विश्व के प्रमुख विश्वविद्यालय और शैक्षणिक संस्थान भारत में अपने परिसर खोलने जा रहे हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी ने इसकी अनुमति प्रदान कर दी है। यूजीसी के इस कदम के पीछे एक उद्देश्य विदेशी मुद्रा की बचत भी है। साथ ही यह उम्मीद भी कि इससे प्रतिभा पलायन रोकने में बड़ी मदद मिलेगी। हर साल साढ़े सात लाख से अधिक भारतीय छात्र अरबों डालर खर्च करके विदेश पढ़ने जाते हैं।


आरबीआइ के अनुसार 2022 में लगभग 13 लाख छात्र विदेश में पढ़ रहे थे। वित्त वर्ष 2021-2022 में भारतीय छात्रों की विदेश में पढ़ाई पर 25 अरब डालर की विदेशी मुद्रा खर्च हुई। फिलहाल आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, मेलबर्न विश्वविद्यालय, क्वींसलैंड विश्वविद्यालय, टेक्सास विश्वविद्यालय और सेंट पीटर्सबर्ग विश्वविद्यालय जैसे कई संस्थानों ने भारत में अपने परिसर खोलने में रुचि दिखाई है।


सवाल है कि क्या विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसर भारत में खुल जाने से ऐसे मेधावी विद्यार्थियों को लाभ होगा, जो आर्थिक तंगी के कारण विदेशी विश्वविद्यालयों का रुख नहीं कर सकते? भारत में विदेशी संस्थानों के परिसर खुल जाने से विदेश में रहने का भारी खर्चा निश्चित रूप से घटेगा, मगर क्या भारत में उनके परिसर छात्रों को ट्यूशन फीस में कोई बड़ी छूट देंगे? फिलहाल ऐसे कोई संकेत नहीं हैं।


विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसर स्थापित करने के पीछे यदि सरकार की मंशा भारत को वैश्विक शिक्षा के एक केंद्र के रूप में विकसित करने की है तो उसके लिए ऐसा करना आवश्यक नहीं। भारत में तो प्राचीन काल से ही उच्च शिक्षा के वैश्विक केंद्र थे। अंग्रेजी राज में जरूर भारत में उच्च शिक्षा का प्रसार स्वदेशी को अनदेखा करके हुआ था। इसी कारण 1968 में डा. दौलत सिंह कोठारी को प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति की प्रस्तावना में लिखना पड़ा था कि दुर्भाग्य से भारत की शिक्षा व्यवस्था भारत केंद्रित न होकर यूरोप केंद्रित है। 


उस यूरोप केंद्रित शिक्षा से राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 ने एक बड़ी हद तक मुक्ति दिलाई। इस नीति का बल जीवन निर्माण पर है। उसमें जीवन के निर्माण के लिए ज्ञान की उसी गरिमा को स्थापित करने की आकुलता दिखती है। स्वामी विवेकानंद ने यथार्थ ही कहा था कि जिससे हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें और विचारों से सामंजस्य कर सकें, वही वास्तविक शिक्षा है।


दिल्ली के तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों से लेकर विश्वभारती विश्वविद्यालय और शांतिनिकेतन तक ऐसे अनेक विद्या केंद्र हैं, जो उच्च शिक्षा में गुणवत्ता को लेकर उठने वाले प्रश्नों को समझने का यत्न करते हैं। वे गुणवत्ता के नाम पर विदेशी मानकों का अंधानुकरण नहीं करते। जहां तक विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में परिसर खोलने से उच्च शिक्षा में गुणवत्ता और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा बढ़ने, शोध एवं नवाचार को प्रोत्साहन की बात कही जा रही है तो हाल में घोषित क्वाक्वेरेली साइमंड्स की एशिया यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2024 की सूची देखने से ही स्पष्ट है कि भारत के विद्या केंद्र गुणवत्ता में कितने आगे हैं।


