कश्मीर और हिमाचल में बर्फ पड़ रही थी और पूरा उत्तर भारत ठंड से कांप रहा था। कई दिन की कड़ाके की ठंड के बाद एक सवेरे जब भारी कोहरे को आसमान से उतरते देखा तो बड़ी तसल्ली हुई कि चलो आज तेज धूप निकलेगी। कृषि समाजों से जुड़े लोग जानते हैं कि जितना घना कोहरा, उतनी ही तेज धूप। पेड़ भी मनुष्यों की तरह धूप का आनंद ले रहे थे। इनमें चकोतरे, संतरे, मौसमी, जामुन, शहतूत, सहजन, आम और बेलपत्र के छतनार पेड़ भी थे। कहीं किसी अतिथि की तरह उग आए सरसों के पौधे भी थे, जिन पर कलियां निकल आई थीं और फूल खिलने के इंतजार में थे। बसंत पंचमी आने को थी। कबूतरों को जो बाजरा डाला जाता था उसके भी कई पौधे अपनी बालियों समेत लहरा रहे थे। फूलों के भी बेशुमार पेड़-पौधे और बिना फूल वाले अशोक के भी पेड़ बहुतायत से थे। किसी पार्क में फलों और फूलों के इतने पेड़-पौधे देखना भी अद्भुत अनुभव था। कभी-कभी लगता था कि इन घरों के बनने से पहले जिन किसानों के ये खेत थे और जिन्होंने फलों के इन पेड़ों को लगाया होगा, सींचा होगा, देखभाल की होगी, क्या वे कभी इन फलों को खाने का आनंद उठा सके? गौरैया, कबूतर, गुरसलें तथा कई छोटी चिड़िया भी घास पर फुदकते हुए कीड़े, मकोड़े और गिरे हुए अन्न के दाने खा रही थीं और एक-दूसरे के आसपास जाकर पंचायत कर रही थीं। कुछ तोते पेड़ों पर उछल-कूद करते वातावरण का जायजा ले रहे थे। दूसरी तरफ कई कुत्ते ठंड के कारण रात में नींद न ले पाने के कारण धूप में लेटे गहरी नींद में थे। धूप खिली तो हमेशा की तरह बहुत से लोग पार्क में आ गए। इनमें युवाओं की जगह बुजुर्गो की संख्या बहुत ज्यादा थी। युवा तो सवेरे ही काम पर निकल गए थे। पार्क के दूसरे कोने में महिलाओं ने अड्डा जमा लिया। लेकिन दोस्त अभी कहानी बाकी थी। बच्चों की एक टोली अपने हाथ में क्रिकेट की गेंद और बल्ले लेकर आ पहुंची। कुछ ही देर में शोर मचाती बच्चों की फुटबाल टीम भी आ गई। अब होने यह लगा कि क्रिकेट टीम का खिलाड़ी मौका मिलने पर फुटबाल में किक मारने लगा और फुटबाल का खिलाड़ी उछलकर कैच पकड़ने लगा। इन खिलाड़ियों में लड़के-लड़कियां दोनों थे। दूसरे छोटे पार्क में कुछ बच्चे बैडमिंटन खेल रहे थे। कुछ झूला झूल रहे थे। कुछ स्लाइडिंग बार पर भी चढ़े थे। वे पार्को के बीचोबीच आकर खेलने लगे। वे तेजी से शाट मारते और चौके-छक्के का हिसाब लगाते। इधर बच्चे अपने रनों का हिसाब लगाते, उधर गेंद उछलकर जिधर भी जाती, वहां बैठे लोग नाक-भौं सिकोड़ते। उन्हें लगता कि गेंद किसी को लग न जाए। जिन लोगों के घर नीचे के थे, वे अपने घरों के शीशे टूटने की चिंता करते। कई बार वे बच्चों की गेंद अपने पास रख लेते। बच्चों से कहते कि वे कहीं और जाकर खेलें। बच्चे पूछते कि कहां, तो इसका जवाब न मिलता। दूसरी तरफ बैठी महिलाएं भी बच्चों को डांटतीं। उन्हें कहीं और खेलने के लिए कहतीं। कई तो शिकायत करने की भी धमकी देतीं। बच्चे कितने शैतान हो गए हैं, इस पर भी काफी चर्चा होती। हर बुजुर्ग को बच्चा शैतान क्यों नजर आता है, यह पता नहीं चलता। खास तौर से खेलते बच्चों से इतनी शिकायत क्यों। आखिर वे कहां खेलें? कई बार बच्चे बड़ों की इस टोका-टाकी से इतने परेशान हो जाते हैं कि वे व्यस्ततम सड़कों, चौराहों पर खेलने लगते हैं और दुर्घटनाओं का शिकार हो जाते हैं। जैसे-जैसे शहरों में घर बढ़ते हैं, वैसे-वैसे वहां मैदान और खुली जगहें कम होती जाती हैं। और बच्चों को खेलने की जगह नहीं मिलती। वैसे भी घने बसे छोटे शहरों के मोहल्लों में आम तौर पर खुली जगहें दिखाई नही देतीं। पार्क भी इक्का-दुक्का होते हैं, जो सजावट की वस्तु होते हैं। पार्क की घास और पौधों को कोई नुकसान न पहुंचे, इसके कारण बच्चों को वहां खेलने नहीं दिया जाता। नए बसे मोहल्लों में जरूर पार्क की जगहें छोड़ी जाती हैं, मगर आम तौर पर वे अतिक्रमण का शिकार हो जाती हैं। 

पहले स्कूल या कॉलेज का मतलब यही माना जाता था कि वहां खुली जगह होगी। बच्चे खेल-कूद, पीटी, एनसीसी कर सकेंगे। लेकिन देखा गया है कि पढ़ने वालों की संख्या जिस तेजी से बढ़ी है, स्कूल हर गली-मुहाने पर खुल गए हैं, उनकी मंजिलें बढ़ गई हैं, उसी अनुपात में खुली जगहें कम होती गई हैं। खेल के नाम पर कई स्कूलों में इनडोर गेम्स के लिए एक कमरा सुनिश्चित करके छुट्टी पा ली जाती है। महानगरों में तो अकसर स्कूलों में खेलने की जगहें दिखाई नहीं देतीं। शिक्षा विभाग का ध्यान भी इस ओर नहीं जाता कि जिन स्कूलों में खेलने की पर्याप्त जगहें नहीं हैं, उनसे कोई सवाल भी पूछें। 

शायद खेलों की और बच्चों के खेलने की अनदेखी हमारे समाज में फैली उस धारणा को पुष्ट करती है, जिसमें बच्चों के खेलने को समय की बर्बादी माना जाता रहा है। लेकिन बदले वक्त ने बताया है कि जो बच्चे खेलते नहीं हैं, इससे उनके स्वास्थ्य पर तो असर पड़ता ही है, उनकी पढ़ाई भी ठीक से नहीं हो पाती। सच तो यह है कि न बूढ़े कहीं जा सकते हैं, न बच्चे ही।

लेखिका 
क्षमा शर्मा
(लेखिका साहित्यकार हैं)


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