कभी जमाना था, जब आज के वरिष्ठ आईएएस सरकारी स्कूलों में ही पढ़कर ही अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर पाए। आज समय ही नहीं, सरकार की नीतियां भी बदल गई हैं। हर किमी पर खरपतवार की तरह स्कूल की नर्सरी उग आई है। सारे प्राईवेट स्कूलों ने परिषदीय विद्यालयों को ठेंगा दिखा दिया है। अयोग्य टीचर होकर भी नर्सरी को चमचमाए हुए हैं। सरकारी स्कूलों में योग्य टीचर होने के बावजूद परिणाम बहुत सकारात्मक नहीं दिख रहे।
इसके कुछ कारण हैं। अधिकांशत: नगर क्षेत्र के विद्यालय अधिकांशत: एक दो कमरे में चलते हैं। इस स्थिति में कहां संभव है कि कक्षा एक से पांच तक के बच्चे आदर्श विद्यालय के रूप में सामने आ सकेंगे। इस स्थिति में केवल अध्यापकों को सस्पेंड किया जा सकता है। दंड दिए जाने के बाद कुछ गुणात्मक सुधार किया जा सकता है, लेकिन विद्यालय में चमक नहीं लाई जा सकती। कुछ वजह यह है कि शिक्षक को ही चपरासी से लेकर बाबूगीरी और गैर शैक्षणिक कार्य खुद ही करने पड़ते हैं।
अगर पाखाना गंदा है और स्वीपर मिल नहीं पा रहा है तो खुद ही फ्लश धोना पड़ जाता है। ऊपर के अधिकारी के दौरा होने पर दंड का भय शिक्षकों से कुछ भी करा लेता है। स्कूलों के विकल्प की चमचमाती कानवेंट ने समाज के मूल्यों को बदलकर रख दिया है। अधिकारी ही नहीं, शिक्षकों व शिक्षा विभाग के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के बच्चे भी प्राइमरी विद्यालय में नहीं पढ़ते। विद्यालय के ढोल की पोल की खबर सभी को है। विद्यालय की चरमराती व्यवस्था ने राज्यों की पोल खोल कर रख दी है।
मध्य प्रदेश में 1 लाख 20 हजार प्राइमरी विद्यालय बंद हो चुके हैं। चौंकिए मत, यही स्थिति उत्तर प्रदेश की भी हो सकती है। अखबारों में पढ़ने को मिलता है कि शिक्षा में गुणवत्ता के सुधार हेतु सीमेट में बेसिक शिक्षा के अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है तो कभी शिक्षकों को बीआरसी में बुलाकर गुणवत्तापरक का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। आरंभिक पठन कौशल की ट्रेनिंग दी जाती है कि किस तरह से बच्चों को बिना किसी भय के साथ आत्मीयता के साथ पढ़ाया जाए, जिससे बच्चों को अपनापन लगे और उनका विद्यालय में मन लगे। यह प्रशिक्षण स्वागतयोग्य है। शिक्षकों में नए तरीके से पढ़ाने की समझ विकसित होती है।
यहां पर एक सवाल उठता है कि क्या प्रशिक्षण के सारे टिप्स अपनाने के अवसर विद्यालय प्रांगण में प्राप्त होते हैं? बेहिचक कहा जा सकता है कि पूरी तरह से क्लास में प्रयोग नहीं कर सकते ,लेकिन कुछ संभव है कि बच्चों को नए तरीके से पढ़ाकर सुधार लाया जा सकता है। उदाहरण के लिए एक शिक्षक ने बताया कि चार दिन की ट्रेनिंग के बाद बहुत उत्साह के साथ स्कूल पहुंची। पता चला कि आधा-एक घंटे हो गया, एक-एक करके बच्चों के आते 10:40 हो गया। उपस्थिति एसएमएस 10 बजे तक ही देना था। क्या करूं? 11 बजने वाले हैं। एसएमएस नहीं जा पाया। बहुत समस्याएं हैं।
