स्कूली शिक्षा व्यवस्था की समस्या बनते जा रहे आदेशों के बढ़ते पहाड़
आदेशों के पहाड़ तले दबे जा रहे हैं स्कूल और गुरुजन,
पढ़ाई के सपने अब हो रहे लगातार धुंधले और मद्धम।
शिक्षा क्षेत्र में गुणवत्ता सुधार की आवश्यकता के मद्देनज़र, विभिन्न स्तरों पर अधिकारियों द्वारा दिए जाने वाले आदेश अनिवार्य रूप से एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन, जब आदेशों की संख्या आवश्यकता से अधिक हो जाए और उनकी प्रभावी संप्रेषणीयता पर ध्यान न दिया जाए, तो यह शिक्षा व्यवस्था पर दुष्प्रभाव डाल सकता है। यह समस्या शिक्षकों के लिए एक गंभीर चुनौती बन चुकी है।
उत्तर प्रदेश सहित भारत के अन्य राज्यों में प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में सुधार और पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से विभिन्न स्तरों पर अधिकारी सक्रिय हो चुके हैं। यह सक्रियता शिक्षकों के लिए नई चुनौतियां भी लेकर आई है। केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकारों के शासनादेशों और आदेशों के बाद डायट, जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी, सर्व शिक्षा अभियान, जिलाधिकारी और मुख्य विकास अधिकारी जैसे अलग-अलग स्तरों से आदेशों की बाढ़ आ गई है। एक ओर जहां इन आदेशों का उद्देश्य शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारना है, वहीं दूसरी ओर इनकी अधिकता ने शिक्षकों को भ्रम और कठिनाइयों में डाल दिया है। इस स्थिति का सबसे बड़ा असर स्कूल की दिनचर्या और छात्रों के पठन-पाठन पर पड़ा है।
वर्तमान समय में शिक्षक उन आदेशों का पालन करने में असमर्थ हैं, जिन्हें या तो समय पर साझा नहीं किया गया या जो इतने अस्पष्ट हैं कि उनके अनुपालन में बाधा उत्पन्न होती है। पुराने आदेशों के साथ-साथ नए आदेशों की भरमार से शिक्षक तनावग्रस्त हैं। कई बार आदेश मौखिक या व्हाट्सएप संदेशों के माध्यम से आते हैं, जो शिक्षकों को भ्रमित कर देते हैं। निरीक्षण के दौरान इन आदेशों का पालन न होने पर शिक्षकों को कठोर आलोचना का सामना करना पड़ता है। यह स्थिति न केवल शिक्षकों के मनोबल को गिराती है, बल्कि स्कूल की शैक्षणिक गतिविधियों को भी बाधित करती है।
दिन भर आधिकारिक व्हाट्सएप ग्रुपों में मांगी गई सूचना और आदेशों के अनुपालन के निर्देशों और आदेशों की यह अधिकता शिक्षकों और स्कूल की दिनचर्या पर गहरा असर डाल रही है। आदेशों की यह अधिकता शिक्षकों को एक कठपुतली में बदल रही है। वे केवल आदेशों का पालन करने वाले कर्मचारी बन गए हैं। इससे उनकी रचनात्मकता और शिक्षण क्षमता पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। शिक्षकों का अधिकतर समय कागजी कार्यों और रिपोर्ट बनाने में लग रहा है, जिससे वे छात्रों के समग्र विकास पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। छात्र भी इस स्थिति से प्रभावित हैं। उन्हें योग्य शिक्षकों से जो समय और मार्गदर्शन मिलना चाहिए, वह आदेशों की पूर्ति में व्यर्थ हो रहा है। यह स्थिति छात्रों की पढ़ाई के साथ-साथ उनके मानसिक और भावनात्मक विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है।
बेसिक शिक्षकों के सामने यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या वे केवल आदेशों का पालन करने वाले प्रशासनिक कर्मचारी बनकर रह गए हैं। शिक्षकों की रचनात्मकता और शिक्षा में उनके योगदान को नजरअंदाज करते हुए उन्हें केवल आदेशों के अनुपालन तक सीमित कर दिया गया है। यह स्थिति शिक्षकों के मनोबल और उनकी प्रेरणा को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही है।
इस समस्या का समाधान केवल आदेशों की संख्या को कम करने तक सीमित नहीं है। इसके लिए संपूर्ण शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है। सबसे पहले, आदेशों को केंद्रीय स्तर पर व्यवस्थित किया जाना चाहिए। केवल वही आदेश जारी किए जाने चाहिए जो वास्तव में आवश्यक और उपयोगी हों। आदेशों को लिखित रूप में समयबद्ध तरीके से जारी किया जाना चाहिए, ताकि शिक्षक और प्रधानाध्यापक उन्हें समय रहते समझ सकें और उनका पालन कर सकें। इसके अलावा, शिक्षकों की राय भी आदेशों के निर्माण और क्रियान्वयन प्रक्रिया में शामिल की जानी चाहिए। तकनीकी समाधान भी इस समस्या को हल करने में सहायक हो सकते हैं। सभी आदेशों को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध कराया जा सकता है, जहां शिक्षक उन्हें देख सकें और उनका पालन कर सकें। इससे भ्रम की स्थिति कम होगी और शिक्षकों के समय की बचत होगी।
कौन इंकार करेगा कि अंततः शिक्षा का मूल उद्देश्य छात्रों का समग्र विकास ही है। इसलिए आदेशों और प्रशासनिक कार्यों का बोझ कम कर शिक्षकों को उनके शैक्षणिक कार्यों पर ध्यान केंद्रित करने का अवसर देना चाहिए। इसके लिए शिक्षा विभाग और प्रशासन को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके प्रयास शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के उद्देश्य से हों, न कि केवल आदेशों की संख्या बढ़ाने के लिए।
शिक्षा केवल आदेशों से नहीं सुधारी जा सकती। यह शिक्षक और छात्रों के बीच एक व्यवस्थित और सकारात्मक संवाद से ही संभव है। शिक्षकों पर आदेशों का भार कम करना न केवल उनकी दक्षता को बढ़ाएगा, बल्कि शिक्षा की गुणवत्ता को भी सुनिश्चित करेगा। शिक्षकों को प्रशासनिक कार्यों से मुक्त करके शैक्षणिक गतिविधियों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना ही शिक्षा के मूल उद्देश्य की पूर्ति करेगा। शिक्षा का असली उद्देश्य छात्रों को ज्ञान और नैतिकता से परिपूर्ण करना है। आदेशों की भरमार से शिक्षकों की प्राथमिक भूमिका बाधित हो रही है। पांच या दस साल की सुविचारित योजना से न केवल शिक्षकों को इस जाल से मुक्त किया जा सकता है, बल्कि शिक्षा की गुणवत्ता में भी सुधार किया जा सकता है। शिक्षकों को उनकी रचनात्मकता और शिक्षा देने की शक्ति लौटाने का यह समय है।
✍️ लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।
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