बेसिक शिक्षक का दायित्व शिक्षण या राजकीय दायित्वों की पूर्ति?  



      यह भाव मैं अत्यंत निष्पक्षता से व्यक्त कर रहा हूँ कि जब मैं बेसिक शिक्षा विभाग में बतौर शिक्षक नियुक्त नहीं हुआ था तो मुझे भी अन्य की भांति आकाश भर दोष बेसिक शिक्षा विभाग में तत्क्षण सेवारत शिक्षकों में दृष्टिगोचर होते थे। यूँ लगता था कि यदि बेसिक शिक्षा की स्थिति बदहाल है तो इसमें सम्पूर्ण दोष शिक्षकों का ही होगा, किन्तु जीवन में कई बार ऐसी स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं जब हम मनुष्य किसी व्यक्ति विशेष, दशा, वस्तु, अवस्था, संस्था आदि के संदर्भ में नकारात्मक पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो जाते हैं।


विगत पाँच वर्षों की सेवा में काफ़ी कुछ सीखने और समझने का अवसर मिला। जो भी पूर्वाग्रह अतीत के काल खंडों में अन्तस् पटल एकत्रित थे, आज वे सभी वास्तविकता के धार से कट कर अलग-थलग हो गए हैं।


आज मैं पूर्ण दावे और विश्वास से कह सकता हूँ कि बेसिक की बदहाली के लिए मात्र शिक्षक ही उत्तरदायी नहीं हैं अपितु वे समस्त जैविक/अजैविक घटक भी उतने ही अपराधी/उत्तरदायी हैं जितने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा,शिक्षक और शिक्षण को प्रभावित करने वाले अन्य कारक हैं।


बिन्दुवत चर्चा में समस्त कारकों पर प्रक्षेपण किया जाना चाहिए। किसी एक तथ्य विशेष पर चर्चा कर अन्य आयामों के साथ हम अन्याय नहीं कर सकते हैं।


    वर्षों की सेवा में कम ही ऐसे अवसर आते हैं जब हम शिक्षकों को सुखद और गौरव की अनुभूति होती है कि हम शिक्षक हैं। वरना वही घिसी-पिटी सी अरुचिकर जिंदगी है। विद्यालय खोलते ही सब्जियों और मसालों से सामना होता है। क्या बनना है,कितने छात्र विद्यालय में आये हैं, मेन्यू चेक किया जाता है। भोजन उतना अवश्य बनना चाहिए जिससे सभी बच्चों को प्राप्त हो जाए। यदि कोई बच्चा भोजन नहीं पायेगा तो शिकायत घर तक जायेगी और घर वाले इसकी शिकायत शासन तक पहुँचाने में देर नहीं लगायेंगे। 

खैर, एक तरफ एम डी एम निर्माण का कार्य शुरू होता है दूसरी ओर हम गुरूजी लोग उत्तल/अवतल लेंस का चश्मा लगाकर एस.आर रजिस्टर, रजिस्ट्रेशन, एस.एम.सी रजिस्टर पलटना शुरू कर देते हैं।सूचनाओं को कुछ वैसे खोजना पड़ता है जैसे कोई गोताख़ोर समुद्र में जाकर किसी नवीन पादप अथवा जीव की खोज कर रहा हो। उधर बी.आर.सी/ एन.पी.आर.सी से सूचनाएं ऐसी माँगी जाती है जैसे बॉर्डर पर तैनात जवान युद्ध काल में आयुध की माँग करते हैं। उन माँगी गयी सूचनाओं का आदेश कुछ ऐसे होता है--'तत्काल प्रभाव से'..! तत्काल और प्रभाव पर इतना जोर मारा जाता है कि निरीह शिक्षक बिना किसी अधिकारी के आये थर-थर-थर काँपने लगता है। आलम यह है कि व्हाट्सएप्प पर यदि दोस्ताना समूह में भी कोई सन्देश आ जा जाए तो भी लगता है कि एन.पी.आर.सी वाले ग्रुप में कोई सूचना ही माँगी गयी है। आज हम शिक्षक शिक्षक कम सन्देशवाहक अधिक हो गए हैं।


