गांव,गलियों,चौराहों,चाय की दुकान, रेलवे स्टेशन,  बस स्टेशन तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर शिक्षा या शिक्षा व्यवस्था के संदर्भ में बातें करना आम बात हो गई है उसमे विशेषकर सरकारी प्राथमिक शिक्षा के बारे में चर्चा तो होनी ही है। अधिकांश लोग शिक्षा की गुणवत्ता में ह्रास की बात करते हैं और इसके लिए अध्यापकों को जिम्मेदार मानते हैं। यह बात कुछ हद तक सही हो सकती है लेकिन पूर्णतया नहीं उनके ये विचार समाचार पत्रों, सुनी-सुनाई बातों, कपोल कल्पित अनुमानों पर अवलंबित होते हैं।
            किसी भी घटना का सच जानना जरूरी है और सत्य जानने के उपागमों में शोध भी एक उपागम है। इसके माध्यम से हम किसी घटना के कारणों, प्रक्रिया तथा परिणाम एवं सुधार के बारे में जान सकते हैं। खेद एवं कष्टप्रद स्थिति यह है कि शिक्षा की गुणवत्ता में ह्रास के संदर्भ में वैज्ञानिक शोध की कमी है एवं प्रयास भी हुआ है तो यह विश्वविद्यालयों, शिक्षण संस्थाओं की पुस्तकालयों तक सीमित है। सरकार, नीति नियोजक तथा प्रयोगकर्ताओं की पकड़ से दूर है ऐसे में भ्रांति मूलक तथ्यों, विचारों, रूढ़ियों से समाज भ्रमित है।                                         
प्राथमिक शिक्षा के गुणात्मक ह्रास तथा सामाजिक विमर्श के चार मुद्दों पर चर्चा होनी जरूरी है-----
१- प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता में ह्रास क्यों हुआ ?
२- प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता में ह्रास के पीछे कौन कौन से कारक जिम्मेदार हैं ?
३- प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता में ह्रास से समाज के किन-किन वर्गों का नुक़सान हुआ ?
४- प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए क्या क्या ठोस व व्यावहारिक उपाय हो सकते हैं ?

           स्वतंत्रता के बाद समाजार्थिक विकास के रूप में शिक्षा का पूरा तंत्र सरकार के हाथों में रहा। देश के नीति नियोजकों के सामने गरीबी तथा शिक्षा दोनों में सुधार एक चुनौती थी। जहाँ तक शिक्षा की बात की जाए तो सरकार ने समाज के सामने शिक्षा केंद्रों, शिक्षा विकास के अवस्थापनात्मक तत्त्वों( कक्षा कक्ष, श्यामपट, टाट पट्टी पुस्तकालय, पीने का साफ पानी, शौचालय आदि ) साक्षरता तथा वंचित समाज को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ना एवं गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा संचालित करना प्रमुख चुनौती थी। स्वतंत्र भारत में समाज, सरकार एवं शिक्षक तीनों ने मिलकर एक समावेशी सामाजिक शिक्षा व्यवस्था का ढांचा खड़ा किया। सभी का मूल उद्देश्य समाज में शिक्षा का प्रसार एवं गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्रदान करना था। 

८० के दशक आते आते सरकार, समाज एवं शिक्षक  तीनों में भटकाव होने लगा। समाज का नव धनाढ्य वर्ग शिक्षा लेने देने का कार्य प्राइवेट तरीकों से करना प्रारंभ कर दिया उनकी मान्यता थी शिक्षा की एक ऐसी व्यवस्था हो जिसमें वर्ग विशेष के बच्चे शिक्षा ग्रहण करें तथा समाजार्थिक विकास का मॉडल उनके द्वारा निर्धारित शिक्षापद्धतियों, व्यवस्थाओं में हो। तत्कालीन समाज विशेषकर ग्रामीण समाज की शिक्षा व्यवस्था इतनी मजबूत एवं गुणवत्तापूर्ण थी कि ग्रामीण क्षेत्रों से निकलने वाले युवा समाज के सभी वर्गों विशेष कर सेवा के क्षेत्र में अपना योगदान देने लगे। यह बातें समाज के नवधनाढ्य वर्ग तथा नगरों में रहने वाले कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगा उन्होंने अपने द्वारा और अपने लिए शिक्षा का ताना-बाना बुनना प्रारंभ कर दिया। खेदजनक चिंतनीय स्थिति यह थी की शिक्षा के बाजारीकरण में कुछ राजनेता, प्रशासक भी शामिल हो गए। इधर ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों की स्थिति खराब होने लगी।

         स्पष्ट है किसी भी स्कूल कीें गुणवत्ता में सामान्य तीन चर हैं --
(१) योग्य शिक्षक
(२) पुस्तकालय
(३) बुनियादी सुविधाएं      
             
