में कहा गया है कि विदेशी संस्थानों को अपनी प्रवेश प्रक्रिया तथा शुल्क तय करने का अधिकार होगा। यह भारतीय शिक्षण संस्थाओं पर लगाई गई पाबंदी के ठीक उलट है। भारतीय शिक्षण संस्थाओं को अपनी मर्जी से शुल्क तय करने का अधिकार नहीं है। निजी संस्थाओं पर भी निगरानी रखने के लिए नियामक संस्थाएं हैं। उसके बाद अदालतें भी समय-समय पर जनहित में दिशा-निर्देश जारी करती रहती हैं। पीए इनामदार बनाम महाराष्ट्र (2005) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि शिक्षा ‘व्यापार’ नहीं, अपितु ‘सेवा’ है, इसलिए निजी संस्थाएं भी शिक्षण संस्थाओं को अपने व्यापार के रूप में नहीं चला सकतीं।
पिछले साल महाराष्ट्र सरकार ने निजी मेडिकल कालेजों की मेडिकल की फीस को सात गुना बढ़ाकर 24 लाख रुपये तक करने की अनुमति दी थी, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसे रद कर फिर स्पष्ट किया कि शैक्षिक संस्थानों को व्यापारिक केंद्र नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि शिक्षा व्यापार नहीं, अपितु सेवा है।
ऐसी कल्पना करना भी कठिन है कि कोई विदेशी संस्था भारत में सेवा करने के लिए अपना कैंपस खोलेगी। मुनाफा कमाना ही उनका मूल उद्देश्य होगा। अदालतों द्वारा तय किए गए दिशा-निर्देशों से अलग हटकर उन्हें मुनाफा कमाने की छूट हासिल हो जाएगी। यह शिक्षण संस्थाओं में मुनाफाखोरी की संस्कृति को बढ़ावा देगा। यह अपने देश की शिक्षण संस्थाओं के लिए भी कठिनाइयां पैदा करेगा।
हमारे देश की शिक्षण संस्थाओं को सरकारी और अदालतों के दिशा-निर्देशों के अनुसार काम करना होता है, जबकि विदेशी संस्थाओं पर कोई पाबंदी नहीं रहेगी। ऐसे में हमारी संस्थाओं को तमाम बंदिशों के साथ उन संस्थाओं से मुकाबला करना होगा, जिन्हें स्वतंत्र रूप से कुछ भी करने का अधिकार होगा। यह व्यवस्था न्यायपूर्ण नहीं है। विदेशी संस्थाओं को केवल मुनाफा कमाने की ही छूट हासिल नहीं है। चूंकि इसके उपयोग के बारे में कोई दिशा-निर्देश नहीं है, अतः उसका उपयोग किसी गैर-शैक्षणिक कार्य के लिए भी हो सकता है। यह चिंता का विषय है। मसौदे के अनुसार विदेशी संस्थाओं को शिक्षकों की नियुक्ति करने के मामले में अपने मानक निर्धारित करने तथा अपने पाठ्यक्रम और उसकी विषयवस्तु तय करने का अधिकार होगा।
शिक्षण संस्थाएं राष्ट्र के उन्नयन की आधारशिला होती हैं। पाठ्यक्रम के माध्यम से छात्र केवल जानकारी ही नहीं हासिल करते, अपितु उनके माध्यम से उनका मानसिक अभिमुखीकरण भी होता है। शिक्षण-संस्थाओं पर यह गुरुतर दायित्व होता है कि वे छात्रों को सकारात्मक दिशा दें, किंतु कई बार ऐसा नहीं भी होता। कुछ संस्थाएं ऐसे सोच के मुताबिक अपने छात्रों को तैयार करती हैं, जो उनके एजेंडे को प्रसारित करने और उसे लागू करने में मदद करें। अपनी शिक्षण संस्थाओं पर निगरानी रखने का व्यापक तंत्र उपलब्ध है, किंतु विदेशी संस्थाओं के संबंध में केवल यह कहा गया है कि वे ऐसे पाठ्यक्रम संचालित नहीं करेंगी, जो राष्ट्रीय हित के प्रतिकूल हों। यह शब्दावली अस्पष्टता की सीमा तक व्यापक है। इस पर विचार करने की जरूरत है और हो सके तो नियामक संस्था बनाने का विकल्प भी सोचा जा सकता है, ताकि राष्ट्रीय हित की अनदेखी को रोका जा सके।
सरकार ने आजादी के बाद शिक्षा पर भरपूर ध्यान दिया। गरीबों और वंचितों के लिए इसके दरवाजे खुले। यही कारण है कि आम परिवारों के बच्चे आज दुनिया भर की प्रतिष्ठित संस्थाओं में शीर्ष पदों पर हैं। समाज के वंचित वर्गों को आरक्षण और स्कालरशिप देकर उनके और राष्ट्र की प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया गया। यूजीसी के मसौदे में इसके बारे में ‘जरूरत-आधारित स्कालरशिप’ दिए जाने का सुझाव देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली गई है। परिणामस्वरूप, विदेशी संस्थाओं को यहां के नागरिकों से मोटी फीस लेकर मुनाफा कमाने की छूट होगी, किंतु सामाजिक सरोकारों के लिए उनकी जवाबदेही नहीं होगी। यह उच्च शिक्षा के क्षेत्र में गहरी खाई पैदा करेगा। केवल संपन्न वर्ग के छात्र ही वहां पढ़ पाएंगे और उनके सहपाठी के रूप में समाज के वंचित वर्ग का छात्र मौजूदा नहीं होगा, जिसके साथ बैठकर सामाजिक समरसता का आचरण विकसित होता है। नीति-निर्माताओं को इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है।
✍️ डा. हरबंश दीक्षित
(लेखक तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय के विधि संकाय में प्रोफेसर एवं डीन हैं)
Post a Comment