प्राइमरी का मास्टर डॉट कॉम के फैलाव के साथ कई ऐसे साथी इस कड़ी में जुड़े जो विचारवान भी हैं और लगातार कई दुश्वारियों के बावजूद बेहतर विद्यालय कैसे चलें, इस पर लगातार कोशिश विचार के स्तर पर भी और वास्तविक धरातल पर भी करते  है। चिंतन मनन करने वाले ऐसे शिक्षक साथियों की कड़ी में आज आप सबको अवगत कराया जा रहा है जनपद फ़तेहपुर की सक्रिय शिक्षिका साथी  श्रीमती रश्मि श्रीवास्तव से!  स्वभाव से सौम्य, अपनी बात कहने में सु-स्पष्ट और मेहनत करने में सबसे आगे ऐसे विचार धनी शिक्षिका श्रीमती रश्मि श्रीवास्तव जी  का 'आपकी बात' में स्वागत है।

इस आलेख में उन्होने शिक्षकों को  आत्मावलोकन करने की सलाह देते हुये अपने शैक्षिक कर्तव्यों और प्रयासों के प्रति चैतन्य रहने की सलाह देते हुये आत्म-चिंतन  करने की अपील की है। हो सकता है कि आप उनकी बातों से शत प्रतिशत सहमत ना हो फिर भी विचार विमर्श  की यह कड़ी कुछ ना कुछ सकारात्मक प्रतिफल तो देगी ही, इस आशा के साथ आपके समक्ष श्रीमती रश्मि श्रीवास्तव  जी  का आलेख प्रस्तुत है।


सुविधादायी होने के फेर में कहीं हम शिक्षक साथी भटक तो नहीं रहे अपने कर्तव्य पथ से?
समाज मे चहुँ ओर हम शिक्षकों के प्रति, लोगों मे एक पूर्वाग्रह व्याप्त है। यह पूर्वाग्रह भी बेवजह नही है और ना ही ये एक ही दिन मे बन गया है। वजहें जो भी हैं उन्हे यद्यपि गिनाने की ज़रूरत तो नही है लेकिन सांकेतिक रूप से मै दो बिंदुओं की ओर ध्यान दिलाना चाहूँगी। एक तो है मीडिया द्वारा हमारे केवल स्याह पक्ष को ही उजागर करना और दूसरा है हमारा सुविधा भोगी हो जाना। मीडिया ने जहाँ एकपक्षीय तस्वीर ही पेश की है वहीं 'सुविधा' और 'सुविधाशुल्क' के चलन ने हम शिक्षकों के बीच और अधिक सुविधा पाने की होड़ सी मचा दी और परिणामतः अति की इस अवस्था ने हम शिक्षकों के प्रति लोगों मे पूर्वाग्रह पैदा कर दिया।

मै खुद को जानती हूँ, एक शिक्षक बनना मेरा सपना तो नही था और इसीलिये इस विभाग मे मेरी शुरुआत भी बहुत उत्साहित करने वाली नही थी। समय बीतने के साथ ही जब स्वयं को अध्यापन के कार्य मे रत कर लिया तो लगा कि शायद इस विभाग मे होकर ही मै अपनी पढ़ाई-लिखाई के साथ न्याय व पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति बेहतर ढ़ंग से कर सकती हूँ। इसके पीछे कारण यह कि स्कूल की एक निश्चित समयावधि होती है और हम अपने समय को अपने हिसाब से मैनेज कर सकते हैं। जब इस सत्य के साथ खुश रहना सीख लिया तो सच कहूँ तो मुझे मेरे शिक्षक होने की परोक्ष खुशियाँ प्रत्यक्षतः  अब दिखाई पड़ने लग गईं और मै अपने कार्य को आत्मसंतुष्टि के साथ करने लग गई।

जरूरी यह है कि हम शिक्षक हो कर शिक्षक धर्म के मायने को समझें। नौकरी के बाद से मेरे लिये अब तक सर्वाधिक गर्वानुभूति के वो सारे दिन रहे जब मै अपने स्कूल के बच्चों के बीच मे रही और उनको उनके हिस्से का वह समय दे पाई जैसा कि वो एक शिक्षक से चाहते हैं। मेरे लिये यह भी आत्मसंतुष्टि का विषय है कि गर्वानुभूति के ये दिन अब हर दिन मेरे जीवन मे जुड़ते ही जा रहे हैं। मै अपने उन विचारों को आपके समक्ष साझा कर रही हूँ जिनको मैने किसी से सुन कर नही बल्कि स्वयं के अनुभव से समझा है।

जब हम किसी नये बच्चे को कक्षा एक मे एडमिशन देते हैं, उस वक़्त उन बच्चों के लिये सबसे जरूरी और प्राथमिक चरण है उनसे शिक्षक का परिचय, और परिचय भी ऐसा कि यदि कहीं उनके बालमन मे शिक्षक की छवि एक 'राक्षस' सी है (जैसा कि मैने कई मौकों पर महसूस भी किया है) तो उनके अंदर से इस मिथ्या भ्रम को निकाल बाहर किया जाये और उन्हे ख़ुद के नज़दीक वैसे ही लाया जाये जैसे कि हम अपनी संतानों के साथ होते हैं। इस विषय पर ज्यादा न कहते हुये मै आगे बढ़ती हूँ क्योंकि इन सारे विषयों पर लोग पहले भी लिखते आये हैं।

