यूपी के सरकारी स्कूलों में बच्चों के लिए पेय जल की ऐसी व्यवस्था की गई है जिसमें उन्हें रोज घंटों टैंक में पानी चढ़ाने की मशक्कत में लगे रहना पड़ता है।


सरकारी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा की दुर्दशा यूं ही नहीं हुई है। इसके पीछे जिस तरह के स्पष्ट कारण हैं उनसे लगता है कि जिम्मेदार लोगों ने जानबूझकर ऐसे हालात पैदा किए हैं। केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह के निर्देश पर राज्यों ने मध्याह्न भोजन योजना में सप्ताह में एक दिन खीर के स्थान पर दूध देना निश्चित किया। यह योजना कितनी आधी-अधूरी तैयारी के साथ शुरू की गई, यह उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के उदाहरण से साफ होता है। 



सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी बताती है कि फैजाबाद जिले के प्राथमिक स्कूलों में इस योजना के लिए प्रतिदिन कम से कम 48,000 लीटर दूध की आवश्यकता है। फैजाबाद में महज एक दुग्ध डेयरी है जो सरकार के सहकारी क्षेत्र की है। उसका कुल दैनिक दुग्ध संग्रह सिर्फ 18,000 लीटर का है और उसका दुग्ध वितरण अपने एजेंटों के मार्फत ही होता है, सो डेयरी ने हाथ उठा दिया। प्रदेश के शिक्षाधिकारियों ने स्कूलों के प्रधानाध्यापकों को निर्देशित किया कि वे गांव के दुग्ध विक्रेताओं से सीधे दूध खरीदें। दूधवालों ने मना कर दिया कि वे महज एक दिन दूध नहीं दे पाएंगे। रोज खरीदना हो तभी देंगे। आगरा में निजी स्तर पर ऐसी खरीद की गई तो जहरीले दूध के कारण एक ही स्कूल के 90 बच्चों की जान पर बन आई और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। घटना 25 दिसंबर 2015 की है। 



एक अन्य योजना ऐसे स्कूलों में पेयजल व्यवस्था की है। अबाध और स्वच्छ पेयजल आपूर्ति हेतु सरकारी स्कूलों में इंडिया मार्क 2 हैंडपंपों की स्थापना की गई है। बाद में सोचा गया कि स्कूलों को मॉर्डन दिखाना है तो ओवरहेड टैंक और पाइप लाइन होनी चाहिए। गांवों में बिजली की दुर्दशा के बारे में सभी जानते हैं। सो यह किया गया कि ओवरहेड टैंक स्थापित करके उसे वॉल्व लगाकर हैंडपंपों से जोड़ दिया गया। लेकिन सवाल यह था कि टैंक में पानी पहुंचाए कौन! ध्यान रहे कि प्राथमिक विद्यालयों में चपरासी आदि नहीं होते। सो यह काम नन्हे-मुन्ने बच्चों के सिर लादा गया। उनसे जबरन घंटों हैंडपंप चलवा कर टैंक भरा जाता है और वे अपना हाथ लाल कर बैठते हैं। सोचा जा सकता है कि इसके बाद वे पढ़ाई क्या कर पाते होंगे। हां, विद्यालयों में मध्याह्न भोजन बनाने वालों को जरूर आराम से पानी मिल जाता है। 



अधिकतर सरकारी प्राथमिक स्कूलों का पढ़ाई से जैसे कोई वास्ता ही नहीं रह गया है। इसीलिए बच्चों की पढ़ाई के प्रति जरा भी परवाह रखने वाले मां-बाप उन्हें निजी स्कूलों में भेजते हैं। सरकारी स्कूल फर्जी पंजीयन रजिस्टरों की बदौलत न्यूनतम छात्र संख्या का भ्रम बनाकर रखते हैं। 



मगर महाराष्ट्र में शायद यह भी नहीं हो पा रहा। प्रदेश के शिक्षामंत्री विनोद तावड़े ने दिसंबर 2015 में विधानसभा में स्वीकार किया कि राज्य के स्कूलों में छात्रों का अकाल है। वहां 27 स्कूल ऐसे हैं जहां टीचर्स तो हैं, पर स्टूडेंट एक भी नहीं। 75 स्कूलों में मात्र एक-एक बच्चे, 214 स्कूलों में दो-दो बच्चे, 253 स्कूलों में तीन-तीन बच्चे और 311 स्कूलों में चार-चार बच्चे पढ़ते हैं। 




असल में यह शासन की मंशा का ही प्रतिफल है। शुरू से ही सरकारी कर्मियों के बच्चों के लिए केंद्रीय स्कूल और सैनिकों के बच्चों के लिए सैनिक स्कूल बना दिए गए। ‘जनता’ को प्राथमिक स्कूलों के भरोसे छोड़ दिया गया। प्राथमिक स्कूलों को लालच का अड्डा बनाया गया कि यहां आओगे तो बस्ता, किताब, कपड़ा, भोजन, दूध, वजीफा, साइकिल- सब मिलेंगे। बस, पढ़ाई की चर्चा भूलकर भी नहीं की जाती। लेकिन नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की ताजा रिपोर्ट कहती है कि मध्याह्न भोजन और उक्त सारा लालच भी बच्चों को स्कूल तक नहीं ला पा रहा, उल्टे इसमें और गिरावट आ रही है। सरकारों की इस साजिश को समझने की जरूरत है।

"आपकी बात" में आज 'सुनील अमर'

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  1. सरकार को यदि शिक्षा मै गुणवत्ता चाहिए तो सभी प्रलोभन बंद करना होगा और दंडित करने का अधिकार शिक्षक को देना होगा।

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  2. School teaching ke lite hora hair. Khana ke liye nhi hota hai .

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  3. School teaching ke lite hora hair. Khana ke liye nhi hota hai .

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  4. School teaching ke liye hora hair. Khana ke liye nhi hota hai .

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