दक्ष और निपुण बनाए जाने के दबाव में आज के बच्चे 


किताबों के पहाड़ों में दब गया बचपन,
खेलों की सूरतों से छिन गया अपनापन।
ख्वाब थे जिनमें रंग भरने की फुर्सत नहीं,
पढ़ाई के नाम पर क्यों लुट गया जीवन।


दक्ष और निपुण बनाए जाने के दबाव में आज के बच्चों पर अत्यधिक अपेक्षाओं का बोझ लाद दिया गया है। यह दबाव न केवल उनकी मासूमियत को छीन रहा है, बल्कि उनके मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास को भी बाधित कर रहा है। 


वर्तमान युग प्रतिस्पर्धा का है, जहां सफलता का अर्थ केवल उच्च अंक, पदक और प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रवेश तक सीमित कर दिया गया है। इस दौड़ में घर और स्कूल, जो कभी बच्चों के सर्वांगीण विकास के सहायक थे, अब उनके लिए अपेक्षाओं और मानकों का बोझ बन गए हैं। शिक्षा, जो कभी ज्ञान और आनंद का माध्यम थी, अब केवल परीक्षा और ग्रेड के लिए सीमित हो गई है। पाठ्यक्रम का बढ़ता भार, गृहकार्य की अधिकता और लगातार होने वाली परीक्षाओं ने बच्चों के सीखने की प्रक्रिया को बोझिल बना दिया है। इसके अतिरिक्त, माता-पिता की यह धारणा कि उनका बच्चा हर क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ हो, बच्चों के कंधों पर अनावश्यक दबाव डाल रही है।  


तकनीकी युग ने भी इस समस्या को और गहरा कर दिया है। सोशल मीडिया और इंटरनेट के माध्यम से बच्चे खुद को दूसरों से तुलना करने लगे हैं। इस तुलना की दौड़ में वे अपनी रुचियों और स्वाभाविक प्रतिभाओं से दूर हो रहे हैं। अत्यधिक दबाव का प्रभाव बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर विशेष रूप से देखा जा सकता है। चिंता, तनाव और अवसाद जैसी समस्याएं बच्चों में तेजी से बढ़ रही हैं। वे असफलताओं को स्वीकार नहीं कर पाते और आत्मविश्वास खो देते हैं। इसके साथ ही, शिक्षा का यह बोझ उनकी सृजनात्मकता को भी खत्म कर रहा है। खेल-कूद और अन्य रचनात्मक गतिविधियों के लिए समय का अभाव उनकी रचनात्मक सोच को दबा देता है। शारीरिक स्वास्थ्य पर भी यह बोझ हानिकारक प्रभाव डाल रहा है। भारी बस्तों और लंबे समय तक बैठकर पढ़ाई करने से उनकी शारीरिक फिटनेस प्रभावित हो रही है।  


इस दबाव के कारण बच्चे समाज और परिवार से भी दूर हो रहे हैं। व्यस्त दिनचर्या और पढ़ाई की अपेक्षाओं के कारण वे अपने परिवार और दोस्तों के साथ समय नहीं बिता पाते, जिससे उनका सामाजिक विकास बाधित हो रहा है। इन समस्याओं का समाधान घर और स्कूल के सामूहिक प्रयासों से ही संभव है। सबसे पहले, माता-पिता और शिक्षकों को बच्चों की रुचियों और क्षमताओं को समझने का प्रयास करना चाहिए। बच्चों के विकास को उनके स्वाभाविक कौशल के अनुसार प्रोत्साहित करना ही बेहतर शिक्षा का आधार बन सकता है। पढ़ाई और अन्य गतिविधियों के बीच संतुलन बनाना भी जरूरी है। बच्चों को खेलने और आराम करने के लिए पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए।  


बच्चों के साथ सकारात्मक संवाद स्थापित करना भी उनकी मानसिक स्थिति को बेहतर बनाता है। जब माता-पिता और शिक्षक बच्चों की परेशानियों को सुनते हैं और उन्हें प्रोत्साहन देते हैं, तो यह उनके आत्मविश्वास को बढ़ाने में मदद करता है। बच्चों को स्वतंत्रता और प्रेरणा देना भी महत्वपूर्ण है। उन्हें अपने फैसले लेने और गलतियां करने की आजादी मिलनी चाहिए, ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें और सीखने की प्रक्रिया को बेहतर तरीके से समझ सकें।  


हमें यह समझना होगा कि दक्षता का अर्थ केवल अंक और उपलब्धियां नहीं हैं। हर बच्चा अपने आप में एक अनोखा व्यक्तित्व है, जिसकी अपनी क्षमताएं और रुचियां होती हैं। शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को स्वतंत्र, रचनात्मक और खुशहाल बनाना होना चाहिए, न कि उन्हें केवल मशीनों की तरह काम करने के लिए तैयार करना। ऐसे माहौल की आवश्यकता है जहां बच्चे अपनी पूरी क्षमता के साथ आगे बढ़ सकें। यह न केवल उनके बचपन को बचाने में मदद करेगा, बल्कि हमारे समाज और भविष्य को भी उज्ज्वल बनाएगा।

मुकाबले की जंग ने मासूमियत को हराया,
हर तरफ बस अंकों का ही खेल चलाया।
सवाल ये है कि दौड़ जीत भी लें अगर,
क्या खोया जो कभी लौटकर नहीं आया?


✍️  लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर


परिचय

बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।

शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।

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