बच्चों से प्यार से ही शिक्षक देर से आने की वजह पूछता है तो पता चलता है कि बच्ची बर्तन मांजने के बाद आ रही है, मां के नवजात बच्चे की देखभाल करने की वजह से देर हो गई या किसी के घर में घरेलू सहायिका है। कहीं अगर टीचर ने तेज से डांट लगा दी तो अभिभावक टीचर को बच्चे के ही सामने डांटने चले आते हैं। कहते हैं कि क्या करें दिक्कत है। पहनने के लिए ओढ़ना नहीं है, मजूरी करती है तो महीना दुई सौ पा जाती है, उसी से उसके लिए फिराक खरीद लेते हैं। हम तो खाना व दूध के चक्कर में कभी-कभार भेज देते हैं। इनके पढ़े या न पढ़ेे से हमें का लाभ? खाना खाए के बाद आप छुट्टी दे दिया करें नहीं तो कल से स्कूल नहीं भेजेंगे।
एक बात और बहन जी, आसमां के आप अरबी पढ़ने के लिए रोज भेज दिया करें। सब हमें पता है, इहां कितनी पढ़ाई होती है। अभिभावक टीचर का ही क्लास लेकर चले जाते हैं और टीचर अपनी योग्यता का ढोल पीटता रहता है, जिसे सुनने वाला कोई नहीं रह जाता। अंदर ही अंदर घबराहट। ब्लड प्रेशर लो होने लगा, उतने में ही अधिकारी का मुआयना। सबकुछ अस्त-व्यस्त। अधिकारी की संवेदनहीनता मरी नहीं थी, उन्होंने भी अगली बार के लिए सचेत किया और भले मनुष्य की तरह दूसरे विद्यालय की ओर प्रस्थान किया। कभी-कभी कुछ टीचर में ही कमियां देखने को मिलती हैं। घर की परेशानियां ही बताने में उन्हें आधे पीरियड लग जाते हैं। उसके बाद जो मन किया, वही विषय पढ़ाकर शिक्षक डायरी भरकर अपना कोरम पूरा कर लेते हैं। कहीं-कहीं टीचर निर्धारित समय से पहले आते हैं और दो घंटे अतिरिक्त समय देकर कमजोर बच्चों को आगे लाते हैं। ऐसा ही बच्चों के प्रति समर्पित एक उदाहरण देखने को मिला। निरीक्षण के दौरान और गांव वालों ने एक स्कूल करछना के खेकसा के बारे में बताया कि एक महिला प्रधानाध्यापिका बेहतरीन तरीके से विद्यालय चलाती हैं। असंभव कुछ भी नहीं है, ऐसा उस विद्यालय को देखने के बाद महसूस हुआ।
विभाग की भी अलग-अलग विडंबना है। अधिकतर अध्यापक को विद्यालय घर से बहुत दूर दे दिया जाता है, जबकि 5 मिनट के ही रास्ते पर विद्यालय होता है। ऐसा क्यों विभाग करता है, इसके लिए बहुत बताने की जरूरत नहीं है। कहने का अभिप्राय यही है कि शिक्षक के स्तर पर, अभिभावक व शिक्षा विभाग व शासन के स्तर पर भी कुछ कमियां हैं। वजह तलाशकर हर स्तर पर सुधार की जरूरत है। वह चाहे हमारे आदरणीय शिक्षक हों, नगर व ग्रामीण क्षेत्र के ब्लॉक व जिला स्तर के शिक्षा अधिकारी या फिर शिक्षामंत्री, सभी को एकजुट होकर बेसिक शिक्षा की बिगड़ती छवि को सुधारना होगा। एक-दूसरे पर दोष मढ़ने से अच्छा है कि सभी खुद की कमियों को महसूस करें और शिक्षा में गुणवत्ता के सुधार हेतु एकजुट होकर आगे आएं। आगे यह कहना गलत नहीं होगा कि सकारात्मक प्रयास ही शिक्षक को गुरू बना सकता है। गुरू का अर्थ होता है अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला। यही प्रयास प्राइमरी बेसिक शिक्षा की छवि को सुधार सकता है। शासन के स्तर पर यदि सारे संसाधन सरकारी स्कूलों में कर दिए जाएं तो प्राईमरी स्कूल की चरमराती व्यवस्था सुधर सकती है। गांवों के स्कूल में कुछ सुधार की संभावना बन सकती हैं, वर्ना यावत बरतम् तावत बरतम् की स्थिति ही बनी रहेगी।
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