ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग की प्रमुख रिद्धि कश्यप के एक शोध से यह खुलासा हुआ है कि आने वाले समय में भारत में लड़कियों का विवाह इसलिए मुश्किल होगा, क्योंकि उनके समकक्ष वर ढूंढ़ना एक समस्या होगी। उक्त शोध शिक्षा के मामले में सशक्त हो रही महिलाओं का चित्रण करता है, पर एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि दुनियाभर में प्रत्येक सात सेकेंड में एक नाबालिग लड़की का विवाह भी संपन्न हो जाता है। एक अरब दस करोड़ लड़कियां कम उम्र में ब्याही जाती हैं, जबकि मौजूदा विश्व की जनसंख्या 7 से 8 अरब के बीच है। शादी के बाद अधिकांश नाबालिग लड़कियां स्कूल नहीं जा पातीं। अधिकतर 18 वर्ष से पहले ही मां बन जाती हैं, जो हर हाल में जच्चा-बच्चा दोनों के लिए न केवल जानलेवा है, बल्कि समाज के लिए भी न्यायोचित नहीं है। 
वास्तव में भारत में साक्षरता को लेकर बीते कई दशकों से जो प्रयास हुए, वे सकारात्मक रहे, फिर भी पुरुषों की तुलना में महिलाएं अभी भी करीब 18 फीसदी कम साक्षर हैं। बावजूद इसके शिक्षा जगत में जो पहुंच इन दिनों लड़कियों ने विकसित की है, वो वाकई में काबिल-ए-तारीफ है और अनुमान यह है कि आने वाले 30-35 वर्षों में यही लड़कियां इतनी योग्य हो जाएंगी कि इनके योग्य साथी मिलने मुश्किल होंगे। हालांकि, विवाह जैसे संस्कार शिक्षा की उन्नति के चलते बेरुखी में नहीं बदलने चाहिए, पर जिस बेड़ियों से लड़कियां जकड़ी रही हैं, उसे देखते हुए साफ है कि शिक्षा उनके उड़ान के काम तो आ रही है। रही बात लड़कों की तो उन्हें भी अपने स्तर को समय रहते उठाने पड़ेंगे। ये स्पर्धा के चलते नहीं, बल्कि आने वाले वक्त की मांग के चलते ऐसा करना होगा। 
वर्ष 1947 में जहां देश की महज 12 फीसदी साक्षरता दर थी, वहीं 2011 तक 74 प्रतिशत से अधिक है, परंतु अभी तक हम वो मुकाम नहीं हासिल कर पाए हैं, जो इन सात दशकों में संभव हो जाना चाहिए था। क्या यह बात कहीं से वाजिब हो सकती है कि आज भी बदहाली के कारण करोड़ों लड़कियां न तो शिक्षा प्राप्त कर पाती हैं और न ही सशक्तीकरण को लेकर उन पर कोई ध्यान दिया जाता है, बल्कि अल्प आयु में विवाह करने की होड़ जरूर रहती है। 2011 की जनसंख्या आंकड़ों की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में हर तीन शादीशुदा महिलाओं में से एक की शादी 18 साल की उम्र से पहले हुई है। चौंकाने वाली बात तो यह भी है कि 80 लाख से अधिक लड़कियों की शादी 10 साल की उम्र से पहले करा दी गई। आंकड़े यह भी दिखा रहे हैं कि सभी शादीशुदा महिलाओं में 91 फीसदी की शादी 25 की उम्र पहुंचते-पहुंचते हो जाती है। तथ्य से तो यह भी उजागर हुआ है कि बाल विवाह का आंकड़ा हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई सभी धमोंर् में कमोबेश विद्यमान है, बस अंतर प्रतिशत का है। बौद्ध धर्म में तो यह आंकड़ा 27.8 फीसदी का है, जबकि मुस्लिम समुदाय में यह 30 प्रतिशत से अधिक है और हिंदू धर्म में तो यह 32 फीसदी के आस-पास है। इसमें ईसाई धर्म को लेकर कुछ हद तक सकारात्मक इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि यहां आंकड़ा 12 फीसदी का है। जैन धर्म में भी 16 फीसदी से अधिक लड़कियों का विवाह 18 वर्ष की उम्र से पहले हो जाता है। पड़ताल इस ओर इशारा करती है कि बाल विवाह बदहाली के चलते कहीं अधिक संभव होते हैं। हालांकि, इसकी प्रथा भी काफी हद तक आज भी जिम्मेदार है। गरीबी, सामाजिक असमानता के कारण मां-बाप बच्चियों का विवाह जल्दी करा देते हैं। भारत के कुछ क्षेत्र तो इसे लेकर