कामयाबी की होड़ में न टूटे कोई छात्र


अगर ऐसी पारदर्शी व्यवस्था बने, जो माता-पिता को उनके बच्चों की क्षमता के बारे में ईमानदार सलाह दे सके, तो छात्रों में आत्महत्या की समस्या का समाधान निकल सकता है।


राजस्थान के कोटा शहर में कई छात्रों द्वारा आत्महत्या एक गंभीर चिंता का विषय है। ये बच्चे 16 से 19 साल के थे, जो प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने के लिए यहां आए थे और कड़ी प्रतिस्पर्द्धा का दबाव न झेल पाने के कारण उन्होंने खुदकुशी कर ली। इस वर्ष अब तक 25 के आसपास छात्रों ने आत्महत्या की है, जो न सिर्फ उनके परिवार की हानि है, बल्कि राष्ट्र के लिए बहुमूल्य मानव-संसाधन की क्षति भी है। फिर भी, इस मसले पर तमाम कोनों में चुप्पी दिखती है।


आखिर कोई बच्चा अपनी जान क्यों देता है? इसके लिए उसके परिजन सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। माता-पिता अपने बच्चे की क्षमता जाने बिना उसे यहां ले आते हैं, फिर चाहे उन्हें इसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े। यहां का ट्रेंड कहता है कि कोटा में अमूमन मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे ज्यादा आते हैं, जो आरक्षण जैसी सुविधाओं से वंचित होते हैं। वे आमतौर पर हिंदी माध्यम स्कूलों में पढ़े होते हैं। चूंकि उन पर माता-पिता के अरमानों का बोझ काफी ज्यादा होता है, इसलिए जब उनको यह एहसास होता है कि वे उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पा रहे, तो जान देना उन्हें कहीं ज्यादा आसान जान पड़ता है।


दूसरे सबसे बडे़ जिम्मेदार कोचिंग संस्थान हैं। वे पैसे कमाने की मशीन बन गए हैं। निस्संदेह, वे बच्चों पर मेहनत भी करते हैं, लेकिन यह नहीं समझना चाहते कि परीक्षार्थियों में दबाव सहने की क्षमता कितनी है? यहां हरेक हफ्ते, पाक्षिक या मासिक आंतरिक परीक्षा आयोजित की जाती है, जिसके नतीजे नोटिस-बोर्ड पर चिपकाए जाते हैं। छात्रों पर इसका काफी ज्यादा नकारात्मक असर पड़ता है। इसमें कम अंक पाने वाले बच्चों को लगता है कि वे सार्वजनिक तौर पर जलील किए जा रहे हैं। नतीजतन, उनमें हीन भावना पनपने लगती है। एक तो परिवार का दबाव, ऊपर से अच्छे अंक न ला पाने की हताशा, वे टूटने लगते हैं।


तीसरी जिम्मेदारी राज्य की है। यहां नियामक तंत्र का सख्त अभाव है। जरूरत कोचिंग संस्थानों पर ही नजर रखने की नहीं है, मकान मालिकों व हॉस्टलों पर भी समान रूप से ध्यान देने की है, क्योंकि ये सब मनमानी करते हैं। मनमाना किराया वसूलने के साथ-साथ वे अपने-अपने हिसाब से नियम तय करते हैं। माना जाता है कि यहां 400 से ज्यादा हॉस्टल हैं और छात्रों की संख्या तकरीबन दो लाख है। बड़े कोचिंग संस्थान बेशक 10 के करीब हैं, लेकिन छोटे-छोटे कई कोचिंग इंस्टीट्यूट यहां चल रहे हैं। स्थिति यह है कि जयपुर में अब 100-150 छोटे-बड़े कोचिंग सेंटर खुल गए हैं। ऐसे ही, सीकर में ‘कोचिंग अर्थव्यवस्था’ तेजी से विकसित हो रही है। इन सबको लेकर क्या राज्य सरकार ने कोई नीति बनाई?


