क्या शिक्षक को केवल एक कर्मिक या नौकर माना जा सकता है? 


किताबें छोड़, अब कागज़ भरते हैं,
जो थे दीपक, अब अंधेरों से डरते हैं।

प्राचीन भारतीय परंपरा में शिक्षक या गुरु का स्थान देवताओं के समकक्ष रखा गया था। गुरु न केवल ज्ञान प्रदान करते थे, बल्कि शिष्य के चरित्र निर्माण, नैतिकता, और सामाजिक उत्तरदायित्व का विकास भी करते थे। “गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः” जैसे श्लोक इस बात को प्रमाणित करते हैं कि शिक्षक का कार्य केवल शिक्षा देना नहीं, बल्कि जीवन के हर पहलू में मार्गदर्शन करना है। परंतु वर्तमान समय में, शिक्षक को केवल एक कर्मिक या सरकारी कर्मचारी के रूप में देखा जाने लगा है। यह दृष्टिकोण शिक्षक की गरिमा और समाज में उसकी भूमिका पर गहरा आघात करता है।  


शिक्षक और कर्मिक का अंतर  
एक शिक्षक और एक कर्मिक (सरकारी कर्मचारी) के बीच मूल अंतर उनके कार्य की प्रकृति और उद्देश्य में निहित है।  


1. कार्य का उद्देश्य:
शिक्षक का उद्देश्य विद्यार्थियों में ज्ञान, नैतिकता, और विवेक का विकास करना है। वह समाज को शिक्षित और जागरूक बनाता है। कर्मिक का उद्देश्य प्रशासकीय आदेशों का पालन करना और सरकार की योजनाओं को क्रियान्वित करना है।  

2. कार्य की प्रकृति:
शिक्षक का कार्य सृजनात्मक और प्रेरणादायक होता है। वह अपनी समझ और अनुभव से शिक्षा को जीवनोपयोगी बनाता है। कर्मिक का कार्य प्रशासनिक होता है, जिसमें नवाचार या सृजनशीलता की अपेक्षा नहीं होती।  

3. संबंधों की गहराई: 
शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध विश्वास, आदर, और मार्गदर्शन पर आधारित होता है। कर्मिक और जनता का संबंध औपचारिक और सीमित होता है।  

4. समाज में स्थान: 
शिक्षक समाज के भविष्य निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाता है। वह न केवल शिक्षा देता है, बल्कि समाज को नैतिकता और मूल्यों की ओर भी प्रेरित करता है। कर्मिक समाज के विकास के लिए व्यवस्थागत योगदान देता है, लेकिन उसकी भूमिका सीमित और प्रायः आदेश-निर्भर होती है।  


वर्तमान परिदृश्य  
आज के समय में शिक्षक को प्रशासनिक कार्यों जैसे जनगणना, मतदान, सर्वेक्षण, और सरकारी योजनाओं के प्रचार में व्यस्त कर दिया गया है। यह स्थिति न केवल शिक्षकों के मूल कार्य, यानी शिक्षा, को बाधित करती है, बल्कि उन्हें उनकी गरिमा से भी वंचित करती है। एक शिक्षक, जो समाज को दिशा दिखाने वाला पथप्रदर्शक है, प्रशासनिक आदेशों का पालन करने वाला "कर्मिक" बनकर रह गया है।  

इस बदलाव ने समाज में शिक्षक की भूमिका और महत्व को कम कर दिया है। पहले जहां शिक्षक को आदर और श्रद्धा से देखा जाता था, आज उसे केवल एक कर्मचारी के रूप में देखा जाने लगा है। यह न केवल शिक्षकों के मनोबल को गिराता है, बल्कि शिक्षा की गुणवत्ता को भी प्रभावित करता है।  


निष्कर्ष  
शिक्षक और कर्मिक के बीच का अंतर केवल कार्य की प्रकृति में नहीं, बल्कि समाज में उनके योगदान के स्तर में है। शिक्षक केवल पाठ्यक्रम पढ़ाने वाला नहीं है; वह एक मार्गदर्शक, प्रेरक, और समाज का निर्माता है। यदि शिक्षक को कर्मिक की भूमिका में बांध दिया जाएगा, तो यह शिक्षा प्रणाली और समाज दोनों के लिए घातक सिद्ध होगा।  

समाज और प्रशासन को यह समझना होगा कि शिक्षक की भूमिका आदेश पालन करने तक सीमित नहीं हो सकती। उसे उसकी गरिमा, स्वतंत्रता, और सृजनशीलता वापस देनी होगी। शिक्षकों को गैर-शैक्षिक कार्यों से मुक्त किया जाए ताकि वे शिक्षा के माध्यम से समाज को सही दिशा में ले जा सकें। एक शिक्षक केवल कर्मिक नहीं है, वह राष्ट्र का निर्माता है। जब यह बात समाज और सरकार समझेगी, तभी शिक्षक का वास्तविक स्थान और महत्व पुनः स्थापित होगा।  


✍️  लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर


परिचय

बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।

शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।

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