पिछले दिनों केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सरकारी कर्मचारियों के लिए राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली (एनपीएस) में "सुधार" के लिए एक समिति के गठन की घोषणा की। ज्ञात हो कि केंद्र सरकार ने वर्ष 2004 में वित्तीय बोझ को ध्यान में रखते हुए पुरानी पेंशन प्रणाली (ओपीएस) को खत्म कर दिया था। इसकी जगह पर एनपीएस लाई थी। अब देश में फिर से ओपीएस लागू करने की मांग उठ रही है। 


केंद्र और राज्य स्तर के कम से कम 50 से ज्यादा संगठन इसके लिए आंदोलन कर रहे हैं। इसे देखते हुए विपक्षी दलों द्वारा शासित कुछ राज्यों-छत्तीसगढ़, झारखंड, राजस्थान, पंजाब और हिमाचल प्रदेश ने ओपीएस को अपना लिया है। वहीं अन्य कई राज्यों ने भी इस पर विचार करने के लिए समितियां बनाई हैं। अब सबकी नजरें इनकी रिपोर्ट पर टिकी हैं, क्योंकि माना जा रहा है कि आगे का फैसला उन्हीं की सिफारिशों के आधार पर होगा।


हालांकि इस बीच यह सवाल किया जा रहा है कि अगर सरकारों को वित्तीय बोझ की इतनी ही चिंता है तो फिर वे सांसदों और विधायकों के लिए भी 'एक देश एक पेंशन' की बात क्यों नहीं कर रही हैं? सरकार जनप्रतिनिधियों को एनपीएस के फायदे क्यों नहीं समझा पा रही है? जनसेवा के लिए खुद से आगे आए ये नीति-नियंता एक दिन की भी जनसेवा की कीमत आजीवन वसूल रहे हैं। वहीं सरकारी विभागों में अपना पूरा जीवन खपा देने वाले व्यक्ति का 10 प्रतिशत वेतन कटौती के बाद भी बुढ़ापा असुरक्षित है।


आमतौर पर कोई भी नेता जितनी बार एमपी/एमएलए बनता है, उसका पेंशन उस हिसाब से बढ़ता जाता है। साथ ही यदि कोई नेता विधायक और बारी-बारी से लोकसभा-राज्यसभा सदस्य यानी तीनों रह चुका है तो उसे तीनों की पेंशन मिलती है। जिस देश में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त में अनाज दिया जा रहा हो, वहां क्या ऐसी जनता के प्रतिनिधियों को राजा की तरह रहना चाहिए? करीब 85 प्रतिशत सांसद करोड़पति हैं। और यही माननीय महज 600 रुपये की सामाजिक सुरक्षा पेंशन से जनता की गुजारे की बात करते हैं और एनपीएस को ज्यादा अच्छा बताते हैं।


सांसदों को वर्ष 1976 में 300 रुपये प्रति माह मिलने वाली मूल पेंशन वर्ष 2018 में 25,000 रुपये (अन्य भत्ते अलग से) प्रति माह कर दी गई। इसके अलावा एक सांसद के निधन होने की स्थिति में उसके पति या पत्‍नी के लिए फैमिली पेंशन की अलग से व्यवस्था है। प्रविधान तो यह भी है कि हर पांच साल पर सांसदों के वेतन एवं पेंशन में संशोधन किया जाएगा। यानी अप्रैल 2023 से फिर इनके वेतन एवं पेंशन बढ़ गई है। लगभग 2600 पूर्व सांसदों/आश्रितों को फैमिली पेंशन मिल रही है, जिस पर लगभग 200 करोड़ रुपये हर साल खर्च हो रहे हैं।


आरटीआइ के आंकड़ों के मुताबिक हर साल प्रत्येक सांसद को वेतन और भत्ते के रूप में औसतन 30 लाख रुपये का भुगतान किया जा रहा है। 20 राज्य तो ऐसे हैं, जो अपने पूर्व विधायकों को किसी सांसद से ज्यादा पेंशन देते हैं। आज मणिपुर में एक पूर्व विधायक को प्रति माह 70 हजार रुपये की मूल पेंशन मिलती है। इसमें अन्य भत्ते जुड़ने के बाद पेंशन की राशि दो से तीन गुना बढ़ जाती है।


ऐसे कई पूर्व सांसदों/विधायकों को भी पेंशन दिया जा रहा, जिनका कार्यकाल कुछ समय के लिए था। उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश की मुम्मिदिवरम विधानसभा सीट पर साल 1994 से 1998 के बीच तीन विधायक रहे। सबसे पहले वहां से कांग्रेस के बी सुब्बाराव जीते थे। दो साल बाद उपचुनाव हुआ और तेलुगु देशम पार्टी के जीएमसी बालायोगी विधायक बने। बाद में वह लोकसभा स्पीकर बन गए और फिर से हुए उपचुनाव में उन्हीं की पार्टी के विवेकानंद विधायक चुने गए। इस तरह एक सीट और एक ही कार्यकाल के लिए तीनों विधायकों को पेंशन मिली। हर साल उत्तर प्रदेश 100 करोड़, हरियाणा 35 करोड़, राजस्थान 40 करोड़, महाराष्ट्र 80 करोड़ और बिहार 60 करोड़ रुपये अपने पूर्व विधायकों के पेंशन एवं अन्य भत्ते पर खर्च कर रहे हैं।


अब समय आ गया है कि पेंशन प्रणाली को लेकर सरकार अपनी मानसिकता बदले। भले ओपीएस लागू न हो, पर एनपीएस की विसंगतियों को दूर तो किया ही जा सकता है। वास्तव में एनपीएस उन लोगों के लिए लाया गया था, जो 21 से 25 वर्ष की आयु में नौकरी में शामिल होते हैं। फिर 35 से 40 वर्षों के लिए पेंशन फंड में योगदान करते हैं, पर आज ज्यादातर लोगों को नौकरी देर से मिल रही है। 


संविदा पर भर्ती हुए कर्मचारियों के अधिक उम्र पर नियमित होने के कारण भी कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति महज 10-15 वर्षों में ही हो रही है। कई बार एनपीएस अकाउंट खुलने में ही वर्षों लग जाते हैं। फिर इस अवधि में न तो कर्मचारी योगदान कर पता है, न ही नियोक्ता। लिहाजा प्रति माह दो लाख वेतन पाने वाले लोगों का पांच से 10 हजार रुपये प्रति माह तक पेंशन बन रहा, जिससे वे अपने मासिक बिजली बिल का भुगतान एवं दवा का खर्च भी नहीं निकाल पा रहे हैं।


एनपीएस को लेकर कर्मचारियों की आशंका अब सच साबित होती दिख रही है। सरकार के लिए 20 से 35 वर्ष तक करने वाले कर्मचारियों को रिटायरमेंट के बाद बुढ़ापे के समय में बाजार के भरोसे छोड़ देना कहां तक उचित है? क्या माननीयों द्वारा जनता के पैसे से पेंशन लेना संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता के अधिकार) और अनुच्छेद 106 का उल्लंघन नहीं है। ऐसी विसंगतियां क्यों? 


एक व्यक्ति, एक वेतन, एक पेंशन का नियम माननीयों पर क्यों नहीं लागू होना चाहिए? सरकार बार-बार अपील करती है कि सक्षम होने पर आम लोग गैस सब्सिडी समेत कई तरह की सब्सिडी स्वेच्छा से छोड़ दें, पर बड़ा सवाल यह है कि पूर्व सांसद और विधायक, जो सक्षम हैं अपनी पेंशन कब छोड़ेंगे?