स्कूल में हम क्या पढ़ाएं? 

टकरावों, तनावों, हिंसात्मक बिंदुओं से हमें आगे आने वाली पीढ़ी को बचाना होगा। वृतांत के ये संदर्भ जो समाज में अनेक तरह की गोलबंदी को जन्म देते हैं, अगर उनसे हम अपनी पाठ्य पुस्तकों को बचा सकें तो बेहतर होगा।


स्कूल के पाठ्यक्रमों में दुनिया के अनेक देशों में समय-समय पर संशोधन एवं परिवर्तन होते रहते हैं। इन संशोधनों एवं परिवर्तनों पर कभी-कभी विवाद भी होते हैं। पिछले दिनों हगरी में स्कूल पाठ्यक्रमों में प्रवासी समूहों के पाठ्यगत प्रतिनिधित्व को लेकर लंबा विवाद चला। 


ब्रिटेन के स्कूल के पाठ्यक्रमों में विशेषकर ब्रिटेन राष्ट्र एवं यूरोपीय संघ के इतिहास के साथ कैसे संगत बिठाई जाए एवं ब्रिटेन के स्कूल पाठ्यक्रमों में यूरोपीय संघ के इतिहास को कैसे प्रस्तुत किया जाए, इस पर एक वैचारिक एवं विमर्शगत तनाव तो देखने को मिलता ही रहा है। वहीं जर्मनी में तो स्कूल के पाठ्यक्रमों में अपने राष्ट्रीय इतिहास को यूरोपीय संघ के इतिहास में समाहित कर प्रस्तुत किया गया, तो समाज के एक भाग में असहमति तो दिखी ही कहने का आशय है कि स्कूल पाठ्यक्रमों में हरेक राष्ट्र अपनी सामाजिक चुनौतियों एवं नए भविष्य को ध्यान में रखकर क्या जोड़ा जाए, क्या घटाया जाए, इस पर विचार कर अपने स्कूली पाठ्यक्रमों को शक्ल एवं आकार देता रहता है।


शिक्षा हमें बेहतर मनुष्य एवं जागरूक नागरिक बनाने में मददगार होती है। वहीं यूरोप के अनेक जनतांत्रिक देश तो इसके साथ ही अपने यहां शांतिपूर्ण, समरस एवं राष्ट्रीय रूप से चेतस समाज बनाने के लिए शिक्षा को सामाजीकरण के माध्यम के रूप में अविष्कृत करते रहे हैं। इस अर्थ में शिक्षा समाज का आईना तो है ही, साथ ही यह नई समाज रचना की ज्ञानात्मक रूपरेखा भी होती है।

भारत में एनसीईआरटी (राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद) एवं उसके द्वारा बनाए गए पाठ्यक्रम विवाद में आते ही रहते हैं भारत में कोरोना संकट के कारण छात्रों का जो समय क्षय हुआ, उस दौर में ऑनलाइन शिक्षा की अपनी सीमाओं के कारण स्कूल पाठ्यक्रम को कम करने की जरूरत पड़ी, ताकि छात्रों पर से कोर्स का बोझ कम किया जा सके। इसके लिए एनसीईआरटी ने अनेक प्रशासनिक एवं नीतिगत प्रक्रियाओं से गुजरते हुए पांचवीं से बारहवीं कक्षा के छात्रों के लिए 30-40 प्रतिशत और प्राइमरी कक्षाओं के लिए 10-15 प्रतिशत: कोर्स को कम करने का निश्चय किया।


 इसमें शिक्षा पर बनी 331वीं संसद की स्थायी समिति के सुझावों एवं राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 की दिशा-दृष्टि के आलोक में पाठ्यक्रम में से कुछ पाठों एवं वृतांतों को हटाया गया। इस संदर्भ में एनसीईआरटी का मानना है कि यह एक सामान्य प्रक्रिया है और ये निर्णय स्थितियों के अनुकूल लिए गए हैं। इसके पीछे कोई ऐसी बड़ी डिजाइन नहीं है, जिसकी आशंका व्यक्त की जा रही है।


