समर्पित शिक्षक ही भारत को  बनाएंगे विश्व गुरु, आत्मनिर्भर भारत के निर्माण की हैं अनिवार्य कड़ी हैं शिक्षक 


 भारतीय संस्कृति में गुरु या शिक्षक को ऐसे प्रकाश के स्रोत के रूप में ग्रहण किया गया है, जो ज्ञान की दीप्ति से अज्ञान के आवरण को दूर कर जीवन को सही मार्ग पर ले चलता है। इसीलिए उसका स्थान सर्वोपरि होता है। उसे साक्षात परब्रह्म तक कहा गया है। आज भी सामाजिक, आध्यात्मिक और निजी जीवन में बहुत सारे लोग किसी न किसी गुरु से जुड़े मिलते हैं।


 गुरु से प्रेरणा पाने और उनके आशीर्वाद से मनोरथों की पूर्ति की कामना एक आम बात है। यद्यपि गुरु की संस्था में इस तरह के विश्वास का कुछ छद्म गुरु नाजायज फायदा भी उठाते हैं और गुरु-शिष्य के पावन संबंध को लांछित करते हैं। शिक्षा के औपचारिक क्षेत्र में गुरु या शिक्षक एक अनिवार्य कड़ी है, जिसके अभाव में ज्ञान का अर्जन, सृजन और विस्तार संभव नहीं है। 


भारत में शिक्षक दिवस डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की स्मृति को जीवंत करता है। वह एक महान अध्यापक और राजनयिक थे। उन्होंने अपने अध्यवसाय के बल पर देश-विदेश में दार्शनिक के रूप में ख्याति अर्जित की और राष्ट्रपति के शीर्ष पद को सुशोभित किया। वह आज भी वैदुष्य की दृष्टि से प्रेरणा-स्रोत हैं। भारतीय समाज की स्मृति में धौम्य-उद्दालक, चाणक्य-चंद्रगुप्त, समर्थगुरु रामदास-शिवाजी महाराज और रामकृष्ण परमहंस-विवेकानंद जैसी गुरु-शिष्य की जोड़ियां प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने देश काल की धारा बदल दी। यह सूची बड़ी लंबी है। तब गुरु निश्छल, प्रपंचों से दूर और वीतराग तपस्वी हुआ करते थे। गुरु की संस्था समाज का दायित्व थी और गुरु स्वतंत्र रहता था। उसका कार्य चिंतन, मनन और लोक-कल्याण के लिए अपनी साधना से ज्ञान को उपलब्ध कराना था।


समय बीतने के साथ शिक्षण और दीक्षा के स्वरूप और गरिमा में बदलाव आता गया। शैक्षिक संस्थाओं के सरकारीकरण और फिर निजीकरण के साथ शिक्षा जगत पर बाजार का असर शुरू हुआ। शिक्षा व्यापार का रूप लेने लगी और विद्यार्थी अंतत: धनार्थी बनता गया। अर्थ की अंतहीन स्पृहा ने शिक्षा जगत को आगोश में लेना शुरू किया। इसमें शिक्षक की प्रवृत्ति भी बदलने लगी और ज्ञान अर्जित करने की जगह वह कमाई करने लगा। 


आज प्रवेश, परीक्षा, उपाधि, नौकरी और शोध-प्रकाशन हर क्षेत्र में शार्टकट से काम हो जाए इसके जुगाड़ में शिक्षक और शिक्षार्थी व्यस्त हो रहे हैं। इन सबके फलस्वरूप शिक्षा के मानक गिरते जा रहे हैं। इन सबके बीच शिक्षक की भूमिका प्रश्नांकित होने लगी है। आज देश में शिक्षकों को तैयार करने वाले हजारों की संख्या में प्रशिक्षण संस्थान खुले हैं, जो अध्यापक तैयार कर रहे हैं। उनमें अधिकांश की गुणवत्ता संदिग्ध है। उनमें सृजनात्मक मानस ढालने की लगन कम ही दिखती है। फलत: अध्यापन एक 'रूटीन जाब' के रूप में ग्रहण किया जाने लगा है। 