कुछ लोगों के लिये शिक्षण ही प्रथम प्रायिकता की सेवा होती है, खासतौर से महिलाओं के लिये इसे सबसे उपयुक्त माना जाता है, लेकिन कुछ लोगों का इस विभाग मे होना 'प्रछन्न बेरोजगारी' सा है। वास्तव मे वो अन्य उच्च पदों के लिये योग्य भी होते हैं किंतु उनका इस विभाग मे होना अनेक कहे और अनकहे कारणों की परिणित होती है। इसीलिये कई बार कुछ 'जीनियस' शिक्षक अपने आप को मानसिक रूप से प्राथमिक शिक्षण के लिये उपयुक्त भी नही समझते और बजाय आत्मसंतुष्टि की खोज करने के ,वो इसे भार सरीखा लादे रहते हैं खासतौर से तब तक तो निश्चित ही जब तक या तो वो सफ़ल नही हो जाते या फ़िर उम्रदराज। लेकिन मेरा उन सभी शिक्षक भाई  और बहनों से अनुरोध है कि अपने बेहतर भविष्य के प्रयासों को जारी रखते हुये भी वो उन बच्चों को उनके हिस्से का न केवल समय दें बल्कि यथासंभव उनका ज्ञान वर्धन भी करें, उनकी आँखों को भी इस लायक बनायें कि वो आगे चलकर आपके बराबर के सपने देख पायें और उनको पाल भी सकें। इससे आपको भी आत्मसंतुष्टि ज़रूर होगी और यदि आप भगवान पर भरोसा रखते हैं तो यह भी यक़ीन रखिये कि भगवान का आशीर्वाद आपके अपने भविष्य को बेहतर बनाने के प्रयासों पर भी स्पष्ट दिखाई देगा।

यद्यपि हमारा कार्यक्षेत्र अकसर दूर-दराज़ के गाँव ही होते हैं जहाँ का शैक्षिक परिवेश शहरों की अपेक्षा अत्यंत ही निम्न श्रेणी का होता है, प्रधान और ग्रामीणों का व्यवहार भी कई बार असम्मान की भावना पैदा करता है और शैक्षिक कार्यों से इतर भी हमे ढ़ेर सारे कार्य करने होते हैं फ़िर भी हम हज़ार बार शिकायतें कर के भी ख़ुद को इस बोध से आजाद नही रख सकते कि हमने अपने हिस्से की वह मेहनत तो नही की है जिसके लिये हम सरकार की ओर से तनख़्वाह पाते हैं। यदि आप अपनी सेलरी के तीस हिस्से करें और फ़िर देखें कि क्या हमने हर एक हिस्से के अनुसार उस मूल्य को रोपित भी किया जिसके लिये हमे मेहनताने का वह हिस्सा मिल रहा है? अधिकाधिक बार आप पायेंगे कि उन तीस मे से ज्यादातर हिस्से आपको ज्यादा ही दिये गये हैं। जिस दिन आप अपने हर हिस्से का शैक्षिक,भावनात्मक और कर्तव्यीय मूल्य जान जायेंगे, आप उनको निभाने भी लग जायेंगे। आत्मसंतुष्टि­ का बोध बहुत जरूरी है क्योंकि यह हमे सुकून भी देता है और रोज समय से अपने स्कूल पहुंचने और बच्चों के साथ न्याय करने.का कारण भी। याद रखिये उन ग़रीब बच्चों का जिनको अकसर आप मिड-डे-मील खिलाने भर का दायित्व ही पूरा करते हैं, हमारे अलावा कोई उन्नयन नही कर सकता। हमे स्वयं मे ही 'पहचान' बनानी होगी और उसके लिये हमको विशेष रूप से चलाये जाने वाले किसी मिशन की आवश्यकता भी न पड़ेगी। अपने ऊपर किये जाने वाले नित नये जुल्मों की दुहाई तो हम रोज ही देते फ़िरते हैं किंतु कभी उन संसाधनों की तारीफ़ करते नही दिखते जो हमे दिये गये हैं। हमे गाँव के वो बच्चे मिले हैं जिनके लिये हम भगवान से कम नही होते, दिल पर हाथ रख कर सोचियेगा कि वो बच्चे आप को कितना ज्यादा मानते आये हैं। शायद माँ और बाप से भी ऊपर? पीने का पानी मंगाने के लिये जब आप किसी बच्चे को पुकारते हैं तो एक साथ चार आपकी ओर दौड़ पड़ते हैं। यह संस्कृति केवल ग्रामीण बच्चों मे ही दिखाई देगी क्योंकि शहरी परिवेश के बच्चों मे शायद प्रकृति से इतनी समीपता नही रह गई है, और फ़िर भी अगर आप इनके पक्ष मे इनके हक़ को अदा नही कर रहे हैं तो अब भी वक़्त है , इन्हे भी संवारिये।

इन तमाम बातों के साथ मै आप सब से केवल इतना कहना चाहती हूँ कि हमे मन से शिक्षक बनना होगा न की कार्यवाई के डर से। कोई भी अधिकारी हममे 'भय' का रोपण करके हमे शिक्षक नही बना सकता क्योंकि यदि हमने किसी भय या दबाव मे कुछ समय के लिये इसे स्वीकार कर भी लिया तो भी बदलते आधिकारियों के साथ हमारे शिक्षक कर्तव्य भी ,रोज ही बदलते रहेंगे। यहाँ यह भी याद दिला दूँ कि शिक्षक अंत मे केवल शिक्षक ही है किंतु भगवान ही मालिक है उन मित्रों का जो तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रेरण से स्वमेव भगवान बनने से भी गुरेज नही करते।

अगर हम अपने कार्य को ही पूजा मान लें तो यक़ीन रखिये कि तब हम केवल अपने कर्तव्य ,यानि अपने बच्चों के साथ न्याय करने, को ही अपना भगवान मानेंगे न कि हमे नित नये भगवान बनाने पड़ेंगे।

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