शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की चुनौती, अब भी स्थापित होती नहीं दिख रही सरकारी स्कूलों की साख


पिछले दिनों एनुअल स्टेटस आफ एजुकेशन (असर) की रिपोर्ट की चर्चा देश भर में हुई। यह रिपोर्ट प्रथम नामक एनजीओ द्वारा 2005 के बाद लगभग प्रतिवर्ष देश के समक्ष आती रही है। इसके अनुसार ऊंची कक्षाओं में पहुंच चुके अधिकांश बच्चे भी कक्षा दो या तीन की गणित, भाषा या अन्य विषयों में अपेक्षित स्तर प्राप्त नहीं कर पाए हैं।


स्पष्ट है कि कोई विद्यार्थी यदि कक्षा सात में पहुंच कर कक्षा तीन का गुणा-भाग नहीं सीख पाया है तो वह भले ही प्रति वर्ष सफल होता रहे, लेकिन कभी भी आत्मविश्वास युक्त एक ऐसा युवा नहीं बन पाएगा, जो अपेक्षित स्तर के कौशल तथा ज्ञान से युक्त होकर अपने कार्यस्थल पर गुणवत्तापूर्ण उत्तरदायित्व का निर्वहन कर सके। ग्रामीण क्षेत्रों में यह स्थिति पिछले अनेक दशकों से अत्यंत चिंताजनक रही है।


इस वर्ष की असर की रिपोर्ट कहती है कि 14 से 18 वर्ष के लगभग 90 प्रतिशत बच्चे स्मार्टफोन का उपयोग करना जानते हैं। 43.7 प्रतिशत लड़कों के पास अपने स्मार्टफोन हैं, जबकि केवल 19.8 प्रतिशत लड़कियां ही इतनी भाग्यशाली हैं। यह भी अत्यंत निराशाजनक है कि 14 से 18 वर्ष के 21 प्रतिशत ग्रामीण बच्चे इस जिज्ञासा का कोई उत्तर नहीं दे सके कि वे आगे चलकर क्या बनना चाहते हैं और क्या करना चाहते हैं? सबसे अधिक 13 प्रतिशत ने पुलिस और 11.4 प्रतिशत ने अध्यापक बनने की इच्छा व्यक्त की।


अपने अनुभव के आधार पर मेरा निष्कर्ष पर यह है कि ग्रामीण क्षेत्र मे 14 से ऊपर के आयु वर्ग के युवाओं में निराशा धीरे-धीरे बढ़ने लगती है। जैसे-जैसे वे अपने आस-पास हो रही नियुक्तियों की प्रक्रिया को देखते हैं तो उन्हें लगने लगता है कि जो घोर प्रतिस्पर्धा उनके समक्ष आने वाली है, उसके लिए आवश्यक संसाधन और स्रोत जुटा पाना असंभव होगा। ऐसी स्थिति में यह वर्ग बड़ी अपेक्षाएं नहीं करता। उसे सबसे अधिक संभाव्य अध्यापक बनना प्रतीत होता है। इसमें आस-पास के इलाके में पद-स्थापना की संभवना अधिक होती है।


नई शिक्षा नीति यह स्पष्ट करती है कि आगे के वर्षों में अध्यापकों की नियुक्तियां केवल नियमित आधार पर ही की जाएंगी। अस्थायी नियुक्तियों का चलन बंद किया जाएगा, क्योंकि इसमें गुणवत्ता नकारात्मक ढंग से प्रभावित होती है। राज्य सरकारें इस संस्तुति को कितनी प्राथमिकता देंगी, यह गंभीरता से देखना होगा।


