बदलते दौर में शिक्षकों का नए सिरे से करना होगा मूल्यांकन


जब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन 1962 में देश के दूसरे राष्ट्रपति बने, तब उन्होंने खुद यह सुझाव दिया कि उनका जन्मदिवस शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए। हर साल 5 सिंतबर को देश के तमाम स्कूल-कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में शिक्षक दिवस धूमधाम से मनाया भी जाता है। मगर क्या हम डॉ राधाकृष्णन की कल्पना के अनुरूप शिक्षकों और उनके पेशे को वर्षों बाद भी वह सम्मान दे पाए हैं, जो उनको मिलना चाहिए था? 


चौथी औद्योगिक क्रांति हमारा दरवाजा खटखटा रही है, किंतु हमारी मौजूदा शिक्षा प्रणाली अब भी 18वीं सदी में हुई प्रथम औद्योगिक क्रांति से पैदा हुए रोजगार के ढांचे के अनुरूप संचालित हो रही है। आज शिक्षक दिवस मनाते समय हमें गहराई से यह सोचना होगा कि क्या हमारे शिक्षण संस्थान इस चौथी औद्योगिक क्रांति के बारे में सजग व जागरूक हैं? हमारे नीति--नियंताओं, शिक्षकों व विद्यार्थियों को यह पता होना ही चाहिए कि वर्ष 2030 तक अधिकांश मौजूदा रोजगार खत्म हो जाएंगे और जो नए रोजगार पैदा होंगे, उनकी तैयारी के लिए आवश्यक पाठ्यक्रम, उपकरण, शिक्षक और पढ़ाने के तौर-तरीके अभी हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं।


दरअसल, आज विश्व स्तर पर चौथी औद्योगिक क्रांति के अनुरूप ‘शिक्षा 4.0’ की बहुत चर्चा हो रही है, जिसे मोटे तौर पर चौथी शैक्षणिक क्रांति का नाम दिया जा सकता है। वर्ष 2030 तक दुनिया में शिक्षकों का पेशा खत्म नहीं होने जा रहा, पर उनकी महत्ता और भूमिका में बडे़ बदलाव जरूर आएंगे। सबसे बड़ा बदलाव यह हो सकता है कि शिक्षा का काम सिर्फ व्याख्यान देकर ज्ञान बांटना न होकर युवा-पीढ़ी को एक कोच, मेंटर या मित्र के रूप में भविष्य का रास्ता दिखाने का भी होगा। इसीलिए शिक्षक-दिवस को एक उत्सवधर्मी औपचारिकता न समझते हुए हमें यह सोचना चाहिए कि शिक्षक होने के क्या मायने और सरोकार होते हैं?


शिक्षकों के बारे में समाज की धारणा पिछले 75 वर्षों में कैसे बदल गई, यह हमारे साहित्य और फिल्मों में शिक्षक पात्रों के चरित्र-चित्रण में देखा जा सकता है। 20वीं सदी के लेखकों, जैसे प्रेमचंद, शरत चंद्र, बंकिम चंद्र, रवींद्रनाथ टैगोर आदि ने अपनी रचनाओं में शिक्षकों को बहुत सकारात्मक रूप में चित्रित किया है। भारतीय फिल्में भी शुरुआत में आदर्श रूप में ही शिक्षकों को पेश करती रहीं। मगर पिछले दशकों से फिल्मों में शिक्षकों को कमोबेश एक हास्यास्पद चरित्र के रूप में पेश किया जा रहा है। 


भारतीय समाज ज्ञान-विज्ञान, चरित्र निर्माण, सामाजिक सद्भाव और सामाजिक सरोकार जैसे मूल्यों में अपनी निष्ठा लगातार खो रहा है, जिससे भ्रष्टाचार, धनलिप्सा और अवसरवादिता जैसे नकारात्मक मूल्य उस पर हावी होते गए हैं। इस दौर में शिक्षकों की पेशागत प्रतिबद्धताओं में लगातार क्षरण होते देखा गया है। स्थिति यह है कि देश के कई राज्यों में बहुत से डिग्री कॉलेजों व विश्वविद्यालय परिसरों मेें100 दिन भी पढ़ाई नहीं होती। 


आज उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की तादाद करीब 3.80 करोड़ बताई जाती है। मगर इन विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए जरूरी संसाधनों की कमी भी दिखती है। कल्पना कीजिए, वर्ष 2030 तक उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों की संख्या जब आठ करोड़ हो जाएगी, तब कैसा परिदृश्य होगा? मानव संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट (2018) के अनुसार, इस समय देश में करीब 15 लाख शिक्षक कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में कार्यरत हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार राज्य विश्वविद्यालयों में 40 प्रतिशत और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 35 प्रतिशत शिक्षकों की जगह खाली पड़ी हुई है।


साफ है, भारतीय समाज व सरकार को शिक्षकों की भूमिका का नए सिरे से मूल्यांकन करना होगा। शिक्षकों को भी आत्मालोचना करने की जरूरत है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहा गया है कि शिक्षक हमारे राष्ट्र-निर्माता हैं। शिक्षकों को उच्चस्तरीय सम्मान व जीवन स्तर फिर से मिलना चाहिए, ताकि सर्वश्रेष्ठ युवा प्रतिभाओं को शिक्षक बनने के लिए प्रेरित किया जा सके। क्या हम भारतीय समाज में उनको एक सम्मानजनक स्थान देने की स्थिति में हैं और क्या 21वीं सदी के ज्ञानोन्मुख समाज के लिए हम उन्हें नए सिरे से प्रशिक्षित और प्रेरित कर पाएंगे? इसके जवाब हमें खुद ही ढूंढ़ने होंगे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)  


✍️ लेखक 
हरिवंश चतुर्वेदी,
डायरेक्टर, बिमटेक

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