थोड़ी-सी संस्थाएं अपवाद हैं जहां नए प्रयोग होते हैं, लेकिन शिक्षकों के लिए जो पेशेवर दृष्टि और मानक चाहिए अधिकांश में वे अनुपस्थित ही रहते हैं। सच्चाई यह है कि शिक्षक सिर्फ पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन से ताल्लुक रखते हैं, नीति-निर्माण के हिस्सेदार नहीं होते हैं। आवश्यकता है कि अध्यापकों में स्वाध्याय और प्रयोग की लालसा की प्रवृत्ति विकसित हो और उन्हें उसका अवसर भी दिया जाए। चूंकि संस्थाओं का एक ढांचा शिक्षक को नियंत्रित करता है और आवश्यक स्वायत्तता नहीं देता। ऐसे में अध्यापक हतोत्साहित होकर यथास्थिति बनाए रखने में ही भलाई देखते हैं। 


नवाचार का प्रश्न छूट जाता है और रूटीन ढंग से अध्यापन अनुसंधान चलता रहता है। चूंकि किसी भी नीति का क्रियान्वयन अंतत: शिक्षक ही करता है ऐसे में अध्यापकों की तैयारी और वृत्तिक विकास पर ध्यान देना आवश्यक है। अध्यापक को यह समझना होगा कि वह दानदाता की जगह समानुभूति की दृष्टि अपनाए। वह नौकर नहीं है। उसे ज्ञान के प्रति निष्ठावान श्रेष्ठ मनुष्य को तैयार करने की जिम्मेदारी दी गई है।


 देश किधर जा रहा है और किधर जाना श्रेयस्कर है इस पर भी उसे सोचने की जरूरत है। वर्तमान परिवेश और चुनौतियों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। शिक्षक और विद्यार्थी की अंत:क्रिया अब सूचना प्रौद्योगिकी से अनिवार्य रूप से प्रभावित हो रही है। इस बदलाव के साथ समायोजन करना पड़ेगा और शिक्षक को अपने कौशलों को समृद्ध करना होगा। 


अध्यापक-शिक्षा किसी भी शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ होती है। इसकी गुणवत्ता को लेकर आज व्यापक असंतोष व्याप्त है। हम अच्छे शिक्षक नहीं दे पा रहे हैं। अध्यापक शिक्षा का बाजारीकरण हो गया है और इसकी व्यवस्था लचर हो चली है। दूर-शिक्षा द्वारा शिक्षक प्रशिक्षण और निजी प्रशिक्षण संस्थानों की बाढ़ को देखकर यही लगता है कि शिक्षण व्यवसाय की साख के साथ मजाक किया जा रहा है। कहां तो अपेक्षा थी कि पेशेवर अस्मिता का विकास होगा, शिक्षक का आत्मगौरव बढ़ेगा, पर राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद इन सब दृष्टियों से नाकाम रही है। 


मुख्य रूप से तकनीकी खानापूर्ति करते हुए शिक्षण संस्थाओं को मान्यता देना ही इसका काम हो गया है जिसे प्रायः नौकरशाह के निर्देशन में चलाया जाता है। अकादमिक उन्नयन की अभीप्सा भी चाहिए। आज ऐसे एकीकृत अध्यापक शिक्षा के कार्यक्रम चाहिए जिनमें सिद्धांत और अभ्यास, विषय और शिक्षण शास्त्र पर बल हो। इसे समावेशी और बहु अनुशासनात्मक रखना होगा। 


पाठ्यचर्या विकास और अकादमिक गतिविधि में स्वायत्तता और वित्तीय पारदर्शिता भी जरूरी होगी। आज देश को विश्व गुरु बनाने की अभिलाषा व्यक्त की जाती है। इस उद्देश्य के लिए समर्पित शिक्षक चाहिए, जो अपने आचरण से प्रेरित करें और आत्मनिर्भर भारत के निर्माण के लिए आवश्यक मूल्यबोध और सृजनात्मक प्रवृत्ति वाले हों।





✍️ लेखक
गिरीश्वर मिश्र
शिक्षाविद 

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