आज भारत उस दौर में पहुंच चुका है, जहां माता-पिता अपने लड़के-लड़कियों को समान रूप से शिक्षित करना चाहते हैं। उन्हें अब अच्छी गुणवत्ता और कौशल प्रदान करने वाली शिक्षा स्कूलों में चाहिए, पर अनेक प्रकार के सुधारों के बाद भी 1960 के पश्चात लगातार गिर रही सरकारी स्कूलों की साख अभी भी सुधार की दिशा में अग्रसर नहीं है। यह कड़वा सत्य है। इसे स्वीकार करने पर ही इन स्कूलों की साख और स्वीकार्यता बढ़ाने के प्रयास ईमानदारी से प्रारंभ हो सकेंगे। यदि लोगों के पास विकल्प के रूप में पूरी तरह से तैयार सरकारी स्कूल उपलब्ध हों तो वे वहीं अपने बच्चे भेजेंगे।


भारत सरकार ने अभी पीएम श्री स्कूल योजना के अंतर्गत 14,500 स्कूल खोलने की प्रक्रिया प्रारंभ की है। पहले से भी देश में केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, मिलिट्री स्कूल, कस्तूरबा गांधी विद्यालय जैसे स्कूल स्थापित किए गए हैं, लेकिन इनकी संख्या सीमित होने के कारण ये सभी की पहुंच से दूर ही रह जाते हैं। पीएम श्री स्कूलों से अच्छे स्कूलों का देश भर में फैलाव बढ़ेगा। इसका असर अन्य स्कूलों पर भी पड़ेगा।


राज्य सरकारें यदि स्कूलों के प्रति अपनी प्राथमिकता ऊंची करें और आवश्यक भौतिक तथा मानवीय संसाधन उपलब्ध कराने में कोताही न करें तो वे स्वयं भी पीएम श्री जैसे स्कूलों का अनुसरण करने की दिशा में आगे बढ़ सकती हैं। उन्हीं देशों का भविष्य सुनहरा है, जहां ज्ञान-बुद्धि-विवेक की प्राथमिकता स्वीकार्य होगी और जो राष्ट्र नई पीढ़ी को इसके लिए तैयार करने में कोई कोताही नहीं करेंगे। भारत में अभी भी 50-60 प्रतिशत से अधिक स्कूल ऐसे हैं, जहां कई प्रकार की कमियां लंबे समय तक बनी रहती हैं। इनमें कुछ सुधार तो हुए हैं, लेकिन उन सुधारों की निरंतरता प्रायः शिथिल हो जाती है।


स्कूलों का समय से खुलना और प्रतिदिन वहां पर हर अध्यापक द्वारा अपना उत्तरदायित्व निष्ठापूर्वक निभाया जाना आज भी भारत में व्यवस्थित नहीं हो पाया है। इसमें तो आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता नहीं है, लेकिन नैतिकता, अनुशासन तथा ईमानदार अधिकारियों की सख्त आवश्यकता है। ऐसा तब संभव होगा जब देश के शिक्षक दैनंदिन कार्य संस्कृति में नैतिकता, समय पर उत्तरदायित्व निर्वाह और समाज के प्रति कर्तव्य-समर्पण को उजागर करते रहें।


प्रसिद्ध चिंतक और दार्शनिक गुन्नार मिर्डल ने बहुत पहले कहा था कि विकासशील देशों के लिए शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान गुणवत्तापूर्ण सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन के मुख्य स्रोत हैं। भारत को इस दिशा में बहुत बड़े प्रयास करने की आवश्यकता है।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ने इस संबंध में चिंता व्यक्त की है और अपेक्षा की है कि आगे चलकर अध्यापक प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया में बड़े सुधार किए जाएंगे। इसे युद्ध-स्तर पर करना होगा, क्योंकि एक अपूर्ण अध्यापक हजारों बच्चों के जीवन में नकारात्मक प्रवृत्तियां सम्मिलित कर सकता है। शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों को नैतिक मूल्यों, नैतिकता-आधारित प्रबंधन और समर्पित कार्य संस्कृति के अनुकरणीय स्थल के रूप में अपने को विकसित करना होगा। यह करना ही होगा, कोई अन्य विकल्प है ही नहीं।



✍️  जगमोहन सिंह राजपूत

(लेखक शिक्षा, सामाजिक सद्भाव और पंथक समरसता के क्षेत्र में कार्यरत हैं)

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