इंटरनेट की लत पर गंभीर शोध की जरूरत है, इसकी वजह से किशोर अपनी जमीन व परिवार से कट रहे हैं।


उसकी उम्र सोलह वर्ष है। वह कक्षा नौ में पढ़ता है। दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में उसका इलाज चल रहा है। बीमारी का नाम है-इंटरनेट गेमिंग एडिक्शन। उसे दवाएं तो दी ही जा रही हैं, शरीर के अंग ठीक से काम कर सकें, इसके लिए फिजियोथेरेपी भी की जा रही है। मनोविज्ञानी से भी उसका इलाज कराया जा रहा है। यह किशोर हर रोज आठ घंटे कंप्यूटर के सामने बिताता था। कभी-कभी यह अवधि 12 घंटे भी हो जाती थी। उसे न सोने का होश रहता, न वह अपने मित्र-परिचितों से मिलता-जुलता था। 24 घंटे उसके दिमाग पर इंटरनेट पर खेले जाने वाले खेल छाए रहते थे। जब वह कंप्यूटर से दूर रहता, तो बात-बात पर गुस्सा करता था। घर वाले उसके इस व्यवहार से तंग आ गए। परिवार के सदस्यों को तब बहुत चिंता हुई, जब छह महीने में उसका वजन करीब 10 किलो कम हो गया। अब अस्पताल में उसे धीरे-धीरे इंटरनेट से दूर किया जा रहा है। अब भी डॉक्टरों ने उसे पूरी तरह इंटरनेट इस्तेमाल करने से रोका नहीं है। हफ्ते में दो-तीन बार वह दो घंटे कंप्यूटर पर खेल सकता है।टेक्नोलॉजी दुनिया भर के दरवाजे हमारे लिए, बच्चों के लिए खोलती है, इसलिए वह वरदान भी है, मगर उसका बहुत ज्यादा इस्तेमाल खतरनाक हो सकता है, खास तौर से बच्चों के लिए। इस पर लंबे अरसे से चिंता प्रकट की जा रही है। भारत ही नहीं, दुनिया भर के बच्चे तकनीक के दुष्प्रभाव से पीड़ित हैं। बच्चों के लिए काम करने वाले संगठन और पश्चिमी विचारों से प्रेरित लोग अक्सर कहते हैं कि बच्चों को किसी बात के लिए रोका न जाए। लेकिन बहुत से डॉक्टर, मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री मानते हैं कि बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखना जरूरी है। कई माता-पिता को तो यह सुझाव तक दिया जाता है कि वे बच्चों के मोबाइल, कंप्यूटर और उनकी मित्र मंडली पर नजर रखें, वरना होता यह है कि बच्चे कई बार जिन राहों पर बढ़ जाते हैं, वहां से उन्हें लौटा लाना बहुत मुश्किल होता है।इसमें प्रमुख बात होती है कि बच्चे माता-पिता, परिजनों से अपनी बात कह सकें। उनकी बात सुनी जाए। अगर वे कुछ गलत करते हैं, तो उन्हें डांटने-डपटने की बजाय समझाने की कोशिश की जाए। अगर तब भी बच्चों की हालत में सुधार न हो, तो उन्हें काउंसलर के पास ले जाया जा सकता है। स्कूल से भी मदद ली जा सकती है। मगर स्कूल से मदद तभी मिल सकती है, जब परिजन लगातार स्कूल के संपर्क में रहें।

दुर्भाग्य से आज महानगरों, शहरों की हालत यह है कि माता-पिता के पास भी बच्चों को देने का कम समय बचा है। बहुत से बच्चे शाम के वक्त या गए रात ही अपने माता-पिता को देख पाते हैं। अक्सर माता-पिता यह सोचकर कि दिन में घर में बच्च बोर न हो, उसे कंप्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट जैसी सुविधा उपलब्ध करा देते हैं। ऐसे में, दफ्तर या अपने-अपने काम में लगे लोगों को यह जान पाना सचमुच मुश्किल होता है कि दिन में बच्चे ने क्या देखा, कौन सी साइट सर्च की। शायद यही वजह है कि बच्चे टेक्नोलॉजी की राह पकड़कर गलत चंगुल में फंसने लगे हैं। 

वे कई बार चोरी-चकारी करने लगते हैं, ड्रग एडिक्ट हो जाते हैं, यही नहीं अवसाद का शिकार भी होने लगे हैं। बलात्कार और हत्या जैसे गंभीर अपराधों में भी किशोरों की संलिप्तता बढ़ने लगी है। किशोरों में इस तरह के अपराध की प्रवृत्ति बढ़ने पर केंद्रीय बाल विकास मंत्रलय ने पिछले दिनों गहरी चिंता प्रकट की थी। यहां तक कि जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट में भी परिवर्तन किया गया है। अभी कुछ ही दिनों पहले बच्चे किस-किस तरह से साइबर अपराधों के शिकार बन रहे हैं, इस पर यूनिसेफ ने एक गोष्ठी की थी। उसमें पता चला था कि बच्चों पर साइबर अपराधी अक्सर नजर रखते हैं। वे मौज-मजे से लेकर डरा-धमकाकर बच्चों को अपने जाल में फंसा लेते हैं। इस लेख की शुरुआत में जिस किशोर का जिक्र किया गया है, उसका इलाज करने वाले डॉक्टर कहते हैं कि बच्चों में इस तरह के इंटरनेट एडिक्शन पर भारत में गंभीर शोध की जरूरत है। सच तो यह है कि बच्चे साइबर स्पेस से जितने अधिक जुड़े हैं, अपनी जमीन और परिवार से उतने ही दूर होते गए हैं।

लेखिका 
क्षमा शर्मा
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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