न बच्चे की रचनात्मकता रूक सकती है और न तकनीक से चलने वाले खिलौनों का बाजार में आना।


अरसा पहले चाबी से चलने वाले खिलौनों से खेलकर बच्चे बहुत खुश होते थे। कपड़े, लकड़ी, मिट्टी आदि से बने खिलौनों के मुकाबले ये बच्चों को बहुत पसंद आते थे। खिलौने अपने आप भी नाच-गा सकते हैं, चल सकते हैं, दौड़ सकते हैं- उस समय यह अनोखी बात थी। मिट्टी, कपड़े, यहां तक कि कई बार लकड़ी के खिलौने भी घर में तैयार हो जाते थे, लेकिन चाबी वाले खिलौने बाजार से खरीदने पड़ते थे। महंगे भी होते थे। इसलिए वही बच्चे इनसे खेल सकते थे या इन्हें खरीद सकते थे, जिनके माता-पिता के पास पर्याप्त पैसे हों।समय के साथ खिलौनों में भी बहुत परिवर्तन हुए। रिमोट क्रांति ने खिलौनों को भी रिमोट से संचालित कर दिया। वे घर-घर जा पहुंचे। लेकिन अब ऐसा लगता है कि कुछ साल में रिमोट से चलने वाले खिलौने भी बीते जमाने की बात होंगे। ब्रिटेन की वारविक यूनिवर्सिटी में वैज्ञानिक ऐसे खिलौने बनाने में जुटे हैं, जो दिमाग की ताकत से जुड़े होंगे। खेलने वाला बच्चा जैसा चाहेगा, वे वैसे ही चलेंगे। एक हेडसेट पहनकर इन्हें मनमाफिक चलाया जा सकेगा। यह हेडसेट कंप्यूटर से जुड़ा होगा। कंप्यूटर दिमाग की तरंगों को पकड़कर खिलौनों को आदेश दे देगा और खिलौना इस आदेश का पालन करेगा। सुनने में यह बात किसी परी-कथा से कम नहीं लगती। जैसे परियों की जादू की छड़ी से जो चाहो, वह हो सकता है। इसी प्रकार की बातें बचपन से सुनते आए दादी-नानी की कहानियों में होती हैं। कहानियों में आते भूत, प्रेत, जादू, बोलने वाले जानवर सब आ-आकर कहानियों में रोमांच भरते हैं, उन्हें आगे बढ़ाते हैं, और उनके साथ-साथ चलता बच्चा पूछता है कि फिर क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ? इसी तरह की कहानियों से हमारे प्राचीन ग्रंथ भी भरे पड़े हैं। इनमें एक से एक कथाएं और उनको बढ़ाने वाली अवांतर कथाएं मौजूद हैं। इनमें राक्षस, पिशाच, देवता, तरह-तरह के रूप बदल सकते हैं, मन की गति से कहीं भी आ-जा सकते हैं।जो चमत्कार कल तक कहानियों और कल्पना की दुनिया में होते आए हैं, उन्हें आजकल विज्ञान दिमाग की ताकत से चलने वाले खिलौने बनाकर संभव कर रहा है, जबकि परी-कथाओं और विज्ञान कथाओं को अक्सर एक-दूसरे के विरोधी के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। वैसे विज्ञान का इतिहास इस बात का गवाह भी है कि मनुष्य ने जिस बात की कल्पना की, उसे विज्ञान ने हकीकत में बदल दिया। जैसे फ्रांस के लेखक जूले वर्न ने अंतरिक्ष में चांद की सैर (एराउंड द मून) की बात की थी, तो विज्ञान ने सचमुच वहां पहुंचकर दिखा दिया। मनुष्य ने पक्षियों की तरह पंखों के सहारे आसमान में उड़ने के बारे में सोचा, तो विज्ञान के जरिये वह जहाज में बैठकर फर-फर उड़ने लगा। घंटों में वहां पहुंचने लगा, जहां पहले वर्षो में नहीं पहुंचा जा सकता था। इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि बिना कल्पना के वैज्ञानिक विकास संभव नहीं। दोनों एक-दूसरे के सहयोगी और दोस्त हैं, विरोधी नहीं।

बाल साहित्य में लंबे अरसे तक इस तरह की बहस चलती रही है कि बच्चों को काल्पनिक कहानियां पढ़ाई-सुनाई जाएं या उनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित किया जाए। दोनों ही तरफ से काफी अतिवादी तर्क प्रस्तुत किए जाते रहे हैं। इस पूरी बहस में बच्चों से शायद ही कोई पूछता हो कि वे क्या पढ़ना चाहते हैं? किस खिलौने से खेलना चाहते हैं? बड़े ही तय कर लेते हैं कि बच्चों को क्या पसंद है? जो वे कह रहे हैं, वही बच्चों के लिए सर्वश्रेष्ठ है।हालांकि बच्चों के लिए काम करने वाले बहुत से विशेषज्ञ मानते हैं कि बच्चों को वैज्ञानिक विकास के नाम पर ऐसी चीजें नहीं देनी चाहिए, जो उनके स्वाभाविक विकास को कुंद करें, उनकी मासूमियत छीन लें, क्योंकि एक समय ऐसा भी था, जब बच्चे घर-घर में कपड़े और मिट्टी से खुद खिलौने बनाना सीखते थे। कोई मिट्टी का शेर बनाता था, तो कोई मिट्टी का कुआं, उसकी जगत, बाल्टी और रस्सी। इस तरह बचपन से ही उनकी क्रिएटिविटी का विकास होता जाता था। 

दिमाग की ताकत से चलने वाले खिलौने इस पूरी बहस में कहां बैठेंगे यह हम नहीं जानते, पर न बच्चों की रचनात्मकता रुक सकती है और न इस तरह के खिलौनों का बाजार में आना। 

लेखिका 
क्षमा शर्मा
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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