चली आ रही परंपरा को बदलना ही नहीं चाहते, जिसके चलते आंकड़ों में भारी इजाफा होता रहा है। इसके अलावा कई ऐसी वजह हैं, जिसके चलते बच्चियां अल्प आयु में इस प्रथा का हिस्सा बनती चली गईं। हैरत की बात यह है कि पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा बाल विवाह भारत में होते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि अनवरत व्यक्तियों को समृद्ध करती शिक्षा ने समाज के परिदृश्य को भी बदला है। सोच में बदलाव, विपरीत परिस्थितियों में डटे रहने की क्षमता समेत व्यक्तित्व को कई आयामों से सुसज्जित भी किया है। बावजूद इसके कुछ ऐसे अटल सत्य हैं, जो आज भी किसी चुनौती से कम नहीं हैं। लड़कियों में आत्मनिर्भर होने की अवधारणा भी पहले की तुलना में मीलों आगे है, पर दुर्दशा भी उसी गति से अभी भी बरकरार प्रतीत होती है, जिसमें खोता बचपन आज भी बड़ी चुनौती बना हुआ है। बेटी-बचाओ, बेटी पढ़ाओ की बड़ी खूबसूरत अवधारणा अभी प्रसार ले रही है, पर कई बेटियों की पहुंच में अभी भी यह अभियान नहीं है। कई टीवी सीरियल के माध्यम से भी ऐसी समस्याओं को उजागर करने का प्रयास किया गया। एक सार्थक सोच और चिंतन यह दर्शाता है कि सभी को वह अवसर मिलना चाहिए, जिसके वह हकदार हैं, पर इनके हक को छीनने वाले शायद अभी आने वाली भीषण तबाही का अंदाजा नहीं लगा पाए हैं। बेशक आज भी बच्चियों की पैदाइश पर कुछ लोग नाक-भौंह सिकोड़ रहे हैं, पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे इस भेदभाव के चलते इस धरा को न केवल असंतुलित कर रहे हैं, बल्कि मानवाधिकार का तेजी से उल्लंघन भी कर रहे हैं। ये बात सही है कि महज योजनाओं से समस्याओं का निपटारा नहीं होता। केवल रणनीति का बाजारीकरण करके निदान की खानापूर्ति नहीं की जा सकती। स्तरीय लड़ाई को लड़ने के लिए उठे हुए स्तर पर बात करनी ही होती है। बरसों से सरकारी योजनाएं धरातल पर रेंगती रहीं और नाक के नीचे कुप्रथाएं बलवती होती चली गईं। कम उम्र में ब्याही कई लड़कियां, घरेलू हिंसा, शारीरिक शोषण, अवसाद, खराब सेहत यहां तक कि एड्स जैसी गंभीर बीमारियों से भी जूझती हैं। सभी का आंकड़ा देना यहां संभव नहीं है, परंतु बाल विवाह के ऐसे तमाम साइड इफेक्ट देखे जाते रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस 11 अक्टूबर को मनाया जाता है, जो बीत गया। इसी दिन इस वर्ष विजयदशमी थी। बुराई पर अच्छाई की जीत के लिए सदियों से जाना जाने वाला दशहरा और अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस की तिथि संयोगवश इस बार एक ही थी। इस मौके पर वैश्विक संस्था सेव द चिल्ड्रन ने एक रिपोर्ट जारी की, जिसके मुताबिक दुनिया भर में प्रति 7 सेकेंड में 15 वर्ष से कम उम्र की एक लड़की की शादी हो जाती है। दुखद ये भी है कि इस मामले में अधिकांश लड़कों की उम्र लड़कियों से दोगुनी रही है। जारी रिपोर्ट में 144 देशों की सूची में भारत 90वें स्थान पर हैं, जबकि पाकिस्तान इस मामले में दो कदम कम है, वह 88 स्थान पर है। सबसे कम बाल विवाह का आंकड़ा स्वीडन का है और सभी देशों में ये अव्वल है। इतना ही नहीं पड़ोसी देश श्रीलंका, नेपाल, भूटान भी नाबालिग लड़कियों के विवाह के मामले में भारत से बेहतर स्थिति में हैं। सवाल है कि बढ़ रही महिलाओं की शिक्षा के बीच बाल विवाह जैसे कुप्रथा से छुटकारा क्यों नहीं मिल रहा। बेशक समस्या बड़ी है, पर निदान मिलेगा, ऐसी आशा से पीछे भी नहीं हटा जा सकता।

लेखक
सुशील कुमार सिंह
sushilksingh589@gmail.com

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