        इन तीनों ही संवर्गों का सरकार और नवधनाढ्य षड़यंत्रकारी समाज एवं सरकार ने धीरे धीरे अपक्षरण करना प्रारंभ कर दिया।
                   उदारीकरण की नीति एवं वैश्विक व्यवस्था के दायरे तक आते-आते सरकारी स्कूलों के हालात खराब होने लगे। समाज के होशियार संवर्ग को पता था कि भारत में शिक्षा का बाजारीकरण या व्यावसायीकरण तब तक ठीक ढंग से नहीं हो सकता जब तक की ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों की दशा एवं दिशा बर्बाद न कर दी जाए। इसका प्रभाव यह पड़ा कि 1990 के दशक तक ग्रामीण क्षेत्रों के सरकारी और अर्द्धसरकारीकारी दोनों ही तरह के स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी होने लगी। विश्व बैंक तथा अन्य एजेंसियों के दबाव में ग्रामीण क्षेत्रों में भवन, कक्षा कक्ष तो खुले लेकिन वह कछार क्षेत्र के खेतों में धोखे की तरह साबित हुए क्योंकि स्कूलों में पहली आवश्यकता प्रशिक्षित शिक्षकों की थी। तत्कालीन नियोजक तकनीकी ढंग से शिक्षा और गुणवत्ता पर काम करने लगे। शिक्षा लेने देने का कार्य पैरा अप्रशिक्षित शिक्षकों से प्रारंभ हो गया साथ ही साथ बहुकक्षीय तथा बहु स्तरीय कक्षा शिक्षण को स्कूल विकास एवं गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का आधार बनाया गया जो टिकाऊ ना हो सके इसका परिणाम हुआ......
(१) स्कूल शिक्षकों से वीराना होने लगा।
(२) स्कूलों में तालाबंदी शुरू हो गई।
(३) बचे खुचे शिक्षकों से सरकार तथा नियोजकों ने मकान गणना, जनगणना, पशु गणना,पोलियो उन्मूलन,आर्थिक गणना,चुनाव मतदाता सूची पुनरीक्षण इत्यादि कार्यों में सहयोग लेने लगे।
फलत: शिक्षा की स्थिति और दयनीय हो गई।
         इधर नगरीय क्षेत्रों में पूर्व के दूरदर्शी आर्थिक शैक्षिक शोषक वर्ग मजदूरी पर शिक्षकों का शोषण करने लगे तथा सरकारी स्कूलों की इस असफलता का फायदा प्राइवेट स्कूल उठाने लगे। शहरों, कस्बों, गांवों में 'निर्धन उद्योग'की श्रेणी में नये शैक्षिक केंद्र खुलने लगे। समाज के उच्च, मध्यम तथा महत्वाकांक्षी निम्नवर्ग ग्रामीण सरकारी स्कूलों से पलायन कर शहरों कस्बों तथा गांवों में प्राइवेट स्कूलों के प्रति आकर्षित होने लगे। शिक्षा का करोड़ों, अरबों रुपए का व्यवसाय पल्लवित एवं पुष्पित होने लगा तब समाज और सरकारें सचेत होने लगीं साथ ही दूसरों के द्वारा पैदा की गई समस्या को शिक्षकों के सर पर मढ़ दिया गया और सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था के खराब होने के पीछे शिक्षकों को उत्तरदायी मान लिया गया जो हास्यास्पद और खेदजनक है।
           गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में ह्रास का प्रभाव समाज के निचले तबकों, वंचित वर्ग, महिलाओं तथा ग्रामीण पृष्ठभूमि के होनहार एवं कुशाग्र बुद्धि के बच्चों पर पड़ रहा है। समाज का उच्च व मध्यम वर्ग शिक्षा को आयात-निर्यात के माध्यम से कुछ हद तक भरपाई कर ले रहा है लेकिन बहुसंख्यक ग्रामीण (कुछ शहरी) समाज वंचित है। इस वंचना ने न केवल शिक्षा को संकुचित किया है बल्कि लोकतांत्रिक समाज में लोगों की भागीदारी एवं अवसर को सीमित भी किया है। 1980 के पूर्व तथा 1990 तक के दशक के बीच भारत में आयोजित होने वाली सेवाओं की परीक्षाओं विभिन्न पदों की जांच पड़ताल तथा विश्लेषण किया जाय तो ज्यादा भागीदारी ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़े लोगों की थी ध्यान रहे तब ग्रामीण साक्षरता का स्तर वर्तमान स्तर से कम था लेकिन वर्तमान समय में यह भागीदारी व अवसर निरंतर कम होता जा रहा है ऐसा क्यों ? विचार का प्रश्न है।
                  
लेखक
डॉ0 अनिल कुमार गुप्त,
प्र०अ०, प्रा ०वि० लमती,
बांसगांव, गोरखपुर

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