पिछली पोस्ट में चर्चा की थी कि हमारे विद्यालयों में शिक्षक प्रायः गणित सिखाते समय मोटे तौर पर प्रक्रियागत ज्ञान और उन प्रक्रियाओं में कुशलता प्राप्त करने तक ही सीमित रह जाते हैं। इस क्रम में सिखाने के तरीकों में गणना करना ओर गणना करने के चरणों को याद करने पर बल दिया जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम अवधारणात्मक तरीकों से ज्ञान का निर्माण करते हुए गणितीय चिन्तन के तौर-तरीकों को अपनी योेजना का आधार बनाएँ। हमारी गणित की कक्षा कुछ इस प्रकार से हो, जिसमें बच्चे तर्क करके स्वयं ज्ञान का सृजन करने में सक्षम हो सके।



गणित की कक्षा कुछ इस प्रकार से हो, कि बच्चे तर्क करके स्वयं ज्ञान का सृजन करने में सक्षम हो सके


यहाँ पर यह महत्वपूर्ण है कि यदि किसी अवधारणा पर शिक्षक की समझ पर्याप्त है तो वह कक्षा में सीखने के अवधारणात्मक तरीकों को प्रयोग में लाएगा, किन्तु यदि ऐसा नहीं है तो वह प्रक्रियात्मक तौर-तरीके ही प्रयोग करेगा। जिन बच्चों को सिर्फ प्रक्रियात्मक तरीके ही सिखाए जाते हैं, उनमें से कई बच्चे उससे सम्बन्धित अवधारणा को रट तो लेते हैं किन्तु उस अवधारणा से जुड़ी अन्य अवधारणाओं के बीच सहसम्बन्ध को नहीं समझ पाते हैं। इस कारण उस अवधारणा से जुड़े नए पहलुओं के सामने आने पर या प्रक्रिया मेें कोेई चरण छूट जाने पर समस्या हल करने में कठिनाई होती है। साथ ही उस पर आधारित अगली अवधारणा को सीखना मुश्किल हो जाता है। यहां आप देखेंगे कि अवधारणात्मक तरीके में प्रक्रिया स्वतः ही शामिल होती है। आप स्वयं दोनो तरीकों को देखें और निर्णय लें कि बच्चे की समझ को विकसित करने के लिए कौन सा तरीका अधिक प्रभावी रहेगा?


गणित सीखने का क्रम
गणित सीखने को सहज एवं सरल बनाने के लिए निम्नलिखित क्रम अपनाना उचित होगा-
  • E- Experience (ठोस वस्तुओं के साथ अनुभव)
  • L- Language (भाषा का प्रयोग)
  • P-Picture    (चित्रों को देखकर समझना)
  • S-Symbol (संकेतों का प्रयोग करना)
सर्वप्रथम ठोस वस्तुओं के माध्यम से अनुभव कराना, फिर भाषा का प्रयोग करना, फिर चित्रों तथा उसके बाद संकेतों का प्रयोग करना।



हम जानते है कि गणित विषय में सोपानक्रमता और क्रमबद्धता का गुण होता है, जिनका पालन आवश्यक है। सोपानक्रमता अर्थात् किसी अवधारणा पर कार्य करने से पूर्व आवश्यक है कि उसके पहले की अवधारणाओं पर पर्याप्त समझ विकसित कर लेना, क्योंकि अगली अवधारणा पूर्व अवधारणा पर आधारित होती हैं, जिनमें एक क्रम होता है, जैसे- जोड़ पर कार्य करने से पूर्व संख्या, स्थानीय मान, संख्या विस्तार, मिलाना की समझ आदि। इसलिए जब तक पूर्व अवधारणा पर समझ नहीं होगी अगली अवधारणा को समझना कठिन होता है। इसी प्रकार क्रमबद्धता से आशय है कि किसी अवधारणा के अन्तर्गत कई छोटे-छोटे चरण होते हैं, जिनका पहले ही निर्धारण कर लेना उचित रहता है और फिर प्रत्येक चरण पर अच्छे से कार्य करके ही अवधारणा के प्रति समझ बनाई जा सकती है, जैसे- 1 से 99 तक की संख्या की समझ बनाने के क्रमशः चरण हैं, 1 से 20 तक की संख्याओं की समझ, शून्य की समझ, 21 से 50 तक की संख्याओं की समझ, 10 लिखना, 10-10 के समूह में गिनना, 11 से 50 तक संख्या बनाना और 51 से 99 तक संख्याओं का गिनना व बनाना। इसमें यदि कोई चरण छूटता है तो सीखना कठिन हो सकता है।


गणित शिक्षण करते समय बच्चों को विभिन्न समस्याएँ देकर उनसे जूझने का मौका देना चाहिए और इस क्रम में उनसे शीघ्र हल प्राप्त करने की अपेक्षा न करना ही उचित रहता है। गणितीय अभिरुचि बढ़ाने के लिए गणित से सम्बन्धित विभिन्न खेल सामग्रियाँ, सहायक- पुस्तकें, पहेलियाँ आदि का संग्रह कर उनके साथ बच्चों को समय बिताने का अवसर देना इस दिशा में सार्थक प्रयास होगा। गणित के क्षेत्र में समुदाय के लोगों को कक्षा-कक्ष में लाना बच्चों को प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।


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