किंतु विवाद चलने ही हैं, तो चल रहे हैं। रोचक बात यह है कि यह विवाद स्कूली शिक्षा से जुड़े लोगों से ज्यादा राजनीतिक हलकों में चल रहा है। राजनेता एवं कुछ कार्यकर्ता इस बहस को गति दे रहे हैं। इन बहसों में एक प्रश्न यह भी उठ रहा है कि महात्मा गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे के वृतांत में पहले से चले आ रहे उनके जाति नाम को वृतांत से हटा दिया गया है। प्रश्न यह उठता है कि एक संविधान प्रभावित शिक्षा व्यवस्था में क्या स्कूली पाठों के वृतांतों में जाति का जिक्र होना चाहिए? जाति चाहे नायक की हो या खलनायक की क्या उसे हमारे बच्चों के मन में पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से घुसने देना चाहिए। क्या इससे एक व्यक्ति द्वारा किए गए जघन्य काम की प्रतिच्छाया पूरे जाति समूह पर नहीं पड़ेगी?


शिक्षा विभाग के लिए बनी 331वाँ संसदीय समिति में शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत अनेक सेवाभावी संस्थाओं ने एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकों में पहले से चले आ रहे पाठ्यक्रमों में वर्णित वृतांतों, शिक्षापरक उदाहरणों में जाति वर्णन होने की शिकायत भी प्रस्तुत की थी। अगर कहीं किसी ऋषि का वर्णन है, तो उसकी भी जाति, कहाँ कोई सामान्य चरित्र आ रहा है, वहां भी जाति क्या यह प्रवृति हमें एक समरस समाज बनाने में मदद कर पाएगी?


 यह ठीक है कि गांवों को गंवई कथाओं में चरित्रों की 'जाति' का आना-जाना सामान्य बात होती है। किंतु स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम जो एक सुसंगत एवं सुचिंतित ढंग से एक बेहतर समाज रचने के उद्देश्य से बनाए जाते हैं, उसमें उसी तरह के वृतांतों एवं चरित्रों के साथ उनकी 'जाति' के प्रत्यय का आना कितना ठीक है, हमें विचार करना होगा।


अगर कोई कहता है कि 'जाति' तो हमारे समाज की सच्चाई है, अगर वह सच्चाई उसी रूप में हमारी पाठ्य पुस्तकों में आती है, तो इसमें गलत क्या है? जैसा कि हम जानते है कि शिक्षा सिर्फ जो है, उसी को नहीं दिखाती, जो हमें प्राप्त करना है, उसका माध्यम भी बनती है। वह 'जो यथार्थ है, उससे ज्यादा जो आदर्श है, उसे पाने का माध्यम बनती है। 


शिक्षा वस्तुतः वर्तमान से ज्यादा भविष्य रचने का माध्यम एवं प्रणाली है और अगर हमें जातिमुक्त जनतांत्रिक समाज रचना है, तो उसमें टकरावों, तनावों, हिंसात्मक बिंदुओं से हमें अपने आगे आने वाली पीढ़ी को बचाना होगा। वृतांत के वे संदर्भ जो समाज में अनेक तरह की गोलबंदी को जन्म देते हैं, अगर उनसे हम अपनी पाठ्य पुस्तकों को बचा सकें, तो बेहतर होगा।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 अपनी विस्तृत रिपोर्ट में भी भारत में स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रमों को छोटा, रचनात्मक एवं लचीला बनाने पर जोर देती है। वह हमें यह सुझाती है कि हम एक ऐसी शिक्षा की दुनिया रचें, जिसमें हमारे बच्चों का कोमल सुकुमार मन रचनात्मक एवं विकासमान हो सके। जाति, धर्म एवं अनेक तरह की कोटियों से टकरावों एवं उनसे उत्पन्न होने वाले तनावों, हिंसात्मक गोलबंदियों को हम अपनी आने वाली पीढ़ी को शिक्षा के माध्यम से सौंपने से बचाएं, यह जरूरी है। इसी से हम अपने समाज के तांतों एवं तंतुओं को टूटने से बचा सकते हैं, एवं नया भारत भी गढ़ सकते हैं।


✍️ बद्रीनारायण
(लेखक गोविंद वल्लभ पंत समाजिक विज्ञान शोध संस्थान के निदेशक हैं।)

Post a Comment

 
Top