उधर राजस्व विभाग से लेकर स्वास्थ्य विभाग तक और ग्राम्य विकास से लेकर निर्वाचन तक की सारी विशेष ड्यूटी हम शिक्षकों से ही कराई जाती है। कभी छुट्टा पशुओं को पकड़ना है तो कभी एम.डी.एम का बोरा सुरक्षित रखना है, तो कभी परिवार नियोजन के उद्देश्यों को पूरा करना, तो कभी कोरोना का टीका लगा अथवा नहीं यह पता करना है। अभिभावकों का खाता सीड है कि नहीं ..? यदि नहीं तो उसको शिक्षक करवायें अन्यथा वेतन रोकने का आदेश साहब के कार्यालय से कभी भी आ सकता है। आज ब्रह्मा जी भी ब्रह्मलोक से देखते होंगे तो आश्चर्य से भर जाते होंगे कि उत्तर प्रदेश के बेसिक शिक्षक अब शिक्षक नहीं रहे। वास्तव में हम शिक्षक आज शिक्षक नहीं रहे,अब शिक्षक कौआ रिंच हो गया है।घटाओ-बढ़ाओ और कोई भी जाम पड़ा नट-बोल्ट खोल दो।


अब हम उस प्रदेश में रहने लगे हैं जहाँ रविवार और पर्वों पर भी विद्यालय खोला जाने लगा है और साहबान के फरमान पर डरा हुआ शिक्षक बढ़-चढ़कर अमल भी कर रहा है। अब हम शिक्षकों की निजताएँ धूल-धुसरित होकर सार्वजनिकता के उन्माद में खो चुकी हैं। हम एक ऐसे अमृत काल में हैं जहाँ दूर-दूर तक अमृत का एक बूंद तक नहीं है।


अभिभावकगणों का तो क्या ही कहना! बच्चा दो-दो माह ग़ायब रहता है, उसकी परवाह नहीं है लेकिन यदि पड़ोसी के बच्चे का डी.बी.टी आ गया तो उनका क्यों नहीं आया..? इस बात का उन्हें विशेष मलाल हो जाता है। कई अभिभावक तो सीधे कह भी देते हैं कि ''हमार लड़कवा गुस्साय गय है कहत है कि हमार पैसा नाई आय अब हम पढ़य न जाब।'' उनके उपरोक्त कथनों में शिक्षकों पर उपकार का भाव सन्निहित रहता है। 


वहीं कुछ अभिभावक तो अपने बच्चे को प्राइमरी में मात्र इसलिए भेजते हैं कि उनका बच्चा कुछ लिखना-पढ़ना सीख जाए तो उसका नाम किसी प्राइवेट स्कूल में लिखवाएं। ऐसा होता भी है कि जैसे बच्चा कुछ सीखता है उसके अभिभावक तुरन्त उसका नाम किसी प्राइवेट स्कूल में लिखा देते हैं। शेषतः, हमें वे बच्चे मिलते हैं जो बेहद गरीब और पिछड़े शैक्षिक पृष्ठिभूमि से होते हैं। उनको तराशते-तराशते शिक्षक जान ही नहीं पाता है कि कब वे कक्षा पाँच और आठ उत्तीर्ण होकर निकल गए। शिक्षक आख़िर उन पर कितना श्रम करे।


इस लेख से मेरा उद्देश्य है यह कदापि नहीं है कि मैं बेसिक के शिक्षकों को निर्दोष बताऊँ किन्तु यह भी कहूँगा कि कार्य की अधिकता, प्रबंधन का दोष, अभिभावकों की शिथिलता का दोष मात्र शिक्षकों पर ही मढ़ना न्यायोचित नहीं है।


आज स्थिति यह है कि हम प्रयोगशाला के रसायन बन गये हैं। कभी एक जार में डाल दिया जाता है तो कभी किसी दूसरे जार में डाल कर प्रयोग कर लिया जाता है। प्रयोग होते-होते आज हम शिक्षक अपना मूल-गुण धर्म ही खो चुके हैं।


1. सुधार के रूप में हम शिक्षकों के चयन की एक ऐसी प्रणाली बना सकते हैं जो शासन स्तर से ही इस स्थिति की मॉनीटिरिंग करें कि शिक्षक-छात्र का अनुपात विद्यालय स्तर पर क्या है। यदि किसी विद्यालय में शिक्षक अनुपलब्ध हैं तो वहाँ के तात्कालिक नामांकन के आधार पर शिक्षक नियुक्त किये जायें।


2. शिक्षकों की तैनाती रोटेशनल फॉर्म में हो। एक ही विद्यालय में शिक्षक दशकों व्यतीत कर देते हैं। भले ही उन्हें उनके शिक्षाक्षेत्र से बाहर न किया जाए लेकिन उसी शिक्षा क्षेत्र के विभिन्न विद्यालयों में उनकी तैनाती होती रहे। एक वर्ष से अधिक किसी भी शिक्षक को एक विद्यालय में न रुकने दिया जाए। हाँ, किन्तु इतना ध्यान भी रखा जाए कि बीच सत्र में शिक्षकों का विद्यालय न बदले। इससे विभिन्न विद्यालयों के छात्र विभिन्न शिक्षकों से शिक्षा ग्रहण कर अपना चतुर्मुखी विकास कर सकेंगे।


