ग्रामीण बचपन की मासूमियत रील्स रूपी डिजिटल आघात
"गांव के बच्चे अब भी मासूम हैं,
पर रीलों के पीछे वो मज़बूर हैं।"
ग्रामीण भारत के स्कूल, जहां बच्चे अक्सर प्रकृति और पारंपरिक मूल्यों से जुड़े रहते थे, अब सोशल मीडिया की क्रांति से अछूते नहीं रहे। स्मार्टफोन की सुलभता और इंटरनेट के प्रसार ने बच्चों को वैश्विक दुनिया से जोड़ा है। हालांकि, यह जुड़ाव उनके सामाजिक और मानसिक विकास में नए आयाम लेकर आया है, परंतु इसके नकारात्मक प्रभाव भी स्कूलों में उनके व्यवहार में स्पष्ट दिखने लगे हैं।
आजकल बच्चे मनोरंजन और आत्म-अभिव्यक्ति के लिए रील्स और वीडियो बनाते हैं। यह प्लेटफॉर्म उन्हें अपनी रचनात्मकता दिखाने का अवसर देते हैं, लेकिन ग्रामीण पृष्ठभूमि के बच्चों पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, एक 14 वर्षीय बच्चा जो पहले कृषि और पढ़ाई में रुचि रखता था, अब दिनभर वीडियो बनाने और उन्हें वायरल करने में लगा रहता है। उसका ध्यान पढ़ाई से हट गया है और शिक्षक उसके व्यवहार में बदलाव देख रहे हैं।
रील्स और सोशल मीडिया पर बच्चों की बढ़ती निर्भरता ने उनके सामाजिक और मानसिक स्वभाव में कई बदलाव लाए हैं। सबसे पहले, बच्चों की रुचि अब दोस्तों के साथ खेल-कूद में नहीं, बल्कि सोशल मीडिया पर दूसरों को प्रभावित करने में है। वे वास्तविक संबंधों से अधिक वर्चुअल रिश्तों को महत्व देने लगे हैं। दूसरा, आत्मसम्मान और पहचान संकट का खतरा बढ़ गया है। रील्स के माध्यम से बच्चों में आत्म-प्रदर्शन की होड़ बढ़ गई है। वे लाइक और कमेंट्स पर अपने आत्मसम्मान को आधार बनाते हैं। जब अपेक्षाएं पूरी नहीं होतीं, तो बच्चे मानसिक तनाव का शिकार हो जाते हैं।
शिक्षक इन परिवर्तनों को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। स्कूलों में अनुशासनहीनता बढ़ रही है। बच्चे स्कूल के नियमों का पालन करने में रुचि नहीं दिखा रहे। उनके लिए शिक्षक के निर्देश कम महत्वपूर्ण हो गए हैं। ग्रामीण बच्चे, जो पहले समूह में पढ़ाई और गतिविधियां करते थे, अब व्यक्तिगत उपलब्धियों को प्राथमिकता देने लगे हैं। इसके साथ ही, सोशल मीडिया पर अधिक समय बिताने के कारण उनका ध्यान अध्ययन में कम हो गया है।
शिक्षाशास्त्रीय दृष्टिकोण से इन समस्याओं का समाधान संभव है। सबसे पहले, बच्चों को सोशल मीडिया के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों के बारे में सिखाना आवश्यक है। मीडिया साक्षरता शिक्षा के माध्यम से उन्हें समझाया जाए कि ये केवल मनोरंजन के माध्यम हैं, जीवन का उद्देश्य नहीं। इसके साथ ही, स्कूलों में ऐसे कार्यक्रम आयोजित किए जाएं जो बच्चों की ऊर्जा और रचनात्मकता को सकारात्मक दिशा में मोड़ सकें। जैसे कि स्थानीय कला और संस्कृति से जुड़े प्रतियोगिताएं।
इसके अतिरिक्त, शिक्षक और अभिभावक बच्चों से संवाद बढ़ाएं। उन्हें सोशल मीडिया के दुष्प्रभावों से अवगत कराएं। स्कूल प्रबंधन को चाहिए कि कक्षाओं में स्मार्टफोन के उपयोग पर प्रतिबंध लगाएं। इन उपायों से बच्चों में जागरूकता लाकर उनके मानसिक और सामाजिक विकास को संतुलित किया जा सकता है।
सोशल मीडिया का प्रभाव अपरिहार्य है, लेकिन इसे नियंत्रित और सही दिशा में उपयोग करना आवश्यक है। ग्रामीण पृष्ठभूमि के बच्चों में जागरूकता लाकर उनके मानसिक और सामाजिक विकास को संतुलित किया जा सकता है। शिक्षा और तकनीक के बीच संतुलन बनाना आज के समय की सबसे बड़ी चुनौती है।
सोशल मीडिया क्रांति को रोकना संभव नहीं है, लेकिन इसे सही दिशा में उपयोग करना जरूरी है। शिक्षकों, अभिभावकों और समाज को मिलकर बच्चों के सामाजिक और मानसिक विकास में संतुलन लाने की जिम्मेदारी निभानी होगी। सही मार्गदर्शन से यह क्रांति ग्रामीण भारत के बच्चों के लिए एक वरदान भी बन सकती है।
नन्ही आँखों में बसा अब मोबाइल का जादू,
खो गए खेत-खलिहान और रिश्तों के जादू।
✍️ लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।
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