प्राइमरी का मास्टर डॉट कॉम के फैलाव के साथ कई ऐसे साथी इस कड़ी में जुड़े जो विचारवान भी हैं और लगातार कई दुश्वारियों के बावजूद बेहतर विद्यालय कैसे चलें, इस पर लगातार कोशिश विचार के स्तर पर भी और वास्तविक धरातल पर भी करते  है। चिंतन मनन करने वाले ऐसे शिक्षक साथियों की कड़ी में आज आप सबको अवगत कराया जा रहा है जनपद कानपुर देहात के साथी  श्री विमल कुमार जी से!  स्वभाव से सौम्य, अपनी बात कहने में सु-स्पष्ट और मेहनत करने में सबसे आगे ऐसे विचार धनी शिक्षक  श्री विमल कुमार जी  का 'आपकी बात' में स्वागत है।

इस आलेख में उन्होने शैक्षिक परिवेश के भयरहित होने पर ज़ोर देते हुये ऐसे आनंददायी माहौल को शिक्षक को भी उपलब्ध कराने पर बल दिये जाने पर ज़ोर दिया है।  हो सकता है कि आप उनकी बातों से शत प्रतिशत सहमत ना हो फिर भी विचार विमर्श  की यह कड़ी कुछ ना कुछ सकारात्मक प्रतिफल तो देगी ही, इस आशा के साथ आपके समक्ष   श्री विमल कुमार जी  का आलेख प्रस्तुत है।



शिक्षा में शान्ति का मनोविज्ञान!


मित्रों! शान्ति और जीवन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि मनुष्य के मन में शान्ति है तो उसका जीवन शान्तिमय होकर मानसिक और शारीरिक रूप से उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होता है, और यदि मन अशांत है, तो खोटे सिक्के की तरह अज्ञानता के आगोश में भटकता फिरता है। इसलिए ज्ञान एवं शिक्षा के क्षेत्र में मन को भय, शोक, शंका आदि से रहित होना ही चाहिए। शायद यही शिक्षा में शान्ति और मनोविज्ञान का महत्व है। इसीलिए बच्चों के शैक्षिक परिवेश को भय रहित शान्तिमय बनाने की अनुशंसा की जाती है, जिससे बच्चा कुशल ज्ञान का सर्वोत्तम ग्राही बन सके।

अब प्रश्न यह उठता है कि बच्चे के शैक्षणिक परिवेश को शान्तिमय बनाने के लिए कौन कौन से कारक हैं? क्या बच्चा अकेला ही शैक्षिक परिवेश को शान्तिमय बना सकता है? शायद यही पर एक चूक हो रही है शिक्षा को सर्वप्रिय ग्राही बनाने में। जहाँ बच्चों को तो भय रहित शान्तिमय वातावरण की बात की जाती है लेकिन शिक्षक की अशान्ति के लिए अनेक कारण आज की व्यवस्था ने बना रखे हैं। जबकि आप सभी जानते हैं कि यदि किसी के मन में किसी कारणवश हलचल हो तो उससे उसके मन की बात सुन ली जाए तो निश्चित ही मन शान्तिपूर्ण हो जाता है, पर दुर्भाग्यवश व्यवस्था की भीड़ में कोई सुनने वाला ही नहीं है। सभी शिक्षक को सुनाने और मानसिक अशान्ति देने के लिए तैयार खड़े हैं। जबकि हम सब जानते हैं कि अच्छे शिक्षण के लिए शिक्षक, शिक्षार्थी दोनों का भय और तनाव मुक्त और शान्तिमय होना अति आवश्यक है, जोकि आजकल विद्यालय परिवेश से गायब सा है।

इसके कारण कुछ भी हो सकते हैं। फिर भी हम शिक्षक और राष्ट्र सेवक होने के नाते सदैव ये भाव रखते हैं कि हम कैसे अधिक से अधिक अपने विद्यालय के बच्चों को ज्ञानवान और कुशल भारतीय नागरिक बना सकें। हमें अपनी जिम्मेदारी का पूर्ण अहसास है कि परमात्मा बच्चे के शरीर का निर्माण करते हैं तो हम उसके जीवन जीने के पथ का निर्माण करते हैं। यदि किसी भी कारण से अपने विद्यालय के एक भी बच्चे को अपना ज्ञान नहीं दे पाया तो बच्चे के जीवन में हमारे कारण आयी रिक्तता को दुबारा भरने का मौका नहीं मिल सकेगा। बच्चा हमेशा उस रिक्तता का अनुभव जीवन में अनेक कष्टों के रूप में करेगा। यही तो एक अन्तर है जो एक शिक्षक में और एक अन्य किसी क्षेत्र के सेवक में।

अब हमें सोचना यह है कि- क्या हम अपना शिक्षक धर्म निभा पा रहे हैं या नहीं? यदि हाँ तो इसे और आगे कैसे उन्नत बनाया जाय? और यदि नहीं तो ऐसी कौन सी स्थितियां है, जो हमारे शिक्षक धर्म को निभा पाने में बाधक है, जिनको दूर किया जाए। शायद बाधाएं तो अनेक हो सकती हैं, लेकिन सबसे बड़ी बाधा एक है - शिक्षक और शिक्षार्थी की मन की शान्ति। यही हमारे शिक्षाविदों के शोध भी रहे हैं कि, ''शान्त मन मष्तिष्क ही ज्ञान का सर्वोत्तम ग्राही होता है।"

इसलिए बच्चों की शिक्षा को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारक जिनमें शिक्षक, शिक्षाधिकारी, सरकार और अभिभावक एक दूसरे के सहयोगी बन जाये तो शान्ति की बात और वातावरण भी बन जाये। लागू की जाने वाले अदूरदर्शी योजनाओं के कारण और शिक्षणेत्तर गतिविधियों को बढ़ावा देकर शिक्षक की मानसिक शान्ति और अभिभावक की मानसिक शान्ति का हरण सा कर लिया गया है। जिससे शान्ति की खोज में शिक्षक जोड़ तोड़ कर लालच की जुगाड़ में फंस गया और अभिभावक झूठी शान या गरीबी के दुश्चक्र में फंस गया, जिससे शिक्षक और अभिभावक दोनों सत्य और आवश्यक समस्या का न तो समाधान खोज सके और न ही अशान्ति कारक नीतियों का विरोध ही कर सके और जिसका सीधा असर बच्चों की शिक्षा पर पड़ा। यही अशान्ति बेसिक शिक्षा का दुर्भाग्य बन कर खड़ी है। इस अशान्ति का जन्म विद्यालय में कुछ धन देकर कमीशन के द्वारा अध्यापक के शोषण के माध्यम से हुआ, जिसका पालन हारा वही है जो आम शिक्षक की बात नहीं सुनता केवल तर्क बुद्धि द्वारा पैसा की ही सुनता है। लेकिन फिर भी हमारी संस्कृति हमें सिखाती है -' "जहाँ चाह वहाँ राह।" इसलिए मित्रों

कर्तव्य की तलवार से अधिकारों को वश में करलो।
और शान्ति के श्रंगार से मन में खुशियाँ भर लो।।

ये जिन्दगी मौत की अमानत है,
ये हमेशा याद करलो।।
इस सत्य का भी जीवन में,
एक बार दीदार कर लो।।  कर्तव्य की ..........

आज अपना है कुछ अच्छा कर लो।
कल किसी और की अमानत है याद कर लो।।

कर्तव्य की तलवार से अधिकारों को वश में कर लो।
शान्ति के श्रंगार से मन में खुशियाँ भर लो।।

सत्यमेव जयते ।


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