नीतियों की डोर पर नाचते कठपुतली बने शिक्षक रहेंगे कितने उपयोगी? 


शिक्षा का मूल उद्देश्य न केवल ज्ञान प्रदान करना है, बल्कि छात्रों को सोचने, निर्णय लेने, और जीवन में अपनी चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करना है। जब शिक्षकों को इस प्रक्रिया में सीमित कर दिया जाता है और उन्हें सटीक रूप से बताया जाता है कि क्या पढ़ाना है, कैसे पढ़ाना है, और किस आधार पर मापना है, तो यह उनकी रचनात्मकता और शिक्षण के प्रति समर्पण को बाधित करता है। यह एक ऐसी स्थिति उत्पन्न करता है जहां शिक्षक एक कठपुतली बनकर रह जाते हैं, जिन्हें नीतियां और योजनाएं नियंत्रित करती हैं। 


शिक्षक न केवल एक पाठ्यक्रम के कार्यान्वयनकर्ता हैं, बल्कि वे छात्रों की मानसिक, सामाजिक, और शैक्षणिक प्रगति के मार्गदर्शक भी हैं। उनका अनुभव और छात्र के प्रति उनकी समझ, उन्हें यह निर्णय लेने में सक्षम बनाती है कि छात्रों के लिए सबसे उपयुक्त क्या है। लेकिन जब उनके हाथ बांध दिए जाते हैं और उनके फैसले नीति निर्माताओं और अधिकारियों द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं, तो छात्रों को अनुकूलन और विविधता का लाभ नहीं मिल पाता। 


आजकल शिक्षा नीतियां मुख्य रूप से डेटा संग्रह, मानकीकरण, और परिणाम आधारित मूल्यांकन पर केंद्रित हैं। इस प्रक्रिया में, शिक्षकों को तयशुदा पाठ्यक्रम पढ़ाने, अनुशासनात्मक सीमाओं का पालन करने, और निर्धारित तरीके से छात्रों का आकलन करने के लिए बाध्य किया जाता है। यह एक यांत्रिक प्रक्रिया की ओर इशारा करता है, जिसमें शिक्षकों को एक स्वतंत्र शिक्षाविद से एक रोबोटिक प्रणाली का हिस्सा बना दिया गया है।


एक शिक्षक को कठपुतली के रूप में देखना एक शिक्षाशास्त्रीय त्रासदी है। यह न केवल उनकी स्वायत्तता का ह्रास करता है, बल्कि उनके आत्मसम्मान और उनकी भूमिका की गहराई को भी प्रभावित करता है। 


नाचते देखा है मैंने सच को जिम्मेदारों की उंगली पर,
शिक्षक बना कठपुतली अब नीतियों की डोर पर।
 

शिक्षा में सुधार केवल तब संभव है जब शिक्षक स्वतंत्र रूप से सोचने और निर्णय लेने में सक्षम हों। नीतियों को इस प्रकार बनाया जाना चाहिए कि वे शिक्षक की स्वायत्तता को प्रोत्साहित करें। शिक्षकों को उनकी क्षमता और अनुभव के आधार पर छात्रों की जरूरतों के हिसाब से निर्णय लेने की अनुमति दी जानी चाहिए। साथ ही, प्रशासनिक दबाव को कम करके एक ऐसा वातावरण बनाया जाना चाहिए जिसमें शिक्षक बिना डर और दबाव के अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें। 


शिक्षा एक सतत प्रक्रिया है, और शिक्षक उसका केंद्रीय स्तंभ हैं। यदि उन्हें कठपुतली बना दिया गया, तो शिक्षा का मूल उद्देश्य नष्ट हो जाएगा। यह समय है कि शिक्षक अपनी गरिमा और स्वायत्तता को पुनः प्राप्त करें, ताकि वे अपनी वास्तविक भूमिका निभा सकें।


 ✍️  लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर


परिचय

बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।

शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।

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