जल्दबाजी के फैसले और बाल मन पर बढ़ता बोझ, ऐसी शिक्षा पर क्यों न हो पुनर्विचार?
मनोविज्ञान की परवाह करें जो देश,
हर नीतियों में बच्चों का दिखे संदेश।
हम तो स्कूल चलाते देकर केवल आदेश,
भूल जाते हैं उनका दिल और परिवेश।
शिक्षा किसी भी समाज के विकास और उसकी स्थिरता का मूल आधार है। विश्व के विकसित देश जब कोई शैक्षिक योजना बनाते हैं, तो वह केवल नीतिगत या प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं होती; वह गहन मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक शोध का परिणाम होती है। विशेषज्ञों की टीम बच्चों के मनोविज्ञान, सामाजिक और आर्थिक स्थितियों का विश्लेषण करती है। बड़े स्तर पर सेम्पलिंग, पायलट प्रोजेक्ट और गहन अध्ययन के बाद योजनाओं को लागू किया जाता है। लेकिन भारत में, शैक्षिक नवाचारों और नीतियों को अपनाने में ऐसी गंभीरता और धैर्य अक्सर नदारद नजर आता है।
भारत में अक्सर देखा गया है कि शिक्षा के क्षेत्र में निर्णय जल्दी और बिना गहराई से सोच-विचार के ले लिए जाते हैं। नये कार्यक्रम ऊपर से नीचे तक लागू कर दिए जाते हैं, चाहे वे बच्चों के हित में हों या नहीं। उदाहरण के तौर पर, एक राज्य में पाठ्यक्रम बदलने का निर्णय लिया जाता है, तो वह पूरे देश के लिए अनुकरणीय मान लिया जाता है, भले ही उसके परिणामों का मूल्यांकन न हुआ हो।
ऐसी प्रक्रिया न केवल बच्चों के मनोविज्ञान पर नकारात्मक प्रभाव डालती है, बल्कि शिक्षकों के काम के दबाव को भी बढ़ाती है। बाल मनोविज्ञान का अध्ययन न करना और जल्दबाजी में योजनाओं को लागू करना शिक्षा प्रणाली को कमजोर बनाता है। इससे बच्चों की प्राकृतिक जिज्ञासा और सीखने की इच्छा दब सकती है।
फिनलैंड, जापान और जर्मनी जैसे देशों से हमें सीखने की आवश्यकता है, जहां शैक्षिक नीति निर्माण में अनुसंधान और मनोविज्ञान को प्राथमिकता दी जाती है। उदाहरण के लिए, फिनलैंड में पाठ्यक्रम को बच्चों की सीखने की गति और मानसिक विकास के अनुरूप डिजाइन किया गया है। इसके विपरीत, भारत में कई बार पाठ्यक्रम बच्चों की क्षमता और आवश्यकता से अधिक जटिल बना दिया जाता है, जिससे उनके मानसिक तनाव में वृद्धि होती है।
शैक्षिक मनोविज्ञान का उद्देश्य यह समझना है कि बच्चे कैसे सीखते हैं और उनकी मानसिक संरचना किस प्रकार उनकी शिक्षा को प्रभावित करती है। भारत में इस दिशा में काम करने की जरूरत है। योजनाओं को लागू करने से पहले विशेषज्ञों की सलाह, बच्चों और शिक्षकों की प्रतिक्रिया, और पायलट प्रोजेक्ट के परिणामों का विश्लेषण करना चाहिए।
समाधान की ओर
1. शोध आधारित नीति निर्माण: हर नयी योजना के लिए व्यापक शोध और पायलट परीक्षण अनिवार्य किया जाना चाहिए।
2. शिक्षकों की भागीदारी: शिक्षकों को नीतिगत चर्चाओं में शामिल किया जाए क्योंकि वे बच्चों के सबसे नजदीक होते हैं।
3. अंतरराष्ट्रीय अनुभव का लाभ: उन देशों के अनुभवों को अपनाएं जो शैक्षिक नवाचारों में सफल रहे हैं।
4. स्थिरता और धैर्य: जल्दबाजी से बचते हुए योजनाओं के दीर्घकालिक प्रभावों का आकलन किया जाए।
शिक्षा को किसी प्रयोगशाला में किये जाने वाले प्रयोग के रूप में नहीं देखा जा सकता। बच्चों का मन बेहद संवेदनशील और जटिल होता है। भारत को शैक्षिक मनोविज्ञान को प्राथमिकता देते हुए योजनाएं बनानी होंगी, ताकि शिक्षा का उद्देश्य केवल साक्षरता नहीं, बल्कि ज्ञान, कौशल और चरित्र निर्माण भी हो।
✍️ लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।
Post a Comment