3. नवीन शिक्षकों का चयन प्रतिवर्ष किया जाए।।


4. प्रत्येक शिक्षा क्षेत्र में न्यूनतम पाँच विद्यालय ऐसे अवश्य स्थापित होने चाहिए जो सुविधाओं में जवाहर नवोदय विद्यालय से प्रतिस्पर्द्धा कर सकें।


5. शिक्षा क्षेत्र में निजीकरण को पूर्णतया प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए। सरकार को अपना पूरा ध्यान प्राथमिक से माध्यमिक तक केंद्रित करना चाहिए। कुकुरमुत्ते की तरह उपजे व्यवसायिक उद्देश्य वाले विद्यालयों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए।


6. केंद्र स्तर पर एक ऐसा पाठ्यक्रम निर्धारित करना चाहिए जो देश सभी विद्यालयों के लिए समान हो। शिक्षण का माध्यम भिन्न हो जाये है किन्तु पाठ्यक्रम में अंतर्निहित सामग्री एक समान हो।


7. प्रत्येक विद्यालयों का बेहतर अवसंरचनात्क विकास किया जाए। विद्यालयों में तकनीकी उपकरणों की उपलब्धता बढ़ायी जाए।


8. विद्यालयों में न्यूनतम पाँच शिक्षणेतर कर्मचारियों की नियुक्ति की जाए। जो सूचना प्रेषण समेत समस्त प्रबन्धकीय कार्य देखें।


9. विद्यालय को ग्राम राजनीति से मुक्त किया जाए और विद्यालय तंत्र को वैधानिक सुरक्षा उपलब्ध करायी जाए।


10. एम.डी.एम आदि के कार्य से शिक्षकों को मुक्त किया जाए।


11. अंतर्जनपदीय स्थानांतरण में भरसक प्रयास किया जाए कि एक निश्चित सेवा के उपरान्त शिक्षकों को उनके गृह जनपद में नियुक्ति दे दी जाए।


12. शिक्षकों को भी राज्य के अन्य कर्मचारियों को उपलब्ध सुविधाओं से सुशोभित किया जाए क्योंकि यदि वे असंतुष्ट है तो व्यवस्था और तंत्र के प्रति उसके मन में विरोध जन्मता है जिसका सीधा प्रभाव शिक्षण पर पड़ता है।


13. सरकार को शिक्षकों के माध्यम से राजनीतिक अभीप्साओं की पूर्ति नहीं करनी चाहिए।शिक्षकों को स्वतंत्र शिक्षण की अनुमति मिलनी चाहिए।


शासन स्तर पर एक समिति बनायी जानी चाहिए जो धरातल पर विद्यमान समस्याओं को धरातल पर चलकर अपना प्रत्यावेदन दें, न कि ए.सी के बन्द कमरों में बैठकर प्रत्यावेदन निर्मित कर दे। हमें व्यवस्था के चयन में शीघ्रता करनी पड़ेगी। हमें उस रेखा पर ही मात्र नहीं चलना चाहिए जिसमें दशकों का समय व्यतीत हो जाए और शैक्षिक उत्पाद के रूप में एक ख़राब नस्ल पैदा करें। अभिभावक से लेकर शासन-प्रशासन तक सबको एक नाद, एक स्वर में शैक्षिक स्तर पर सुधारों हेतु आवाज़ लगानी पड़ेगी। वरना हम कभी भी उन्नत शैक्षिक संस्थानों का निर्माण नहीं कर सकते हैं।


हम शिक्षकों ने सदैव सामाजिक न्याय,आदर्शों और मूल्यों के सर्जन में योगदान दिया है। समाज के एक बड़े वर्ग को,जो शैक्षिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा रहा है, को समावेशी विकास में समाहित करने का दायित्व हम शिक्षकों ने उठाया है।। 

शुभमंगलकामना..!!


✍️ लेखक - 'राजा' दिग्विजय सिंह 
                  (स०अ०)
                  जनपद –गोंडा

(यह लेख लेखक का अपना निजी विचार है जो वर्तमान शैक्षिक पृष्ठिभूमि में शैक्षिक समस्याओं को आधार मानकर लिखा गया है।)

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