हर जिले से एक अव्वल परिषदीय स्कूल को राज्य सरकार इनाम देने जा रही है। यह इनाम एक लाख बीस हजार रुपये का होगा। यह राशि स्कूल के विकास पर खर्च होगी। शासनादेश के जरिए ऐसे स्कूलों के चयन के मानक और इनाम बांटने का कार्यक्रम तय हो चुका है। मानक बहुत कड़े नहीं हैं। एक स्कूल बच्चों की पढ़ाई और सुविधा जैसी होनी चाहिए, उसी की अपेक्षा की गई है।
मसलन, तीन सालों में बच्चों की संख्या 150 या उसके ऊपर बनी रही हो, शर्त है कि इस दौरान बच्चों की संख्या में गिरावट न हुई हो। इसी तरह से जिस क्षेत्र के लिए यह विद्यालय बना हो उस क्षेत्र के 6 से 11 वर्ष की उम्र के सभी बच्चे वहां पढ़ने आते हों और उनकी औसतन मासिक उपस्थिति जितने दिन स्कूल खुला हो उसका 60 प्रतिशत हो। सभी को मुफ्त किताबें और यूनीफॉर्म पूरी तरह बंटी हो। शिक्षकों की उपस्थिति आधिकारिक अवकाशों के अलावा शतप्रतिशत रही हो। इसके अलावा सुविधाओं के मानक- स्कूल में बैठने के लिए फर्नीचर या चटाई, टाट पट्टी होनी चाहिए और मिड डे मील मेन्यू के मुताबिक मिले। साफ-सुथरे परिसर वाला रंगाई-पुताई किया गया स्कूल भवन हो, जिसमें पेयजल उपलब्ध हो। बालक और बालिकाओं के लिए अलग-अलग शौचालय उपयोग में आ रहे हों।
अब इसकी देखभाल का नंबर आता है। ऐसे विद्यालय की प्रबंध समिति की हर माह बैठक होती हो। इस समति में एक अभिभावक अध्यक्ष होता है, प्रधानाध्यापक, लेखपाल, ग्राम विकास अधिकारी 15 लोग होते हैं। आखिर बच्चों को शिक्षा का अधिकार यूं ही तो दिया नहीं गया है? हमारे बच्चे पढ़ रहे हैं तो हमें यह देखना ही चाहिए कि स्कूल में क्या हो रहा है? मानकों को देख कर अंदाज तो लग ही चुका है कि एक विद्यालय से इसके अलावा और क्या चाह सकते हैं, यही आदर्श स्थिति है। अब हकीकत ईमानदारी से परखी जाए तो एक लाख तीस हजार स्कूलों में से सौ-दो सौ स्कूल ऐसे निकल ही आएंगे। पैमाने नापने वाले सरकारी प्रक्रिया से बंधे हैं, इसलिए संशय भी होता है। फिर भी पहला प्रयास है और अच्छी नीयत के साथ है, इसलिए स्वागत होना ही चाहिए। ऐसे में अपनी दम पर स्कूल को आदर्श बनाने वाले हेडमास्टर के उत्साहवर्धन के लिए भी कोई घोषणा होनी चाहिए, ताकि अगले साल इनाम के दावेदारों की सूची और लंबी हो सके।
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आज 'जागरण संपादकीय' 

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