पिछले साल की तरह दिल्ली विश्वविद्यालय, आइआइएससी बेंगलुरु और पांच भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों-बांबे, दिल्ली, मद्रास, खड़गपुर और कानपुर ने एशिया के शीर्ष 100 संस्थानों में स्थान हासिल किया है। रैंकिंग विश्वविद्यालयों की संख्या में भारत ने चीन को पछाड़ दिया है। रैंकिंग के अनुसार भारत अब 148 विशिष्ट विश्वविद्यालयों के साथ सबसे अधिक प्रतिनिधित्व वाली उच्च शिक्षा प्रणाली है।


ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि भारत सरकार ने विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसर देश में खोलने का जो आवेग दिखाया है, वही आवेग उसे दिल्ली विश्वविद्यालय और शांतिनिकेतन जैसे विद्या केंद्रों के परिसर देश के विभिन्न राज्यों में स्थापित करने के लिए क्यों नहीं दिखाना चाहिए? दिल्ली में प्रवेश के इच्छुक छात्रों की भीड़ हर साल बढ़ती जा रही है। जाहिर है इसकी वजह यहां शिक्षा की गुणवत्ता है। यहां पर्याप्त ज्ञानी, अनुभवी एवं गुणी शिक्षक हैं और सुविधाओं और संसाधनों की भी उपलब्धता है। ऐसे में यदि देश के विभिन्न इलाकों में दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर खुलेंगे तो जाहिर है कि वहां और आसपास के प्रवेशार्थी विद्यार्थियों की भीड़ को वहीं रोककर उनका बहुत उपकार किया जा सकेगा।


दिल्ली की तरह पूरे भारत में अनेक ऐसे विश्वविद्यालय हैं जो उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीय मंच के रूप में विकसित हो रहे हैं। तभी तो भारत की शिक्षा व्यवस्था को बार-बार अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति मिलती रही है। यूनेस्को द्वारा इस वर्ष शांतिनिकेतन को विश्व विरासत स्थल घोषित करना गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की शिक्षा व्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति ही है। यहां 1921 में शुरू हुए विश्व भारती विश्वविद्यालय में रवींद्रनाथ टैगोर ने भारतीय धर्म, दर्शन, ज्ञान, साहित्य, संगीत और कला के साथ ही एशिया एवं यूरोप की भाषाओं और साहित्य के अध्ययन और अनुसंधान की यथोचित व्यवस्था की थी। रवींद्रनाथ टैगोर की आकांक्षा थी कि भारतीय संस्कृति में जिस सर्वधर्म का मिलन हुआ है, उसकी प्रत्येक धारा का विशद अध्ययन और अनुसंधान विश्व भारती में हो। संतोष का विषय है कि शांतिनिकेतन में वैसा ही हुआ।


उच्च शिक्षा को वैश्विक और स्थानीय दोनों ही तरह के सरोकारों से जोड़ना चाहिए और विशिष्ट ज्ञान क्षेत्रों में उत्कृष्टता की ओर अग्रसर भारतीय ज्ञान केंद्रों का विस्तार करना चाहिए। भारत के कई विद्या केंद्र ज्ञान के सृजन, संवर्धन और संरक्षण में जुटे हैं और वे उन योग्यताओं एवं क्षमताओं के निर्माण का भी दायित्व बखूबी निभा रहे हैं, जो समाज के संचालन के लिए अपरिहार्य होती हैं। अतः गुणवत्तापरक शिक्षा के लिए विख्यात भारतीय विद्या केंद्रों के विस्तार के लिए संसाधनों की व्यवस्था को प्राथमिकता देनी चाहिए। बजट में शिक्षा का हिस्सा यह ध्यान में रखते हुए बढ़ाना चाहिए कि देश के विभिन्न राज्यों में विख्यात भारतीय विश्वविद्यालयों के परिसर खोलने से ज्ञान के नए क्षितिज उदित होंगे।



✍️ कृपाशंकर चौबे

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर हैं)