बेशक, राज्य सरकार ने छात्र-आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए एक कमेटी का गठन किया है, लेकिन जरूरत विशेषज्ञों की समिति बनाने की है। एक ऐसी ही कमेटी ने कभी इन कोचिंग संस्थानों को नियंत्रित करने के लिए एक कानून बनाने की सिफारिश की थी, लेकिन राज्य सरकार ने उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। अगर वह कानून बन गया होता, तो आज कोटा से ‘मौत’ की खबरें यूं न आतीं। 


निस्संदेह, राज्य सरकार को इसमें ‘वाचडॉग’ की भूमिका निभानी चाहिए। मगर उसने कोचिंग अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाते हुए जयपुर के नजदीक प्रताप नगर में एक कोचिंग हब विकसित किया है, जो करीब-करीब तैयार हो चुका है। राजस्थान हाउसिंग बोर्ड द्वारा तैयार इस हब में एक शिफ्ट में 17 हजार बच्चे पढ़ सकेंगे। जाहिर है, इससे जुड़ी एक अलग अर्थव्यवस्था भी यहां विकसित होगी। यह एक संकेत है कि राज्य सरकार की प्राथमिकता क्या है? कोचिंग एक शिक्षा है और शिक्षा सामाजिक कल्याण का मसला। इस पर सरकारों की चुप्पी खतरनाक हो सकती है।


छात्रों में आत्महत्या की घटनाओं को रोकने के लिए उनका तनाव घटाना होगा। इसके लिए काउंसिलिंग की व्यवस्था होनी चाहिए। जरूरत अभिभावकों की भी काउंसिलिंग की है। अगर ऐसी पारदर्शी व्यवस्था बने, जो माता-पिता को उनके बच्चों की क्षमता के बारे में ईमानदार सलाह दे, तो आत्महत्या का समाधान निकल सकता है। 


एक बच्चे की आत्महत्या से उसका पूरा परिवार बिखर जाता है। हमें इस बर्बादी को रोकने के लिए गंभीरता दिखानी होगी। राज्य सरकार ने फिलहाल कोचिंग संस्थानों की आंतरिक परीक्षा पर रोक लगा दी है, मगर यह स्थायी समाधान नहीं है। देखा जाए, तो परीक्षाएं ही स्थायी तौर पर बंद कर देनी चाहिए और यदि परीक्षा जरूरी ही लगे, तो नतीजे सार्वजनिक करने के बजाय छात्रों को या उनके माता-पिता को बताना चाहिए। यहां आत्महत्या करने वाले ज्यादातर बच्चे बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड जैसे राज्यों के सुदूर इलाकों के होते हैं। लड़कियों की तुलना में लड़कों की अधिक खुदकुशी संकेत है कि इन प्रदेशों का समाज पुरुष वर्चस्ववादी सोच से उबर नहीं सका है।


गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा का एक समाधान तमिलनाडु मॉडल बताया जाता है, जो नीट जैसी परीक्षा के खिलाफ है। हर राज्य सरकार इसमें अपने लिए रास्ता ढूंढ़ सकती है। सरकारें चाहें, तो अपने यहां के इंजीनियरिंग, मेडिकल संस्थानों के लिए परीक्षा खुद करा सकती हैं। ठीक वैसे ही, जैसे वे अपने यहां सरकारी नौकरी के लिए परीक्षा लेती हैं। हां, आईआईटी, आईआईएम या एम्स जैसे संस्थानों के लिए, जहां विशेषज्ञता की खास जरूरत होती है, केंद्र परीक्षा ले सकता है। इस बाबत नया कानून भी बनाया जा सकता है। पहले इसी तरह की व्यवस्था थी, जो कहीं ज्यादा कारगर थी।


अव्वल, तो शिक्षा में प्रतिस्पर्द्धा होनी ही नहीं चाहिए। यह कोई व्यापार नहीं है। मगर कोटा में कोचिंग संस्थानों का एकाधिकार है। वे आपस में भी मुकाबला करते हैं। यहां तक कि एक संस्थान दूसरे के अच्छे शिक्षकों को अपने पाले में करना चाहता है। कभी-कभी तो दूसरे संस्थान का खुद में विलय भी करा लिया जाता है।


कोटा की ऐतिहासिक पहचान रही है। यह पहले एक औद्योगिक शहर था। इसका चरित्र अलग था। मगर अब इसकी मूल पहचान खत्म हो गई है। यह कोचिंग हब बन गया है। इसकी पूरी अर्थव्यवस्था ही अब कोचिंग पर टिक गई है, जबकि शहर में अब भी बुनियादी ढांचे की कमी है। आत्महत्या की घटनाएं किसी जादुई छड़ी से नहीं रोकी जा सकतीं। मगर यदि राज्य सरकारें पूरी नजर बनाए रखें, अभिभावकों को बच्चों की क्षमता से परिचित कराएं और कोचिंग संस्थानों को लूट मचाने का मौका न दें, तो यह दुखद तस्वीर काफी हद तक बदली जा सकती है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


✍️ लेखक : के एल शर्मा,  पूर्व कुलपति, राजस्थान विश्वविद्यालय



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